क्या बहुरेंगे लाखों प्रतियां बेचने वाले लुगदी साहित्य के दिन
फैसल फरीद
७ मई २०१९
जबरदस्त सफलता के बाद भी भारत के ऐसे उपन्यासों को साहित्य की श्रेणी में नहीं रखा गया, जो 70 के दशक में युवा लोगों की पसंद होते थे. क्यों और कैसे लद गए 'लुगदी साहित्य' या अंग्रेजी में 'पल्प फिक्शन' के दिन.
वेद प्रकाश शर्मा की वेबसाइट.तस्वीर: vedprakashsharma.com
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आमतौर पर अगर किसी किताब की कुछ हजार प्रतियां भी बिक जाएं तो वह बेस्ट सेलर की श्रेणी में आ जाती है. लेकिन अगर किसी उपन्यास की 10 लाख प्रतियां बिक जाएं और वो भी हाथों हाथ, इतनी मांग हो कि प्रकाशक के लिए छाप पाना मुश्किल हो, तो उस उपन्यास को किस श्रेणी में रखेंगे.
कुछ ऐसा ही हुआ था साल 1991 में वेद प्रकाश शर्मा द्वारा लिखे गए उपन्यास 'वर्दी वाला गुंडा' के समय. मेरठ में तुलसी पॉकेट बुक्स द्वारा प्रकाशित इस उपन्यास ने धूम मचा दी थी. इसकी लाखों प्रतियां बिक गईं. इतनी जबरदस्त सफलता के बाद भी आज ऐसे उपन्यास को साहित्य की श्रेणी में नहीं रखा जाता. इनके लिए एक नया शब्द बना दिया गया- 'लुगदी साहित्य' या फिर अंग्रेजी में 'पल्प फिक्शन'.
क्या है ये लुगदी साहित्य
मेरठ से प्रकाशित होने वाला ये लुगदी साहित्य एक समय पर खूब धूम मचाए रखता था. धड़ाधड़ छपता था और उससे भी तेजी से बिक जाता था. उस दौर यानी 70 के दशक के बाद से अकसर लोगों के हाथ में मोटे मोटे नावेल रहते थे. ट्रेन हो या बस अड्डा - हर जगह ये उपलब्ध रहती थीं. लोग इनको बड़े शौक से पढ़ते थे. जब घर से बाहर निकलते तो हाथ में एक उपन्यास रखना जैसे कोई फैशन स्टेटमेंट होता था. फिर भी इसको बच्चों से दूर रखा जाता था. उस समय ऐसे उपन्यास पढ़ने का एक तरह से मतलब होता था कि वह व्यक्ति अब बड़ा हो गया है. तब इतना खुलापन नहीं था और ये उपन्यास ही एक जरिया थे, जिससे उस समय की पीढ़ी थोड़ा बहुत रोमांचित महसूस करती थी.
रेलवे स्टेशन, बस अड्डे से लेकर रेड़ी पर भी बिकती थीं ये किताबें. तस्वीर: DW/P. Samanta
इस पूरे साहित्य को बड़े समीक्षक लुगदी साहित्य कहते थे. लेकिन तमाम बड़े लेखक भी अपना नाम छुपा कर इनको लिखते थे. कारण था ये बिकता था और इसमें पैसा तुरंत मिल जाता था. मेरठ इस प्रकार के साहित्य का अड्डा बन गया था.
शुरुआत और फलने फूलने का दौर
इन उपन्यासों की शुरुआत तो वैसे वाराणसी में देवकी नंदन खत्री ने की थी. उसके बाद ये इलाहाबाद पहुंचा जहां कुछ उर्दू पत्रिकाएं निकलने लगीं. फिर ओम प्रकाश शर्मा इसको मेरठ ले आए. उन्होंने यहां जनप्रिय प्रकाशन की नींव डाली. उसके बाद व्यवसायी नरेश जैन ने कमल प्रकाशन शुरू किया, जिसमें प्रेम बाजपेयी लिखते थे. फिर वेद प्रकाश कम्बोज ने सीक्रेट सर्विस पब्लिकेशन शुरू किया. कम्बोज के पांच पुत्र थे और फिर पांचों ने अपना अलग अलग प्रकाशन शुरू कर दिया. इस तरह मेरठ में बहुत सारे प्रकाशन समूह हो गए.
बहुत सारे लेखक भी उपलब्ध हो गए जिन्होंने उपन्यास लिखने शुरू कर दिए. बहुत सारी सीरीजें आईं, जिसमें जासूसी, क्रांतिकारी, थ्रिलर, क्राइम, सस्पेंस, पारिवारिक सीरीज शुरू हुई. कुछ किरदार तो बहुत मशहूर हुए जैसे केशव पंडित, विभा जिंदल, विजय विकास इत्यादि. लेखक इतनी तेजी से लिखते थे कि महीने में दो उपन्यास पूरे हो जाते. इनके कवर भी बड़े आकर्षक बनाये जाते थे और ज्यादातर हिंदी सिनेमा से प्रेरित रहते थे. ये कवर हाथ से डिजाइन करके बनाये जाते थे क्योंकि तब कंप्यूटर डिजाइनिंग इतनी सुगम नहीं थी.
सफलतम उपन्यास 'वर्दी वाला गुंडा' प्रकाशित करने वाले तुलसी पेपर बुक्स के संस्थापक सुरेश जैन ऋतुराज बताते हैं, "वो इसका स्वर्णिम दौर था. लगभग 70 के दशक के बाद शुरू हुआ. हमने भी पहला उपन्यास 1972 में लिखा. लोगों में जबरदस्त मांग थी. हर कोई पढ़ना चाहता था.”
'सुपरस्टार' लेखक
मांग का अंदाजा इससे लगता है कि अकेले वेद प्रकाश शर्मा ने ही 170 से अधिक उपन्यास लिख डाले. एक अनुमान के अनुसार इनका हर उपन्यास कोई लाख प्रतियों में छप कर बिकता था. इस प्रकार के लेखकों की लंबी लाइन लग गई, जैसे सुरेन्द्र मोहन पाठक, राजहंस, गुलशन नंदा, अनिल मोहन, रानू, कुशवाहा कान्त इत्यादि. कुछ लेखक जोड़ी में लिखते थे जैसे धरम राकेश, राम रहीम इत्यादि. महिलाओं में इनकी लोकप्रियता अलग तरह की थी. हर लेखक सौ से ज्यादा उपन्यास लिख डालता था. उस दौर में जब प्रख्यात लेखक पैसे की तंगी से जूझते थे और तमाम साहित्यिक पत्रिकाएं पैसे की कमी की वजह बंद हो रही थीं, वहीं ऐसे लेखक और उनके उपन्यास धड़ाधड़ बिक रहे थे. इन उपन्यासों की कीमत कम ही होती थी, लगभग 40 रुपये प्रति. सब खुश थे- लेखक, प्रकाशक और पाठक भी.
सबसे बड़ी बात इतनी ज्यादा बिकने के लिए कोई पब्लिसिटी भी नहीं करनी पड़ती थी. उस समय हर लेखक की 50 हजार प्रतियां बिक जाना आम बात थी और प्रति उपन्यास एक रूपया भी मिल गया तो पचास हजार की कमाई उस समय के लिए बहुत बड़ी रकम होती थी.
इन उपन्यासों के शीर्षक बड़े रोचक होते थे. जैसे- 'क्यूंकि वो बीवियां बदलते हैं' या 'छह सर वाला रावण', '65 लाख की डकैती', 'कानून किसी का बाप नहीं', 'एक करोड़ की दुल्हन', 'एक दिन का हिटलर' इत्यादि.
लोकप्रियता खोने की वजह
लेकिन ये फलती फूलती इंडस्ट्री एकदम से खत्म हो गई. अब इक्का दुक्का प्रकाशक ही बचे हैं और वो भी यदा कदा ही कुछ छापते हैं. ऋतुराज इसका कारण टीवी को मानते हैं जिसके आने से उपन्यास पढ़ने की इच्छा एकदम से खत्म हो गई. इन किताबों का पाठक समूह अब सास बहू के सीरियल और फिर तमाम टीवी कार्यक्रमों के लपेटे में आ गया. इसके बाद रही सही कसर इंटरनेट और मोबाइल ने पूरी कर दी और हाल ये है कि अब ये इंडस्ट्री अपनी अंतिम सांसें ले रही है.
प्रकाशकों को आईना दिखाने वाली किताबें
दुनिया में ऐसे तमाम लेखक आए जिनके उपन्यासों को बेहद पसंद किया गया. लेकिन इनमें से कुछ ऐेसे भी थे जिनकी कहानियों को पहले प्रकाशकों ने छापने से ही इनकार कर दिया. लेकिन जब ये कहानियां छपी तो इन्होंने इतिहास बना दिया.
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हैरी पॉटर (Harry Potter)
ब्रिटिश लेखिका जेके रॉलिंग की किताब हैरी पॉटर के अब कई भाग बाजार में आ चुके हैं. लेकिन एक दौर वह भी था जब कोई प्रकाशक इसकी मैनुस्क्रिप्ट तक देखने को तैयार नहीं था. रॉलिंग को कई प्रकाशकों ने सिरे से नकार दिया. लेकिन रॉलिंग अपनी पहली किताब ब्रिटेन के एक छोटे से प्रकाशक से छपवाने में सफल रहीं. तब से लेकर अब तक हैरी पॉटर के तमाम भाग आ चुके हैं.
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मॉबी डिक (Moby Dick)
कई प्रकाशकों ने कप्तान अहाब और सफेद व्हेलों के साथ उनके एनकांउटर की इस कहानी को छापने से मना कर दिया था. लेखक हरमन मेलविल से कहा गया कि कहानी बेहद ही लंबी है और क्या इसमें व्हेल की जगह आकर्षक मादाओं को शामिल नहीं किया जा सकता. हालांकि किताब साल 1851 में जैसे-तैसे छप गई. मेलविल के जीवन काल में इसे कभी व्यावसायिक सफलता नहीं मिली, लेकिन आज इसे अमेरिकी साहित्य की एक महान रचना माना जाता है.
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द स्पाई हू केम इन फॉर्म द कोल्ड (The Spy Who Came in from the Cold)
शीत युद्ध से जुड़े इस उपन्यास को दुनिया ने पसंद किया. उपन्यास इंटरनेशनल बेस्टसेलर की कैटेगिरी में शामिल हुआ. लेकिन एक वक्त था जब लेखक जॉन ले कैरे की इस रचना को रिव्यूअर ने यह सोचकर खारिज कर दिया कि इस लेखक का कोई भविष्य ही नहीं है. लेकिन साल 1963 में यह उपन्यास छपा और इसी साल कहानी को बेस्ट क्राइम नोवेल का गोल्ड डैगर अवार्ड मिला. दो साल बाद इस उपन्यास पर फिल्म बनी.
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कैरी (Carrie)
कैरी, एक ऐसी लड़की की कहानी है जिसके पास टेलीकाइनैटिक शक्तियां होती है. टेलीकाइनैटिक शक्ति मतलब मस्तिष्क की ऐसी शक्तियां जिससे वह किसी वस्तु को बिना छुए स्थानातंरित कर सके. छपने से पहले यह उपन्यास तकरीबन 30 बार खारिज हुआ. लेकिन साल 1974 में जैसे-तैसे छप गया. यह एक हाई स्कूल टीचर स्टीफन किंग का लिखा पहला उपन्यास था. बाद में इस पर फिल्म भी बनी. लेखक किंग बेस्ट सेलर ऑथर की श्रेणी में शामिल हुए.
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द टेल ऑफ पीटर रैबिट (The Tale of Peter Rabbit)
तमाम प्रकाशकों ने ब्रिटिश लेखक बीट्रिक्स पोटर की बच्चों के लिए तैयार की गई इस किताब की मैन्युस्क्रिप्ट को सिरे से नकार दिया. यह कहानी एक शरारती खरगोश की है. तमाम जगह से ना सुनने के बाद लेखक ने इसे स्वयं छापने का निर्णय लिया. किताब की 4.5 करोड़ प्रतियां बिकी और कई भाषाओं में इसका अनुवाद हुआ. इसे आज भी एक नर्सरी क्लासिक माना जाता है.
तस्वीर: Warne Verlag
लॉर्ड ऑफ द फ्लाइज (Lord of the Flies)
विलियम गोल्डिंग की इस रचना को करीब 20 बार खारिज किया गया. एक लेखक ने इसे बेहद ही बकवास और बेतुकी कल्पना कहा था. लेकिन साल 1954 में यह छपी. यह कहानी स्कूल में पढ़ने वाले लड़कों के एक समूह की है जो एक निर्जीव से द्वीप में जिंदगी के लिए संघर्ष करते हैं. इस उपन्यास को दुनिया के कई देशों में बच्चों के हाई स्कूल पाठ्यक्रम में शामिल किया गया है. साथ ही इसे कई बार रुपहले पर्दे पर भी उतारा जा चुका है.
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लोलिता (Lolita)
एक बुजुर्ग प्रोफेसर और एक युवा लड़की की यह कहानी साल 1955 में फ्रांस में छपी और इसके तीन साल बाद अमेरिका में. इस पर कई नाटक खेले गए और फिल्मों में भी इस कहानी को दिखाया गया. लेकिन रूसी-अमेरिकन लेखक वाल्दमिर नावोकोव को इसे छपवाने के लिए कई प्रकाशकों के चक्कर लगाने पड़े. एक प्रकाशक ने उन्हें यह तक सलाह दे डाली कि इस रचना को जला देना चाहिए. लेकिन जब यह छपी तो दुनिया ने इसे खूब पसंद किया.
तस्वीर: Penguin
गोन विद द विंड (Gone with the Wind)
गृह युद्ध की कहानी बयां करते इस उपन्यास की लेखिका मार्ग्रेट मिचेल को इसके छपने के एक साल बाद 1937 में पुलित्जर पुरस्कार मिला. लेकिन 1000 पन्नों के इस नोवेल को करीब 38 बार प्रकाशकों से ना सुनना पड़ा. लेकिन दो साल बाद इस पर फिल्म बनी जिसने करीब आठ ऑस्कर अवॉर्ड जीते. साथ ही फिल्म हॉलीवुड की बेशुमार कमाई करने वाली फिल्मों में शामिल हुई. (डागमर ब्रेटनबाख/एए)
तस्वीर: Berlinale
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क्राइम फिक्शन लिखने वाले और रवि पॉकेट बुक्स से लगातार छप रहे युवा उपन्यासकार एम इकराम फरीदी इसके लिए प्रकाशक समूह को जिम्मेदार मानते हैं. पिछले चार सालों में फरीदी के सात उपन्यास आ चुके हैं. वे बताते हैं, "तीन लेखक वेद प्रकाश शर्मा, अनिल मोहन और सुरेन्द्र मोहन पाठक के बाद पॉकेट बुक्स वालों ने किसी को जमने नहीं दिया. अब ये लोग ट्रेड नाम से लिखवाते हैं. ट्रेड नाम प्रकाशक खुद रजिस्टर करवा लेता है. अब उसमें घोस्ट राइटिंग करनी होती है, मैंने भी की है. लेकिन इसमें मजदूरी वाली फीलिंग आती है जैसे एक उपन्यास लगभग 250 पन्ने का है तो उसके 15,000 मिल जायेंगे. प्रकाशक के पास कई घोस्ट राइटर होते हैं और वो किसी न किसी से ले लेता है. नए लेखकों को इन्होंने जमने ही नहीं दिया. जब नया आएगा नहीं तो पाठक कैसे टिकेगा.”
इतना सब होने के बाद भी इस साहित्य को कभी वो दर्जा नहीं मिला. कम लागत और ज्यादा मुनाफा होने के बावजूद भी इसके लेखक वो सम्मान नहीं पा सके. इसको लुगदी साहित्य कहा जाने लगा.
ऋतुराज हालांकि इससे सहमत नहीं हैं. वो कहते हैं, "साहित्य वो होता है जिसमें सबका हित हो. ऐसे साहित्य का क्या मतलब जो सिर्फ लाइब्रेरी की शोभा बढ़ाए. हमारे उपन्यास में आम बोलचाल की भाषा होती थी. सड़क पर चलने वाला हर आदमी इसको खरीद कर पढ़ और समझ सकता था. ऐसी किताब का क्या मतलब जब उसमें इतने मुश्किल शब्द हों कि आपको शब्दकोष देखना पड़ जाये.”
मशहूर उपन्यासों पर बनी हैं ये बॉलीवुड फिल्में
उपन्यास या नाटक जब बतौर फिल्में हमारे सामने आते हैं तो दिमाग पर ज्यादा असर करते हैं. शायद यही वजह रही है कि बॉलीवुड में भी ऐसी रचनाओं पर फिल्में बनती रही हैं. एक नजर मशहूर उपन्यासों पर बनी ऐसी ही फिल्मों पर.
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साहब बीबी और गुलाम
1962 में बनी यह फिल्म बंगाली लेखक बिमल मित्र के उपन्यास पर आधारित थी. उपन्यास का नाम भी था साहब बीबी और गुलाम. फिल्म में अभिनेत्री मीना कुमारी, वहीदा रहमान और अभिनेता गुरुदत्त अहम भूमिकाओं में थे.
गाइड
1965 में बनी यह फिल्म मशहूर लेखक आरके नारायण के मशहूर उपन्यास "द गाइड" पर आधारित थी. फिल्म में देव आनंद और वहीदा रहमान अहम भूमिकाओं में थे. रिलीज के 42 साल बाद इसे 2007 में कान फिल्म फेस्टिवल के दौरान दिखाया गया था.
सरस्वतीचंद्र
1968 में बनी यह ब्लैक एंड व्हाइट फिल्म एक गुजराती उपन्यास सरस्वतीचंद्र पर ही आधारित थी. इस उपन्यास को लिखा था गोवर्धनराम माधवराम त्रिपाठी ने. इसी उपन्यास पर 2013 में निर्देशक संजय लीला भंसाली ने एक टेलीविजन सीरियल भी बनाया.
शतरंज के खिलाड़ी
1977 में सत्यजीत रे के निर्देशन में बनी फिल्म शतरंज के खिलाड़ी, मुंशी प्रेमचंद्र की एक कहानी पर आधारित थी. फिल्म में संजीव कुमार, अमजद खान, शबाना आजमी मुख्य भूमिकाओं में थे.
तस्वीर: picture-alliance/Everett Collection
जुनून
1978 में श्याम बेनेगल के निर्देशन में बनी यह फिल्म लेखक रस्किन बॉन्ड के उपन्यास "ए फ्लाइट ऑफ पिजंस" पर आधारित थी. फिल्म में अभिनेता शशि कपूर, कुलभूषण खरबंदा, शबाना आजमी, दीप्ति नवल मुख्य किरदारों में थे.
उमराव जान
1981 में बनी यह फिल्म एक उर्दू उपन्यास "उमराव जान अदा" पर आधारित थी. इस उपन्यास के रचनाकार थे मिर्जा हादी रुसवा. फिल्म में अहम भूमिकाएं निभाईं थीं रेखा और फारुख शेख ने. 2006 में निर्देशक जेपी दत्ता ने अभिषेक बच्चन और ऐश्वर्या के साथ मिलकर उमराव जान का रीमेक बनाया था.
तस्वीर: IANS
मासूम
1983 में बनी यह फिल्म एरिक सेगल के उपन्यास "मैन, वूमेन एंड चाइल्ड" पर आधारित थी. फिल्म का निर्देशन किया था शेखर कपूर ने और फिल्म में अहम भूमिकाएं निभाईं थीं नसीरुद्दीन शाह और शबाना आजमी ने.
1947 अर्थ
1999 में बनी यह फिल्म अमेरिका में रहने वाली एक पाकिस्तानी लेखिका बाप्सी सिधवा के उपन्यास "क्रेकिंग इंडिया" पर आधारित था. फिल्म का निर्देशन किया था दीपा मेहता ने और फिल्म में अहम भूमिका में थे आमिर खान और नंदिता दास.
देवदास
1917 में लिखे गए शरतचंद्र चट्टोपाध्याय के उपन्यास देवदास पर बॉलीवुड में कई बार फिल्में बन चुकी हैं. 2002 में संजय लीला भंसाली के निर्देशन में शाहरुख खान, ऐश्वर्या राय, और माधुरी दीक्षित अभिनीत देवदास बॉक्स ऑफिस की बड़ी हिट साबित हुई थी.
मकबूल
2003 में आई फिल्म मकबूल, शेक्सपियर के मशहूर नाटक मैकबेथ पर आधारित थी. फिल्म में पंकज कपूर, इरफान खान और तब्बू अहम भूमिकाओं में थे. फिल्म बॉक्स ऑफिस पर बहुत हिट तो नहीं हुई लेकिन फिल्म के निर्देशक विशाल भारद्वाज को खूब सराहा गया.
पिंजर
2003 में बनी फिल्म पिंजर, अमृता प्रीतम के पंजाबी उपन्यास पिंजर पर आधारित थी. इस फिल्म में भारत-पाकिस्तान विभाजन के दौर को दिखाया गया है. मुख्य भूमिका निभाई है उर्मिला मातोंडकर और मनोज वाजपेयी ने और चंद्रप्रकाश दि्वेदी ने इसका निर्देशन किया है.
परिणीता
1914 में छपे शरतचंद्र चट्टोपाध्याय के उपन्यास परिणीता पर भी बॉलीवुड में कई फिल्में बनी हैं. 2005 में प्रदीप सरकार के निर्देशन में एक बार और इस उपन्यास पर फिल्म बनी. विद्या बालन, सैफ अली खान और संजय दत्त की फिल्म में अहम भूमिकाएं थीं.
ओमकारा
2006 में आई यह फिल्म शेक्सपियर की मशहूर रचना ओथेलो पर आधारित थी. फिल्म का निर्देशन किया विशाल भारद्वाज ने और मुख्य भूमिकाओं में थे अजय देवगन, सैफ अली खान और करीना कपूर.
हैलो
बैंकर से लेखक बने चेतन भगत के अमूमन हर एक उपन्यास पर अब तक फिल्में बनी हैं. 2008 में आई फिल्म हैलो, भगत के पहले उपन्यास "वन नाइट एट कॉल सेंटर" पर आधारित थी. सोहेल खान, शरमन जोशी, अमृता अरोड़ा और गुल पनाग समेत कई कलाकार इस फिल्म में थे.
थ्री इडियट्स
2009 में राजकुमार हिरानी के निर्देशन में बनी फिल्म थ्री इडियट्स भी चेतन भगत के ही उन्यास "फाइव प्वाइंट समवन" पर आधारित थी. फिल्म बॉक्स ऑफिस पर बड़ी हिट साबित हुई. आमिर खान, करीना कपूर, बमन इरानी, आर माधवन और शरमन जोशी की फिल्म में मुख्य भूमिकाएं थीं.
तस्वीर: Getty Images
आयशा
2010 में रिलीज रोमांटिक कॉमेडी फिल्म आयशा में सोनम कपूर और अभय देओल ने मुख्य भूमिकाएं निभाई थीं. माना जाता है कि फिल्म 1815 में लिखे गए उपन्यास "एमा" पर बनाई गई थी. इसी तर्ज पर हॉलीवुड में भी कई फिल्में बन चुकी हैं
सात खून माफ
2011 में आई फिल्म सात खून माफ बनाने वाले निर्देशक थे विशाल भारद्वाज. इस साइकोथ्रिलर ड्रामा में अभिनेत्री प्रियंका चोपड़ा मुख्य भूमिका में थी. यह फिल्म रस्किन बॉन्ड की एक कहानी "सुजैन्स सेवन हसबेंड" पर आधारित थी.
लुटेरा
2013 में आई फिल्म लुटेरा के लिए माना जाता है कि यह लेखक ओ हेनरी की 1907 में आई एक शॉर्ट स्टोरी "द लास्ट लीफ" से प्रेरित थी. फिल्म में मुख्य भूमिकाएं निभाईं थीं सोनाक्षी सिन्हा और रणवीर सिंह ने और इसका निर्देशन किया था विक्रमादित्य मोटवानी ने.
काइ पो चे
अभिषेक कपूर के निर्देशन में बनी यह फिल्म चेतन भगत के उपन्यास "थ्री मिस्टेक्स ऑफ माइ लाइफ" पर बनी थी. फिल्म में तीन दोस्तों की कहानी थी. फिल्म में अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत, राजकुमार राव और अमित साध अहम भूमिकाओं में थे.
तस्वीर: DW/A. Mondhe
हैदर
2014 में आई फिल्म हैदर भी शेक्सपियर की रचना "हैमलेट" पर आधारित थी. फिल्म में शाहिद कपूर, श्रद्धा कपूर, तब्बू और केके मेनन अहम भूमिकाओं में थे. फिल्म ने बॉक्स ऑफिस पर अच्छी कमाई की थी. इस फिल्म के निर्देशक थे विशाल भारद्वाज.
टू स्टेट्स
अर्जुन कपूर और आलिया भट्ट अभिनीत यह फिल्म चेतन भगत के उपन्यास "टू स्टेट्स" पर आधारित है. फिल्म की कहानी उत्तर और दक्षिणी भारत के परिवारों के इर्द-गिर्द घूमती हैं. फिल्म के प्रोड्यूसर थे करन जौहर, सिद्धार्थ रॉय कपूर और साजिद नाडियावाला.
तस्वीर: STRDEL/AFP/Getty Images
बॉम्बे वैलवेट
2015 में आई यह फिल्म इतिहासकार ज्ञान प्रकाश की किताब "मुंबई फेबल्स" पर आधारित थी. फिल्म के निर्देशक थे अनुराग कश्यप. बड़े सितारों की मौजूदगी के बाद भी फिल्म बॉक्स ऑफिस पर कुछ खास नहीं कर पाई. फिल्म में अहम भूमिकाएं निभाईं थीं रणवीर कपूर, अनुष्का शर्मा, करन जौहर और केके मेनन ने.