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क्या दिया नर्मदा बचाओ आंदोलन के 35 सालों ने

शिवप्रसाद जोशी
२१ अगस्त २०२०

बांध परियोजनाओं के खिलाफ पूरी दुनिया में अहिंसक संघर्ष का प्रतीक बन चुके नर्मदा बचाओ आंदोलन को 35 साल पूरे हो चुके हैं. बीते साढ़े तीन दशकों में उसने दूसरे आंदोलनों को प्रेरणा दी है, लेकिन खुद पस्त भी दिख रही है.

Indien Eröffnung Staudamm Narmada | Narendra Modi
तस्वीर: UNI

नर्मदा नदी घाटी पर 30 बड़ी, 136 मझौली और 3000 लघु बिजली परियोजनाएं बनी हैं. टिहरी बांध परियोजना के खिलाफ 1970 के दशक में शुरू हुए विरोध की तरह नर्मदा परियोजना का भी विरोध शुरू हो चुका था. इसे मुकम्मल पहचान मिली नर्मदा बचाओ आंदोलन से जो संभवतः देश में सबसे लंबी अवधि तक चलते रहने वाले जनांदोलनों में अग्रणी है. सफलता या विफलता से नहीं, आंदोलन ने अपनी जिजीविषा, इरादों और अपने प्रभावों से  देश दुनिया में उन सबका ध्यान भी खींचा जो विकास, पर्यावरण और मानवाधिकारों की बहसों से जुड़े हैं. लेकिन विकास परियोजनाओं को लगातार मिल हरी झंडी और एक के बाद एक निवेश से जुड़े सरकारी फैसलों को देखें तो ये सवाल स्वाभाविक रूप से उठता है कि आखिर ऐसे आंदोलनों का भविष्य क्या है.

नर्मदा बचाओ आंदोलन का 35 साल का सफर दिखाता है कि आखिर कैसे ये आंदोलन इतने लंबे समय से टिका रह पाया. और कैसे इसके बिना देश में जनसंघर्षों और विकास के अंतर्विरोधो की बहस भी अधूरी रह जाती है. मोटे तौर पर हैरान कर देने वाले इस तथ्य की बारीकी में जाएं तो हमें संगठन का पारदर्शी और पदाधिकारविहीन लोकतांत्रिक स्वरूप, ठोस सुचिंतित और सुव्यवस्थित प्लानिंग, दीर्घ कार्ययोजना, संगठित, सुगठित, प्रतिबद्ध और समर्पित कार्यकर्ता और कुशल जनसंपर्क अभियान जैसे रणनीतिक कौशल देखने को मिलते हैं. और इन सबके पीछे पर्यावरण और समाजशास्त्र की विदुषी मेधा पाटकर का ऊर्जावान नेतृत्व भी है जिसकी तस्दीक अपने अपने ढंग से होती रही है. मेधा पाटकर से वैचारिक विरोध रखने वाले भी उनकी धाक मानते हैं और प्रशंसा किए बिना नहीं रहते.

नर्मदा पर पनबिजलीतस्वीर: Getty Images/AFP/S. Panthaky

दूसरे आंदोलनों को दी प्रेरणा

इस आंदोलन की एक उपलब्धि ये भी है कि इसने देश के अन्य जमीनी संघर्षों के लिए एक तरह से संबल और प्रेरणा का काम किया. मुंबई का घर बनाओ घर बचाओ आंदोलन हो या भूमि अधिग्रहण कानून में बदलाव या आंदोलन के आधार पर अदालतों के देश की अन्य विवादास्पद परियोजनाओं के करोड़ों विस्थापितों के लिए सुनाए गये लाभकारी फैसले, कई मायनों में ये 35 साल महत्त्वपूर्ण रहे हैं.

एक दौर ऐसा भी था जब मेधा पाटकर पर विदेशी ताकतों के हाथों में खेलने का आरोप लगता था, फंडिंग से लेकर कामकाज तक. अदालतों में मामले चले और मीडिया में ऐसे आरोपों को लेकर सुर्खियां भी बनीं. 1999 में सरदार सरोवर बांध परियोजना के हवाले से आउटलुक पत्रिका में प्रख्यात लेखिका अरुंधति रॉय का एक विचारोत्तेजक निबंध प्रकाशित हुआ जिसमें उनका कहना था कि भारत के पास 3600 बड़े बांध हैं और वे देश की पांच करोड़ जनता को चुपचाप निगल चुके हैं और अब नर्मदा की बारी है.

अरुंधति को 1997 में बुकर पुरस्कार मिला था. उन्होंने विकास और पर्यावरण को लेकर सवाल उठाने शुरू किए थे और इसी सिलसिले में नर्मदा बचाओ आंदोलन के धरना प्रदर्शनों में शामिल होने लगी थीं. उन्हीं दिनों सुप्रीम कोर्ट के बांध निर्माण के पक्ष में आए एक फैसले पर अपनी टिप्पणी के लिए अरुंधति को अदालत की आपराधिक अवमानना का दोषी पाया गया और उन्हें एक दिन की सांकेतिक जेल हुई और दो हजार रुपये का जुर्माना भरना पड़ा. आंदोलन को बाबा आम्टे जैसे समाजसेवियों और नर्मदा नदी के मर्मज्ञ पर्यावरणप्रेमी लेखक अमृतलाल बेगड़ और अरुंधति जैसे बहुत से लेखकों का ही नहीं राजेंद्र सच्चर, राजीव धवन, प्रशांत भूषण और संजय पारिख जैसे मशहूर अधिवक्ताओं का साथ भी मिलता रहा.

मेधा पाटकरतस्वीर: picture-alliance/dpa

आजादी के समय ही बनी थी योजना

नर्मदा नदी घाटी पर बांध परियोजना के निर्माण की शुरुआती परिकल्पना नवाग्राम प्रोजेक्ट के नाम से 1947 में ही कर ली गयी थी. 1978 में इसे सरदार सरोवर परियोजना के नाम से जाना गया. 1961 में देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने परियोजना का उद्घाटन किया. नर्मदा के प्रवाह का आकलन करने के लिए 1969 में जस्टिस रामास्वामी की अगुवाई में नर्मदा जल विवाद ट्रिब्युनल का गठन किया गया. मई 1985 में विश्व बैंक के साथ मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात राज्यों ने 45 करोड़ डॉलर कर्ज का समझौता किया. 1987 में बांध का काम शुरू हुआ और तीनों राज्यों के बांध विस्थापितों ने असहयोग आंदोलन छेड़ दिया और इसके बाद अगला दशक यानी 1990 का पूरा दशक नर्मदा आंदोलन से थरथराता रहा. पुलिस कार्रवाइयां, अदालती मामले, धरना प्रदर्शन, जुलूस, आक्रोश, अनशन- आंदोलन में स्वयंसेवियों और पर्यावरण कार्यकर्ताओं की हिस्सेदारी बढ़ती गयी.

दिसबंर 1990 में मेधा पाटकर ने अपने छह सहयोगियों के साथ अपना पहला अनशन किया जो 23 दिन तक चला. 1993 में विश्व बैंक ने परियोजना से हाथ खींच लिए. उसी साल केंद्र ने भी एक रिव्यू पैनल गठित कर दिया. परियोजना के तहत महेश्वर बांध को लेकर जारी खींचतान के बीच 1999 में सुप्रीम कोर्ट ने बांध की ऊंचाई को बढ़ाने की अनुमति दे दी. 2000 में सुप्रीम कोर्ट ने सरदार सरोवर परियोजना की ऊंचाई भी दो मीटर बढ़ाने की अनुमति दी. विभिन्न अदालती आदेशों, विवादों और राज्य सरकारों के बीच हितों के टकरावों और आंदोलनकारियों की मुसीबतों और लड़ाइयों के वर्षों से जारी सिलसिले के बीच 2017 में प्रधानमंत्री मोदी ने विशालकाय सरदार सरोवर बांध देश को समर्पित किया.

बांध परियोजनाओं के लाभों की फेहरिस्त जितनी लंबी है उतनी ही उन पर बहस और सवालों की भी है. मुकम्मल पुनर्वास लंबित है और विस्थापितों का आंदोलन थमा नहीं है लेकिन उसकी गतिशीलता में बाधाएं खड़ी की गयी हैं. जाहिर है ये आंतरिक थकान ही नहीं उन बहुत भारी, सुनियोजित और बाहरी और अंदरूनी दबावों का नतीजा भी है जिनसे आंदोलनकारी विस्थापित घिरे हुए हैं. लेकिन ये भी सच है कि संघर्ष प्रक्रिया उत्तरोतर कठिन होती जा रही है, नागरिक आंदोलनों के खिलाफ दबाव बढ़ रहे हैं, सिर्फ और सिर्फ विकास के पक्ष में बहस तेज होती जा रही है.

ब्लॉगः शिवप्रसाद जोशी

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