एक अनुमान के अनुसार देश में गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले परिवारों की संख्या करीब साढ़े पांच करोड़ है, इनकी बुनियादी जरूरतों को ध्यान में रखते हुए सरकार यूनिवर्सल बेसिक इनकम योजना पर विचार कर रही है.
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देश में गरीबी एक बड़ा मुद्दा है. आजादी के बाद से इनकी संख्या में लगातार वृद्धि हुई है हालांकि अनुपात के लिहाज से इसमें गिरावट भी आयी है. देश की लगभग सभी सरकारों ने इस वर्ग की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए समय समय पर विभिन्न योजनाओं का सहारा लिया हैं. इस पर हर साल अरबों रुपये खर्च होता है, फिर भी गरीबों की बदहाली दूर नहीं हो पाती. वर्तमान सरकार अब ‘यूनिवर्सल बेसिक इनकम योजना' यानी यूबीआई पर विचार कर रही है जिससे हर व्यक्ति की एक निश्चित आमदनी सुनिश्चित की जा सके.
मील का पत्थर
यूनिवर्सल बेसिक इनकम के तहत देश के प्रत्येक नागरिक के लिए एक आधारभूत आय की व्यवस्था का लक्ष्य तय किया जाता है. सरकार की यह महत्वकांक्षी योजना अभी विचार के स्तर पर ही है. इस साल के आर्थिक सर्वे में इस योजना पर जोर दिया गया लेकिन आम बजट में इसका उल्लेख नहीं किया गया. मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यम ने इसकी वकालत करते हुए कहा कि यूबीआई एक बड़ी योजना होगी. उनके अनुसार गरीबी उन्मूलन की दिशा में यह योजना मील का पत्थर साबित हो सकती है.
देश भर में केंद्र सरकार की तरफ से प्रायोजित योजनाओं की संख्या 900 से अधिक है. जीडीपी बजट आवंटन में इनकी हिस्सेदारी पांच फीसदी के आसपास है. इसे ध्यान में रखते हुए सर्वे में यूबीआई को मौजूदा स्कीमों के लाभार्थियों के लिए विकल्प के तौर पर पेश करने का प्रस्ताव दिया गया है. आर्थिक सर्वे के अनुसार इस तरह से तैयार किए जाने पर यूबीआई न केवल जीवन स्तर बेहतर कर सकता है, बल्कि मौजूदा योजनाओं का प्रशासनिक स्तर भी बेहतर कर सकता है.
भारत में व्याप्त गंभीर कुपोषण
2014 के वर्ल्ड हंगर इंडेक्स में भारत की स्थिति गंभीर बनी हुई है. देश में पर्याप्त संसाधन होने के बावजूद कुपोषण खत्म नहीं हो रहा. इसमें गरीबी और अशिक्षा एक बड़ी भूमिका निभाते हैं.
आई थोड़ी बेहतरी
अगर पूरी दुनिया की बात करें तो हालात पहले से कुछ अच्छे हुए हैं. 2014 में दुनिया भर में साढ़े अस्सी करोड़ ऐसे लोग हैं जिनके पास पर्याप्त खाना नहीं है. वहीं करीब दो अरब लोग कुपोषित हैं.
तीन बिंदु हैं अहम
पांच साल से कम उम्र में बच्चों की मृत्यु, उनमें कुपोषण और कुल जनसंख्या में कुपोषण की संख्या को आंका जाता है और उसका विश्लेषण किया जाता है. एक महत्वपूर्ण बात यह भी है कि केवल पेट भरना पोषण नहीं है.
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जागरूकता जरूरी
अक्सर माता पिता को यह पता ही नहीं होता कि उनके बच्चे कुपोषण का शिकार हैं. अंधविश्वास के कारण वह इसे श्राप मानते रहते हैं और डॉक्टर की बजाए नीम हकीम से काम चलाते हैं.
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मध्यप्रदेश की स्थिति
कुपोषण के मामले में देश में मध्यप्रदेश की स्थिति बहुत खराब है. कुपोषित बच्चों के लिए खास केंद्र बनाए गए हैं, जहां मां और बच्चों को समुचित आहार दिया जाता है.
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लापरवाही
खरगोन में जन साहस नाम के गैर सरकारी संगठन के लिए काम करने वाली जासमीन खान बताती हैं कि अक्सर डॉक्टर इलाज के लिए मौजूद नहीं होते और मुश्किल में पड़े लोगों को मदद मिलने में देर हो जाती है.
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परिवार की मनाही
गरीबी के कारण खेतों में दिहाड़ी मजदूरी करने वाली महिलाएं परेशानी में आ जाती हैं. वे जानती हैं कि उनका बच्चा बीमार है लेकिन अक्सर परिजन ही उन्हें सहायता केंद्र जाने से रोक देते हैं.
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मुश्किल में माएं
सोनू की मां रुना (तस्वीर में) अपनी बच्ची के कुपोषण को लेकर असमंजस में हैं. सहायता केंद्र में रहे तो मजदूरी जाती है और मजदूरी करे तो बच्ची बीमार. ऐसे कई परिवार हैं, जिन्हें सही जानकारी दिए जाने की जरूरत है.
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कुछ अच्छा भी
ये सही है कि दुनिया में भुखमरी का आंकड़ा कम हुआ है. मगर इराक जैसे देशों में अस्थिरता और युद्ध के कारण यह बढ़ा भी है. कोमोरोस, बुरुंडी और स्वाजीलैंड में भी भुखमरी बढ़ी है.
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सब्सिडी का विकल्प
आर्थिक विशेषज्ञों के अनुसार सरकार भोजन, रोजगार, बिजली, पानी, खाद, तेल, गैस पर मिल रही सब्सिडी तथा बेरोजगारी भत्ते व वृद्धावस्था पेंशन जैसे जन-कल्याण से जुड़े विभिन्न कार्यक्रमों पर हर साल अरबों रुपये धन खर्च करती हैं. इसमें धांधली और कमियों की वजह से इसका पूरा फायदा जनता को नहीं मिल पाता. यूबीआई योजना के समर्थकों को लगता है कि इसमें कोई धांधली या खामी नहीं होगी और जरूरतमंद को सीधा फायदा मिलेगा. अरविंद सुब्रमण्यम के अनुसार यह गरीबी घटाने के लिए जारी कल्याणकारी योजनाओं का विकल्प साबित होगी.
इस योजना का खाका अब तक पेश नहीं किया गया है इसलिए खजाने पर पड़ने वाले बोझ का अनुमान लगाना संभव नहीं है. सरकार लाभार्थी के खाते में सालाना 10,000 से 15,000 रुपये की राशि जमा कर सकती है. अगर इस योजना से सभी को जोड़ने की कवायद की जाती है तो सरकारी खजाने पर पड़ने वाले बोझ की रकम 15 लाख करोड़ तक जा सकती है. वैसे, इसकी शुरुआत गरीबों को निश्चित आर्थिक रकम देकर की जा सकती है. उस स्थिति में भी कम से कम तीन लाख करोड़ की आवश्यकता होगी. इस योजना को मौजूदा सब्सिडी को खत्म करके उसके विकल्प के रूप में इसे शुरू किया जा सकता है.
चुनौति
आर्थिक सर्वे में इसकी चुनौतियों को भी सामने रखा गया है. इसमें आशंका जताई गई है कि यह मौजूदा कल्याणकारी योजनाओं की जगह लेने के बजाय एक समानांतर व्यवस्था भी बन सकती है और ऐसा होने पर वित्तीय रूप से उपयोगी नहीं रह जाएगी. सरकार फिलहाल इसे लागू करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही है. सरकार ने अपने आर्थिक सर्वे में यूबीआई को लेकर चर्चा तो की है लेकिन पेश आम बजट में इसका उल्लेख नहीं किया गया. अर्थशास्त्री डॉ. अभय पेठे का कहना है कि मौजूदा सब्सिडी के साथ इस योजना को लागू कर पाना इतना आसान नहीं है. इसको चरणबद्ध तरीके से लागू करने की जरूरत है ताकि सरकारी खजाने पर बोझ न बढ़ने पाए. प्रोफेसर अरुण कुमार जन-कल्याण से जुड़ी समस्त सरकारी योजनाओं को समाप्त कर यूबीआई को लागू करने के तर्क को उचित नहीं मानते. योजना की व्यावहारिकता पर सवाल उठाते हुए सीपीआई के राष्ट्रीय सचिव अतुल अंजान का कहना है ग्रामीण भारत के लोगों की जिंदगी सवारने पर सरकार को ध्यान देना चाहिए.
समाजशास्त्री डॉ साहेबलाल का कहना है, "अच्छा कदम होते हुए भी इसमें काफी चुनौतियाx है, सब्सिडी खत्म करना सबसे बड़ी राजनीतिक चुनौती है, एकदम से ऐसे कदम नहीं उठाये जा सकते हैं." उनके अनुसार, राजनीतिक दलों और अन्य पक्षकारों के बीच इसको लेकर एक सकारात्मक वातावरण बनाने की आवश्यकता है, अन्यथा यह उल्टे परिणाम देगी. जानकारों के अनुसार योजना के लाभार्थी को एक निश्चित रकम देना तभी कारगर होगा जब उस रकम से उसकी बुनियादी ज़रूरते पूरी हो जाए. अन्यथा यह योजना मील का पत्थर साबित होने की बजाय झुनझना बनकर रह जाएगी.
खुद को खोजता भारत
सड़कों पर गायों के साथ बीएमडब्ल्यू की शानदार कारें घूमती हैं. कहीं गरीबी से जूझ रहे लोग, तो कहीं अपने घरों पर हेलीपैड बनाते रईस हैं. भारत अव्यवस्थित है विरोधाभासों से भरे भारत का भविष्य कैसा रहेगा.
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शून्य से शुरुआत
शून्य का आविष्कार करने वाले आर्यभट्ट ने चौथी सदी में ही बता दिया था कि दिन और रात की लंबाई पृथ्वी के घूमने से तय होती है. अब 2014 में तकनीकी तौर पर सक्षम भारत चांद पर अपना पहला अंतरिक्ष यान पहुंचा देगा.
तस्वीर: picture-alliance/dpa
माला फेरत जुग गया...
...फिरा न मन का फेर. आधुनिक तकनीक और सुपरपावर बनने का ख्वाब देखता भारत आज भी अंधविश्वास, जातिवाद और सांप्रदायिकता के विवादों में फंसा हुआ है.
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कदम कदम बढ़ाए जा
1990 की दशक में भारत में विकास की रफ्तार आसमान छूने लगी. मल्टीनेशनल कंपनियों ने भारत में पढ़े लिखे युवा का फायदा उठाया और सस्ते दामों में कॉल सेंटर खुलने लगे. विकास दर 8-9 प्रतिशत तक पहुंच गई.
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पलटी जनता
सरकार के खिलाफ लोग सड़कों पर आखिर उतर ही आए. 2012 दिसंबर में 23 साल की एक महिला के बलात्कार ने जनता को हिला दिया. महिलाओं का अपमान और उनकी सुरक्षा में कमी, इसके खिलाफ देश भर में प्रदर्शन हुए. नई दिल्ली में पिछले साल बलात्कार के 585 मामले दर्ज किए गए.
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कोई नहीं करोड़पति
भारत में विकास ने नौकरियां पैदा की हैं, पढ़े लिखे पेशेवरों की किस्मत खुली है और जीवन स्तर बेहतर हो गया है. लेकिन अब भी 25 प्रतिशत लोग पढ़ लिख नहीं सकते. करीब 35 प्रतिशत महिलाएं अनपढ़ हैं और गरीबी अनौपचारिक आंकड़ों के मुताबिक 30 प्रतिशत है.
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सोने की चिड़िया
ऐश्वर्य और समृद्धता की राह पर चलते भारत में आज भी बच्चों को पूरा खाना नहीं मिलता. संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक तीन साल से कम उम्र के बच्चों में से 46 प्रतिशत अपनी उम्र के हिसाब से छोटे दिखते हैं.
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कैसे जाएगा मुसाफिर
भारत में अच्छी सड़कें ज्यादातर राजधानी दिल्ली या राज्यों की राजधानी में मिलेंगीं. सरकार का कहना है कि विदेशी निवेश को बढ़ाने से मूलभूत संरचना की कमी को खत्म किया जा सकेगा.
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दुश्मन अपने देश में
देश के भीतर महिलाओं को सुरक्षा न दे पाने वाली सरकार देश की बाहरी सुरक्षा के लिए बजट बढ़ा रही है. कुछ ही सालों में भारत ग्रेट ब्रिटेन से ज्यादा पैसे हथियारों में लगाएगा. लेकिन भारत के रक्षक खुद झुंझला रहे हैं- एक पायलट का कहना है कि मिग 21 उड़ाना संविधान में जीवन के अधिकार के खिलाफ है.
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दिया जले जान जले
संरचना में कमी, भ्रष्टाचार और अव्यवस्था ने आम जनता की जिंदगी को आजाब बना दिया है. बढ़ते विकास ने भारत की ऊर्जा जरूरतों को तो बढ़ाया है, लेकिन गैर जिम्मेदाराना व्यवहार ने भी जरूरी सेवाओं में अडंगा डाला है.
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भोगी से लड़े योगी
सड़कें हों, सरकारी दफ्तर हों या राशन- भारत में भ्रष्टाचार आम जिंदगी का हिस्सा बन गया है. भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे का आंदोलन और लोकपाल की मांग लेकिन कुछ ही हद तक सफल हो पाया है.
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खोटा पैसा
अर्थशास्त्री 1990 से पहले भारत के विकास दर को अकसर „हिंदू विकास दर“ कहते थे, यानी जब विकास 3.5 प्रतिशत से ज्यादा नहीं होता था और अर्थव्यवस्था भी किस्मत की मारी लगती थी. अब हालत कुछ अलग नहीं, विकास दर 6 प्रतिशत से कम है और चंद्रयान की तरह महंगाई भी चांद पहुंचती दिख रही है.
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मुंह फेरते भगवान
उत्तराखंड में बाढ़ के बारे में भारतीय स्पेस एजेंसी इसरो का कहना है कि यह पहाड़ी इलाकों में अंधाधुंध निर्माण की वजह से हुआ है. हिमालय पर तीर्थ करने पहुंचे हजारों यात्रियों में से इस आपदा में करीब पांच हजार लोग मारे गए.
तस्वीर: Manan Vatsyayana/AFP/Getty Images
आओ सपनों में खो जाएं
भारत का भविष्य कैसा होगा, कहना मुश्किल है. लेकिन सुंदर सपने बुनने में कम से कम बॉलीवुड पीछे नहीं. आल्प्स की पहाड़ियों में नाचते फिल्मी सितारे रोजमर्रां की जानलेवा सच्चाई को भूलने में मदद करते हैं.