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शिक्षा

क्या बिहार में हो सकेगी क्षेत्रीय भाषाओं में पढ़ाई

मनीष कुमार
२६ मार्च २०२१

बिहार ने पांचवीं क्लास तक के बच्चों को क्षेत्रीय भाषा में पढ़ाने का निर्णय लिया है, लेकिन क्या इस पर इतने कम समय में अमल हो सकेगा? विधानसभा में भी फणीश्वरनाथ रेणु की जन्म शताब्दी के मौके पर इसका ऐलान हुआ.

Indien Feier 100 Jahre Bihar Assembly
तस्वीर: Manish Kumar/DW

बिहार सरकार ने भी राज्य के प्राथमिक स्कूलों में पांचवीं कक्षा के बच्चों को उनकी स्थानीय, क्षेत्रीय या मातृभाषा में पढ़ाने का निर्णय लिया है. उन्हें अब भोजपुरी, मैथिली, मगही, अंगिका, बज्जिका व अन्य स्थानीय भाषाओं में पढ़ाया जाएगा. यह फैसला अगले सत्र यानि 2021-22 से प्रभावी होने की संभावना है. त्रिभाषा फार्मूले की परिकल्पना सर्वप्रथम दौलत सिंह कोठारी आयोग ने पेश की थी, किंतु राजनीतिक कारणों से इसे अमली जामा नहीं पहनाया जा सका था. अब वर्ष 2020 में घोषित नई शिक्षा नीति में इस फार्मूले पर अमल करने का निर्णय लिया गया है. इसके पीछे उद्देश्य यह है कि हिंदी के साथ-साथ अन्य भारतीय भाषाओं का भी महत्व बरकरार रहे तथा अंग्रेजी का अधिपत्य समाप्त हो सके. अपनी पुस्तक हिंद स्वराज में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने भी लिखा है, "प्रत्येक संस्कृति की अपनी भाषा होती है और हरेक भाषा की अपनी संस्कृति. मुझे लगता है कि हमें अपनी सभी भाषाओं को अपनाना चाहिए. प्रत्येक पढ़े-लिखे भारतीय को अपनी भाषा और हिंदी का ज्ञान तो होना ही चाहिए."

बिहार के शिक्षा मंत्री विजय कुमार चौधरी ने विधान सभा में कहा कि नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति में इसे लेकर स्पष्ट निर्णय लिया जा चुका है. इससे बच्चों में न केवल विश्वास पैदा होगा, बल्कि वे विषयों को सहजता से समझ भी सकेंगे. इससे न केवल सकारात्मकता बढ़ेगी बल्कि उनका मनोबल भी ऊंचा होगा. जाहिर है मैथिली, मगही, अंगिका, बज्जिका व भोजपुरी भाषी इलाकों में बच्चों को इसका सीधा फायदा होगा. सरकार पहले मैथिली, मगही, व भोजपुरी से इसकी शुरूआत करेगी.

सर्वांगीण विकास के लिए जरूरी

नई शिक्षा नीति की ड्राफ्टिंग कमेटी के अध्यक्ष के. कस्तूरीरंगन ने भी कहा है कि शिक्षा के शुरूआती चरण में पाचवीं कक्षा तक शिक्षा के माध्यम के रूप में स्थानीय या क्षेत्रीय भाषा को अपनाना काफी महत्वपूर्ण है. दरअसल, जिस भाषा को बच्चे घर में बोलते हैं, यदि उसमें जब पढ़ते हैं तो वे उससे जुड़ाव महसूस करते हैं. हर विषय से वे तेजी से कनेक्ट होते हैं. सर्वांगीण विकास के लिए यह बहुत जरूरी है. इससे रचनात्मकता बढ़ने के साथ-साथ तार्किक व आलोचनात्मक समझ में भी खासी वृद्धि होती है. बिहार जैसे हिंदी भाषी राज्य में अंग्रेजी भाषा में पढ़ने वाले बच्चे कई बार विषयों को समझ नहीं पाते हैं, घर पर भी उन्हें इस संबंध में कोई मदद नहीं मिलती है. ऐसी परिस्थिति में क्षमता होने के बावजूद वे बेहतर नहीं कर पाते हैं.

बिहार का एक स्कूलतस्वीर: Anja Bohnhof

यूरोप के छोटे से छोटे देशों में भी विश्वविद्यालय स्तर तक की पढ़ाई मातृभाषा में होती है. भारत में स्थानीय भाषाओं में पुस्तकों के लिखे जाने या प्रकाशन पर बहुत ध्यान नहीं दिया गया है और अंग्रेजी में उपलब्ध पुस्तकों का फायदा उठाने के लिए उच्च शिक्षा अंग्रेजी में दी जाती रही है. भारत में तो हिंदी या स्थानीय भाषा में पढ़ने वाले को हीन दृष्टि से देखा जाता है. शिक्षाविद संजय कुमार कहते हैं, "सरकारी स्कूलों तक में सरकार समय पर पाठ्य-पुस्तक उपलब्ध नहीं करा पाती है. हर बार विलंब होता है. इसलिए क्षेत्रीय भाषाओं की पढ़ाई के लिए सरकार कितनी तैयार है, यह अगले सत्र में पता चल जाएगा."

लागू होने में कई पेंच

जाहिर है, जब निर्णय ले लिया गया है तो सरकार का प्रयास होगा कि संबंधित स्थानीय भाषा के शिक्षाविदों द्वारा तैयार की गई उच्च गुणवत्ता वाली पाठ्य सामग्री बच्चों को मुहैया कराई जाए. शिक्षा विभाग के अपर मुख्य सचिव संजय कुमार का कहना है कि फिलहाल मैथिली, भोजपुरी और मगही भाषा में पाठ्य सामग्री तैयार होगी. इन विषयों में शिक्षकों की नियुक्ति या अन्य मुद्दों पर निर्णय बाद में होगा. अगले सत्र अर्थात 2021-22 से स्थानीय भाषा में पढ़ाई शुरू होने की संभावना है. वहीं प्राथमिक शिक्षा के निदेशक रंजीत कुमार सिंह कहते हैं, "बच्चे स्थानीय भाषा में जल्दी सीख पाएंगे इसलिए सरकार ने यह निर्णय लिया है. इसे लेकर सरकार तैयारी में जुट गई है." किंतु शिक्षाविदों व राजनीतिज्ञों को इसके अगले सत्र से शुरू होने में संशय है. कांग्रेस के विधान पार्षद प्रेमचंद मिश्रा कहते हैं, "पहल तो अच्छी है, किंतु इसका क्रियान्वयन कैसे होगा, यह देखने की बात है."

इस मुद्दे पर रिटायर्ड प्रोफेसर रोहित कुमार कहते हैं, "राज्य में योग्य शिक्षकों की नियुक्ति और प्रारंभिक शिक्षा की स्थिति कैसी है, यह जगजाहिर है. इतनी जल्दी सबकुछ हो सकेगा, यह संभव प्रतीत नहीं होता." वहीं समाजशास्त्री एके वर्मा कहते हैं, "यह सच है कि अपनी भाषा में पढ़ाई-लिखाई ज्यादा कारगर होती है और इससे भाषा का भी विकास होता है, किंतु इसका व्यापक फायदा तभी मिल सकेगा जब बाजार हिंदी समेत अन्य भारतीय भाषाओं को अपनाएगा. जब तक बाजार भाषा को नहीं अपनाता है तब तक किसी भी भाषा के विकास का दावा खोखला ही है."

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