उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के गठबंधन से भारतीय जनता पार्टी पहले से ही परेशान थी, अब प्रियंका गांधी वाड्रा ने औपचारिक रूप से राजनीति में प्रवेश करके उसकी मुश्किलें और बढ़ा दी हैं.
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प्रियंका को पूर्वी उत्तर प्रदेश का प्रभारी राष्ट्रीय महासचिव बनाया गया है जहां कांग्रेस का फिलहाल बहुत ज्यादा प्रभाव नहीं है. लेकिन इसी क्षेत्र में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का क्षेत्र गोरखपुर है और यहीं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का चुनावक्षेत्र बनारस भी है. अभी तक प्रियंका गांधी ने अपने आपको केवल रायबरेली और अमेठी में चुनाव प्रचार करने तक ही सीमित रखा था. लेकिन अब उन्हें कांग्रेस संगठन में एक अखिल भारतीय भूमिका दी गई है और उनकी तात्कालिक जिम्मेदारी उत्तर प्रदेश, विशेषकर पूर्वी उत्तर प्रदेश में होने जा रहे लोकसभा चुनाव में पार्टी का प्रदर्शन बेहतर बनाने की है. पिछले चुनावों में भी यह चर्चा रहती थी कि वे पर्दे के पीछे से उम्मीदवारों के चयन और चुनावी रणनीति बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा किया करती थीं. लेकिन अब यह अनुमान की बात नहीं रह गई है.
जिन्होंने भी प्रियंका को चुनाव सभाओं और रैलियों को संबोधित करते हुए देखा-सुना है, उन सभी की यह राय है कि एक सार्वजनिक वक्ता के रूप में वे बेहद प्रभावशाली हैं. श्रोताओं के साथ वे बिना एक भी मिनट गंवाए संवाद स्थापित करने की कला में कुशल हैं, उनकी हिंदी प्रवाहपूर्ण और आम बोलचाल वाली है और हंसी-मजाक और व्यंग्य का भी इस्तेमाल वे बखूबी करती हैं. अनेक उनमें उनकी दादी इंदिरा गांधी की छवि की झलक भी देखते हैं और यह एक सच्चाई है कि आज भी इंदिरा गांधी की लोकप्रियता बरकरार है.
उत्तर प्रदेश में कांग्रेस कार्यकर्ता कई दशकों से पस्त पड़ा था. पिछले दिनों हुए विधानसभा चुनावों में मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान जैसे तीन महत्वपूर्ण राज्यों में मिली जीत से उसमें कुछ उत्साह जगा है. अब प्रियंका के राजनीति में आने से उसका मनोबल कई गुना बढ़ेगा और कांग्रेस संगठन की मशीनरी में एक बार फिर जान पड़ने की उम्मीद बंध जाएगी. इस बात की संभावना भी लगभग स्पष्ट है कि वे रायबरेली या अमेठी से लोकसभा चुनाव लड़ेंगी और अपने क्षेत्र के अलावा पूर्वी उत्तर प्रदेश से जमकर चुनाव प्रचार करेंगी. ऐसे में स्वयं प्रधानमंत्री मोदी के लिए उनकी उपस्थिति एक बड़ी चुनौती बन जाएगी. महिला मतदाता का रुझान भी प्रियंका की ओर होना स्वाभाविक है.
कांग्रेस उत्तर प्रदेश में अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है. सपा-बसपा गठबंधन से बाहर रहकर उसने सभी अस्सी सीटों पर उम्मीदवार खड़े करने की घोषणा की है. यूं वह गठबंधन के बाहर है लेकिन राष्ट्रीय राजनीति के संदर्भ में उसके सपा या बसपा के साथ दुश्मनी के नहीं, दोस्ती के रिश्ते हैं. बहुत संभव है कि वह लोकसभा चुनाव में सपा और बसपा के वोटों के बजाय बीजेपी के वोटों में ही अधिक सेंध लगाए. ऐसे में बीजेपी की मुश्किलें और अधिक बढ़ जाएंगी. यूं भी पिछले चुनाव में उसे अस्सी में से बहत्तर सीटें मिली थीं और इस बार उसकी सीटें घटेंगी ही, बढ़ेंगी नहीं. यदि वह उत्तर प्रदेश का मैदान हार गई, तो फिर केंद्र में बीजेपी के लिए सरकार बनाना काफी कठिन होगा.
राहुल गांधी ने सियासत की कब कौन सी सीढ़ी चढ़ी
राहुल गांधी ने सियासत की कब कौन सी सीढ़ी चढ़ी
राहुल गांधी अब भारत की सबसे पुरानी पार्टी के मुखिया हैं. एक नजर उनके सियासी करियर पर.
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गांधी परिवार की विरासत
राहुल गांधी का जन्म 19 जून 1970 को भारत के सबसे अहम राजनीतिक घराने में हुआ. वह राजीव गांधी और सोनिया गांधी की पहली संतान हैं. राहुल की बहन प्रियंका गांधी वाड्रा उनसे दो साल छोटी हैं. उनके पिता, दादी और परनाना देश के प्रधानमंत्री रह चुके हैं.
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सियासी परिवार
राहुल गांधी की दादी इंदिरा गांधी को उनके प्रशंसक आयरन लेडी कहते हैं जो लंबे समय तक भारत की प्रधानमंत्री रहीं. लेकिन 1984 में उनके अंग रक्षकों ने ही उनकी हत्या कर दी. इसके बाद कांग्रेस और प्रधानमंत्री के तौर पर देश की जिम्मेदारी राहुल के पिता राजीव गांधी के कंधों पर आयी.
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पिता की मौत
1991 में एक चुनावी सभा के दौरान अपने पिता राजीव गांधी की हत्या राहुल गांधी और उनके परिवार के लिए एक बड़ा धक्का था. राजीव गांधी तमिलनाडु में एक सभा के दौरान श्रीलंकाई तमिल चरमपंथियों के आत्मघाती बम धमाके में मारे गये.
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राजनीति से दूरी
चंद सालों के भीतर गांधी परिवार के दो सदस्य राजनीति की भेंट चढ़ गये. ऐसे में सोनिया गांधी और उनके दोनों बच्चों ने सियासत और कांग्रेस से दूरी बना ली. 1992 के आम चुनाव के बाद कांग्रेस सरकार बनाने में कामयाब रही. लेकिन पार्टी का आधार खिसकता गया.
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सियासत में वापसी
पार्टी में नई जान फूंकने के लिए सोनिया गांधी ने आखिरकार 1998 में राजनीति में आने का फैसला किया. 13वीं लोकसभा में वह विपक्ष की नेता बनीं. राहुल गांधी 2004 में राजनीति में दाखिल हुए और अमेठी से लोकसभा पहुंचे.
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अनिच्छुक राजनेता
आलोचक राहुल गांधी को एक 'अनिच्छुक राजनेता' कहते हैं, लेकिन कांग्रेस में उन्हें लगातार आगे बढ़ाया गया है. 2007 में उन्हें पार्टी महासचिव के तौर पर अहम जिम्मेदारी सौंपी गयी. 2009 के आम चुनावों में कांग्रेस ने 262 सीटों के साथ अपना आधार और मजबूत किया. लेकिन उसका श्रेय राहुल को नहीं दिया जा सकता.
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कांग्रेस उपाध्यक्ष
2013 में राहुल गांधी को पार्टी उपाध्यक्ष बनाया गया. 2014 के चुनाव में उन्होंने पार्टी का नेतृत्व किया लेकिन कांग्रेस लोकसभा में सिर्फ 44 सीटों तक सिमट कर रह गयी. कई अहम राज्यों में भी कांग्रेस का प्रदर्शन खराब रहा, इसलिए राहुल अकसर आलोचकों के निशाने पर रहे.
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पार्टी की कमान
दूसरी तरफ, कांग्रेस के भीतर इन आलोचनाओं पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया गया और राहुल गांधी को लगातार पार्टी का नेतृत्व सौंपने की तैयारियां जारी रहीं. आखिरकार अब वह घड़ी आ गयी जब राहुल गांधी पार्टी के प्रमुख बन रहे हैं. हालांकि इस दौरान एक तबका उनकी बहन प्रियंका को पार्टी में लाने की वकालत करता रहा है.
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कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी
राहुल गांधी को कांग्रेस पार्टी का अध्यक्ष चुन लिया गया है. भारत के स्वाधीनता संग्राम की विरासत से उपजी पार्टी को देश की सबसे पुराने राजनीतिक दल होने का गौरव भी हासिल है. राहुल गांधी नेहरू परिवार के छठे सदस्य हैं जो कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गये हैं.
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तंज और मजाक
राहुल गांधी अपनी मां सोनिया गांधी का स्थान लेंगे जो 17 साल से पार्टी की अध्यक्ष हैं. लेकिन यह भी सही है कि इतने सालों से राजनीति में रहने के बाजवूद अभी तक राहुल गांधी शायद जनता की नब्ज को नहीं पकड़ पाए हैं. सोशल मीडिया पर उन्हें लेकर अकसर मजाक और तंज चलता रहता है.
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बड़ी परीक्षा
2019 के आम चुनाव राहुल गांधी के लिए बड़ी परीक्षा होंगे. अर्थव्यवस्था, नोटबंदी और बढ़ते सांप्रदायिक तनाव के बावजूद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता के आगे राहुल कहीं नहीं टिकते. इसलिए पार्टी में नई जान फूंकना राहुल गांधी के लिए भारी मशक्कत वाला काम होगा.