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समाज

क्या 'फैक्ट-चेक' खत्म कर पाएगा फेक न्यूज को

१२ जून २०२०

भारत सरकार 'फैक्ट-चेक' करने और 'गलत जानकारी' को उजागर करने के लिए एक व्यापक पैनल बनाना चाहती है. क्या ये सरकारों की किसी भी तरह की आलोचना को झूठा साबित करने का उपकरण बन जाएगा?

India Mumbai - Surfen auf dem Handy
तस्वीर: Getty Images/AFP/I. Mukherjee

जम्मू और कश्मीर में लागू हुई नई मीडिया पॉलिसी और भारत सरकार द्वारा 'फेक न्यूज' से लड़ने के लिए एजेंसियों की सेवाएं लेने की पहल, दोनों में एक समानता है. दोनों कदमों के पीछे केंद्र सरकार की 'फेक न्यूज' या झूठी खबरों पर लगाम लगाने की मंशा नजर आती है. समस्या यह है कि 'फेक न्यूज' को लेकर सरकार की समझ मीडिया और सिविल सोसाइटी की समझ से मेल नहीं खाती.

'फेक न्यूज' के बारे में आम धारणा है कि ये उपाधि उन खबरों को दी जाती है जो सरासर गलत, झूठी या भ्रामक होती हैं और जिनका प्रचार किसी विशेष एजेंडा को फैलाने के लिए किया जा सकता है. लेकिन बीते कुछ सालों में भारत में एक नई प्रथा का उदय हुआ है. मीडिया में आई खबरों का सरकारों द्वारा खंडन आम बात है, लेकिन अब जब भी मीडिया में सरकार की कोई खामी उजागर करती हुई कोई रिपोर्ट आती है, तो सरकार उसका खंडन करने की जगह उस पर 'फेक न्यूज' का ठप्पा लगा देती है.

कुछ दिनों पहले केंद्रीय रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने एक निजी टीवी न्यूज चैनल को दिए गए इंटरव्यू में सीमा पर भारत-चीन गतिरोध को लेकर कहा था, "चीनी सैनिक भी अच्छी खासी संख्या में आ गए हैं." उन्होंने पूरा स्पष्ट बयान नहीं दिया था और इस वजह से कई लोगों ने इसका अर्थ निकाला कि रक्षा मंत्री ने मान लिया कि चीनी सैनिक भारत की सीमा के अंदर आ गए हैं. ट्विटर पर प्रेस इन्फॉर्मेशन ब्यूरो (पीआईबी) के 'फैक्ट-चेक' हैंडल ने इसे गलत अर्थ निकालना बताते हुए इस पर 'फेक न्यूज' का ठप्पा लगा दिया.

जब तालाबंदी के दौरान चलाई गई विशेष ट्रेनों को यात्रियों को बताए बिना रेलवे अचानक डाइवर्ट करने लगा तो सोशल मीडिया पर इसका ये कह कर मजाक उड़ाया जाने लगा कि ट्रेनें रास्ता भटक गई हैं. लेकिन पीआईबी के 'फैक्ट-चेक' हैंडल ने इसे अक्षरशः लेते हुए कहा कि "ट्रेनें रास्ता नहीं भटकीं थीं, उन्हें डाइवर्ट किया गया था" और इस पर भी 'फेक' का ठप्पा लगा दिया.

'फैक्ट-चेक' पैनल

अब केंद्र सरकार 'फैक्ट-चेक' करने और 'गलत जानकारी' को उजागर करने के लिए बाकायदा कंपनियों का एक पैनल बनाना चाहती है, जिसके लिए सरकारी कंपनी बेसिल ने एक टेंडर निकाला है. इन कंपनियों को जो जो काम करने होंगे उनमें "गलत जानकारी फैलाने वाले मुख्य रूप से प्रभावशाली लोगों की पहचान" करना और उनकी "लोकेशन" का भी पता लगाना शामिल हैं.

जानकारों का कहना है कि ये एक तरह से लोगों पर अवैध रूप से निगरानी रखने जैसा होगा और अधिकारी उन लोगों को प्रताड़ित कर सकते हैं जो सरकारी योजनाओं की कमियों को उजागर करते हैं. भ्रामक खबरें और जानकारी की असलियत पता लगाने वाली वेबसाइट 'ऑल्टन्यूज' के सह-संस्थापक प्रतीक सिंहा मानते हैं कि अगर पीआईबी के 'फैक्ट-चेक' ट्विटर हैंडल के काम को देखें तो मूलतः उसके जरिए 'फैक्ट-चेक' के नाम पर "मीडिया रिपोर्टों को नीचा दिखाया जा रहा है और पत्रकारों और मीडिया संगठनों को धौंस दिखाई जा रही है."

प्रतीक सिंहा का मानना है कि इस नए पैनल के जरिए इसी काम को बड़े स्तर पर किया जाएगा. उन्होंने कहा, "मुझे लगता है कि एक 'फैक्ट-चेक' संस्था की आड़ में सरकार एक समानांतर मीडिया हाउस चलाना चाहती है जो कि एक प्रोपेगैंडा का और विपक्षी पार्टियों और पत्रकारों द्वारा सरकार की किसी भी तरह की आलोचना को झूठा साबित करने का उपकरण होगा."

क्या पत्रकारिता की कमियों से बनती है 'फेक-न्यूज'

नई दिल्ली में भ्रामक खबरें और जानकारी की असलियत पता लगाने वाली वेबसाइट 'ऑल्टन्यूज' का ट्विटर अकाउंट देखता हुआ एक व्यक्ति.तस्वीर: picture-alliance/AP Photo/A. Qadri

कुछ लोगों को मानना है कि भारत में अभी तक जो "सूत्रों के हवाले से" दी गई खबरों की पत्रकारिता होती रही है उसका झूठी-खबरें फैलाने वाले फायदा उठाते हैं. जैसे बिना किसी सबूत के किसी सूत्र द्वारा दी गई खबरें छाप दी जाती थीं, वैसे ही आज झूठी खबरें फैलाने वाले बिना किसी साक्ष्य के झूठी खबरें फैला देते हैं. लेकिन वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश का कहना है कि इसका ये मतलब नहीं है कि सूत्रों के हवाले से दी गई हर खबर झूठी होती है.

उर्मिलेश मानते हैं कि सूत्र-आधारित खबरों का भारत की पत्रकारिता में एक महत्वपूर्ण स्थान रहा है और कई बड़ी खबरें सूत्रों के ही हवाले से निकली हैं. उन्होंने इस बात पर भी ध्यान दिलाया कि झूठी खबरें फैलाने वाले मंच सूत्रों के मोहताज नहीं होते और धड़ल्ले से झूठी खबर फैलाते हैं.

वरिष्ठ पत्रकार संजय कपूर ने डीडब्ल्यू से कहा कि सालों तक सरकारी महकमों और दूसरी जगहों पर सूत्रों को तैयार करना और उनके जरिए ऐसी खबरें निकाल लाना जो शायद कभी रोशनी में आती ही नहीं, खोजी पत्रकारिता का एक अहम पहलू है और उन्हें इस बात का बेहद दुख है कि 'फेक न्यूज' के तंत्र ने इस तरह की पत्रकारिता की वैधता छीन ली है.

भारत में 'फेक-न्यूज' के बाजार पर नजर रखने वाले आरोप लगाते हैं कि सोशल मीडिया पर जो भ्रामक और झूठी खबरें फैलती हैं, उनमें से अधिकतर सरकार के पक्ष में प्रोपेगैंडा करने वाली या सत्तारूढ़ पार्टी बीजेपी की विचारधारा से मेल खाने वाली होती हैं. प्रतीक कहते हैं कि ये एक पूरा इकोसिस्टम है जिसने झूठी खबरों और गलत सूचना को एक झूठा नैरेटिव बनाने का हथियार बनाया और विडंबना ये है कि यही इकोसिस्टम जिन 'फैक्ट-चेक' करने वालों से नफरत करता था अब उन्हीं की नकल करना चाह रहा है.

भ्रामक खबरों को फैलाने में स्मार्टफोन की एक बड़ी भूमिका है.तस्वीर: picture alliance/dpa/I. Aditya

प्रतीक का कहना है कि समस्या यह भी है कि आज देश में मीडिया का एक बड़ा धड़ा है जो सरकारी तंत्र द्वारा लीक की गई चुनिंदा खबरें देता है और ये स्थिति बदलनी चाहिए.

क्यों फैलती हैं झूठी खबरें

झूठी खबरें भी कई किस्म की हैं. कोरोना काल में व्हाट्सऐप और सोशल मीडिया पर महामारी से संबंधित झूठी खबरों की बाढ़ आ गई. 2019 में बच्चे चुराने वालों को लेकर चली अफवाहें झूठी खबर बन गईं और उनकी वजह से कई मासूम लोगों की जान भी चली गई. लेकिन राजनीतिक 'फेक न्यूज' झूठी खबरों की सबसे बड़ी श्रेणी है जो साल भर सक्रिय रहती है और जिसका अपना एक पूरा व्यवस्थित तंत्र है.

प्रतीक सिंहा कहते हैं कि झूठी खबरों का यह तंत्र उन्हीं देशों में ज्यादा सफल हो पाता है जहां लोगों की सोच पर भावात्मकता लगातार हावी रहती है, चाहे वो डर की वजह से हो या नफरत की या गुस्से की. वे कहते हैं कि राजनीतिक ध्रुवीकरण की वजह से ये स्थिति और गंभीर हो जाती है क्योंकि लोगों के मन में अपने अपने मजबूत पूर्वाग्रह होते हैं और वे कुछ भी मानने को तैयार होते हैं.

उनके अनुसार कश्मीर, नागरिकता कानून और दिल्ली दंगों की तरह एक के बाद एक राजनीति पर हावी रहने वाली घटनाएं देश के लोगों को भावात्मक रूप से अपने आप में समेटे रही हैं और इसी वजह से गलत सूचना और झूठी खबरों का इतना असर हो रहा है.

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