देश में नई सरकार के गठन के बाद संसद का पहला सत्र, जो बजट सत्र भी है, सोमवार से शुरू हो गया. एक सवाल फिर फिजा में तैर रहा है कि इस बार देश की तकरीबन आधी आबादी को उसका हक दिलाने के प्रति मौजूदा सरकार कितनी गंभीर है?
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यह सवाल उठना लाजिमी भी है क्योंकि इस बार आधी आबादी की नुमाइंदगी लोकसभा में बढ़कर 14 फीसदी हो गई है और मांग 33 फीसदी की है. महिला आरक्षण विधेयक को राज्यसभा ने 2010 में ही मंजूरी दे दी थी लेकिन लोकसभा इस पर लगातार नौ साल मौन रही है. महिलाओं के मुद्दे को लेकर मुखर रहने वाली सामाजिक कार्यकर्ता और सेंटर फॉर सोशल रिसर्च की डायरेक्टर डॉ. रंजना कुमारी कहती हैं कि यह महिलाओं के अधिकार का सवाल है. उन्होंने कहा कि महिलाओं को संविधान से बराबरी का दर्जा प्राप्त है, लेकिन वे लोकसभा और विधानसभाओं में महज 33 फीसदी प्रतिनिधित्व की मांग कर रही हैं.
मौजूदा सरकार द्वारा इसे पास करवाने के मसले पर पूछे जाने पर वह कहती हैं कि अगर महिलाओं को हक दिलाने की सरकार की मंशा होती, तो इस विधेयक को बीजेपी की अगुवाई वाली पूर्व सरकार में ही लोकसभा में पास करवाने की कोशिश की जाती. रंजना कुमारी ने इस मसले पर आईएएनएस से बातचीत के दौरान कहा, "बीजेपी ने 2014 के लोकसभा चुनाव में भी अपने चुनावी घोषणापत्र में इस विधेयक को शामिल किया था. हम पूरे पांच साल तक सरकार को याद दिलाते रहे लेकिन सरकार लोकसभा में विधेयक नहीं लाई."
उन्होंने कहा कि बीजेपी और आरएसएस की विचारधारा में महिलाएं सिर्फ मां, बहन और पत्नी हैं, जिनका काम परिवार की सुख-सुविधा का ध्यान रखना है, लेकिन "व्यक्ति के तौर पर शायद उन्हें महिलाओं को बराबरी का दर्जा या हक देना मंजूर नहीं है. यही कारण है कि पिछली सरकार ने महिला आरक्षण विधेयक पास करवाने में कभी दिलचस्पी नहीं ली." वे आगे कहाती हैं, मैं मानती हूं कि पिछली सरकार महिलाओं के लिए कई योजनाएं लाई, मगर महिला आरक्षण विधेयक पर विचार नहीं किया गया."
महिला आरक्षण बिल की अहम बातें
महिला आरक्षण बिल की अहम बातें
महिला आरक्षण बिल का मुद्दा फिर चर्चा में है. आइए जानते हैं कि क्या है यह बिल?
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क्या है महिला आरक्षण बिल?
यह भारतीय संविधान के 85वें संशोधन का विधेयक है. इसके अंतर्गत लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33 फीसदी सीटों पर आरक्षण का प्रावधान रखा गया है. इसी 33 फीसदी में से एक तिहाई सीटें अनुसूचित जाति और जनजाति की महिलाओं के लिए आरक्षित की जानी है. महिला आरक्षण के लिए संविधान संशोधन 108वां विधेयक राज्यसभा में 2010 में पारित हो चुका. अब लोकसभा में इसे पारित करवाने की बारी है.
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कभी नहीं बन पाई एक राय
पहली बार इस बिल को 1996 में एचडी देवगौड़ा के नेतृत्व वाली सरकार में पेश किया गया था. तब सत्ता पक्ष में एक राय नहीं बन सकी थी. उस वक्त जेडीयू अध्यक्ष रहे शरद यादव ने इसका विरोध किया था. 1998 में जब इस विधेयक को पेश करने के लिए तत्कालीन कानून मंत्री थंबी दुरई खड़े हुए थे. तब संसद में बड़ा हंगामा हुआ और हाथापाई भी हुई उसके बाद उनके हाथ से विधेयक की प्रति को लेकर लोकसभा में ही फाड़ दिया गया.
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महिला आरक्षण बिल के विरोधी कौन?
आरजेडी सुप्रीमो लालू यादव का मानना है कि यह बिल लोकतंत्र को खत्म करने की साजिश है. देश में महंगाई, गरीबी, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार और देश के भीतर एवं सीमा पर खतरे जैसी समस्याएं हैं. लोगों का ध्यान इन मुद्दों से हटाने के लिए महिला सशक्तीकरण के नाम पर यह बिल लाया जा रहा है.
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"परकटी महिलाएं"
जेडीयू के पूर्व अध्यक्ष शरद यादव ने संसद में महिला आरक्षण विधेयक का विरोध करते हुए कहा था कि यदि ये बिल पारित हो गया तो वह जहर खा लेंगे. यादव का आरोप था कि इस बिल से सिर्फ परकटी (छोटे बालों वाली) औरतों को फायदा पहुंचेगा. उनकी मांग थी कि इस बिल में अल्पसंख्यक समुदाय की महिलाओं को कोटा मिले.
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मुलायम सिंह का तर्क
सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह की यह मांग थी कि महिला आरक्षण बिल को मूल स्वरूप (यानी अल्पसंख्यक महिलाओं को कोटा दिए बिना) संसद में ना रखा जाए. आरोप लगाया कि इससे देश की अमीर महिलाएं बहुत आगे बढ़ जाएंगी और गरीब वर्ग की औरतें पिछड़ जाएंगी.
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राहुल के पत्र पर मोदी सरकार का जवाब
महिला आरक्षण बिल पास करवाने को लेकर पिछले दिनों लिखे राहुल गांधी के पत्र पर मोदी सरकार ने सियासी पासा फेंका है. कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने शर्त रखी है कि राहुल को महिला आरक्षण विधेयक के साथ तीन तलाक और हलाला मामले पर भी सरकार का साथ देना चाहिए. कांग्रेस तीन तलाक और हलाला के मुद्दे पर बंटी हुई है.
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विधेयक पारित करने का यह है सबसे अच्छा समय
राज्यसभा में बिल के पारित होने की वजह से यह मुद्दा अभी जिंदा है. मोदी सरकार के पास संख्याबल है और अब कांग्रेस ने बिल को पास करने में दिलचस्पी दिखाई है. अगर लोकसभा इसे पारित कर दे, तो राष्ट्रपति की मंजूरी के बाद यह कानून बन जाएगा. इससे 2019 के लोकसभा चुनाव नए कानून के तहत हो सकेंगे और नई लोकसभा में 33 फीसदी महिलाएं आ सकेंगी.
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उन्होंने कहा कि महिला संगठनों की ओर से फिर सरकार पर दवाब बनाने की कोशिश जारी रहेगी. हाल ही में ग्लोबल इंटरनेट मंच एपोलिटिकल द्वारा दुनिया की सबसे प्रभावकारी 100 महिलाओं की सूची में शामिल डॉ. कुमारी ने कहा, "हम फिर सरकार पर इस विधेयक को लोकसभा में पारित करवाने के लिए दबाव बनाएंगे. खास तौर से राज्य सरकारों की ओर से दबाव बनाने की कोशिश की जाएगी."
गौरतलब है कि लोकसभा चुनाव 2019 में देशभर से 78 महिलाएं संसद में पहुंची हैं, जिससे निचले सदन में उनका प्रतिनिधित्व 14 फीसदी हो गया है, जबकि ओडिशा से 21 में से सात महिला सांसद हैं जो लोकसभा में राज्य से 33 फीसदी प्रतिनिधित्व का दावा करती हैं. रंजना कुमारी इसे सकारात्मक बदलाव का सूचक मानती हैं. उनका कहना है कि शिक्षा और रोजगार के प्रति महिलाओं के उन्मुख होने से समाज में निचले स्तर से बदलाव आ रहा है.
अधिकांश राज्यों में पंचायती राज निकायों में महलाओं को 50 फीसदी या उससे अधिक प्रतिनिधित्व दिया जा चुका है. लेकिन लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं में उनकी 33 फीसदी आरक्षण की मांग अब तक पूरी नहीं हो पाई है, जबकि महिला आरक्षण विधेयक सबसे पहले1996 में संसद में पेश किया गया था. उस समय समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय जनता दल ने इस विधेयक का पुरजोर विरोध किया था.
विरोध के बाद विधेयक संयुक्त संसदीय समिति के पास भेज दिया गया था. इसके बाद फिर 1998 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजेपयी के कार्यकाल के दौरान विधेयक लोकसभा में पेश किया गया लेकिन इस बार भी विधेयक पास नहीं हुआ. महिला आरक्षण विधेयक फिर 1999, 2002 और 2003 में संसद में पेश किया गया लेकिन इसे संसद की मंजूरी नहीं मिल पाई.
संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार के दौरान 2008 में मनमोहन सिंह सरकार ने विधेयक को राज्यसभा में पेश किया. इसके दो साल बाद 2010 में उच्च सदन ने इसे मंजूरी प्रदान की. उसके बाद तकरीबन नौ साल बीत चुके हैं लेकिन विधेयक को लोकसभा में पेश नहीं किया गया है.
भारत में 2019 के आम चुनावों में 17वीं लोकसभा चुनी जा रही है. 1990 के बाद हुए चुनावों में संसद में क्षेत्रीय पार्टियों का में दखल बढ़ा है. एक नजर लोकसभा में पार्टियों के प्रतिनिधित्व पर.
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1991, 27 पार्टियां
साल 1991 के लोकसभा चुनावों के बाद तकरीबन 27 पार्टियां सदन में पहुंची. उन चुनावों में किसी भी राजनीतिक दल को पूर्ण बहुमत नहीं मिला. नतीजतन कांग्रेस ने कम्युनिस्ट पार्टी के साथ मिल कर पीवी नरसिम्हा राव के नेतृत्व में एक अल्पमत सरकार बनाई.
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1996, 30 पार्टियां
11वीं लोकसभा में 30 पार्टियों को जगह मिली. उस वक्त बीजेपी 161 के साथ सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी. बीजेपी ने पहली बार अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में सरकार बनाई जो महज 13 दिन चली. सरकार गिरी और कांग्रेस के समर्थन से तीसरे मोर्चे की सरकार बनी.
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1998, 40 पार्टियां
12वीं लोकसभा में करीब 40 राजनीतिक दलों को सदन मे जगह मिली. इस साल बीजेपी ने 182 सीटों पर जीत दर्ज की और अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में केंद्र में गठबंधन सरकार बनी. लेकिन यह सरकार भी महज 13 महीने में गिर गई.
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1999, 41 पार्टियां
13वीं लोकसभा के चुनावों में बीजेपी एक बार फिर सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी. उस लोकसभा में अब तक सबसे अधिक 41 राजनीतिक दलों को सदन में जगह मिली. बीजेपी ने एक बार फिर अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में 17 दलों के साथ मिलकर गठबंधन सरकार बनाई.
तस्वीर: picture-alliance/AP Photo/A. Rahi
2004, 36 पार्टियां
14वीं लोकसभा के चुनावों में बीजेपी के इंडिया शाइनिंग नारे के बीच कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी. 14वीं लोकसभा में करीब 36 राजनीतिक दलों को जगह मिली. कांग्रेस ने 30 पार्टियों के साथ मिल कर डॉ मनमोहन सिंह के नेतृत्व में सरकार बनाई.
तस्वीर: Reuters/B. Mathur
2009, 38 पार्टियां
15वीं लोकसभा में एक बार फिर कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी. उस लोकसभा में 38 राजनीतिक दलों को सदन में जगह मिली. 2009 के चुनावों में बीजेपी का वोट पर्सेंट गिरा वहीं एक बार केंद्र में डॉं मनमोहन सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार बनी.
तस्वीर: Reuters
2014, 36 पार्टियां
16वीं लोकसभा में बीजेपी को पहली बार 283 सीटें मिली. उस लोकसभा में देश की 36 राजनीतिक दलों को सदन में जगह मिली. केंद्र में नरेंद्र मोदी की अगुवाई में बीजेपी और इसके सहयोगी दलों की सरकार बनी.
तस्वीर: Reuters/K. Hong-Ji
2019, 33 पार्टियां
17वीं लोकसभा में भाजपा 303 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी है. 1984 के चुनाव के बाद पहली बार किसी दल ने अकेले 300 का आंकड़ा पार किया है. नरेंद्र मोदी की अगुवाई में दूसरी बार भाजपा की सरकार केंद्र में बनी है.