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क्या ब्लॉगरों की बलि चढ़े कोएलर ?

३ जून २०१०

जर्मन राष्ट्रपति हॉर्स्ट कोएलर के इस्तीफ़े के कारणों पर चल रही बहस के बीच सामने आ रहा है कि अगर ब्लॉगरों ने राष्ट्रपति के टिप्पणी के मुद्दे को नहीं उठाया होता तो मुख्यधारा की मीडिया में यह मामला नहीं उछलता.

तस्वीर: AP

भारत की ही तरह जर्मनी में राष्ट्रपति का पद समारोही होता है लेकिन भारत के विपरीत जर्मन राष्ट्रपति अपने को नैतिक मध्यस्थ समझता है. जनता के बीच अत्यंत लोकप्रिय कोएलर ने अफ़ग़ानिस्तान में जर्मन सैनिकों से मुलाक़ात के बाद देश वापस लौटते हुए जर्मनी के सार्वजनिक रेडियो स्टेशन को वह इंटरव्यू दिया था जिसमें उन्होंने यह आभास दिया था कि देश के आर्थिक हितों की रक्षा के लिए सैनिक अभियान ज़रूरी हैं.

उन्होंने डॉयचलैंडफुंक रेडियो स्टेशन से कहा, "हमारे आकार के निर्यात पर निर्भर एक मुल्क को यह जानना चाहिए कि संशय में, आपात स्थिति में, हमारे हितों की रक्षा के लिए सैनिक कार्रवाई ज़रूरी है, मिसाल के तौर पर मुक्त व्यापारिक रास्ते."

तस्वीर: AP

मीडिया में हुई प्रतिक्रिया और गनबोट कूटनीति का समर्थन करने के आरोपों के बाद कोएलर ने अपनी टिप्पणी के दस दिन बाद अचानक राष्ट्रपति पद से इस्तीफ़ा दे दिया. लोगों को सबसे आश्चर्य इस बात से हुआ है कि इंटरव्यू के प्रसारण के तुरंत बाद उस पर किसी ने ध्यान नहीं दिया. यह मामला उछला ही नहीं होता यदि कुछ ब्लॉगरों ने उसे तुरंत नहीं उठाया होता.

मामले को उठाने वाले ब्लॉगरों में शामिल 20 वर्षीय छात्र योनास शाइब्ले (http://beim-wort-gennommen.de) और स्टेफ़ान ग्राउन्के (www.unpolitik.de) को शुरू में अहसास भी नहीं हुआ कि वे इतने बड़े मामले की शुरुआत कर रहे हैं. वे अभी भी ऐसा नहीं मानते. शाइब्ले कहते हैं, "मैंने हॉर्स्ट कोएलर का तख्ता पलट नहीं किया. और न ही जर्मनी के ब्लॉगरों ने. ऐसा कुछ करने के लिए जर्मनी के ब्लॉगस्फ़ेयर का प्रभाव बहुत कम है."

शाइब्ले सवाल पूछते हैं, 1000 पाठक प्रति महीने वाला एक ब्लॉगर राष्ट्रपति का तख्तापलट करेगा? सुनने में अच्छा लगता है, लेकिन सचमुच में कौन करेगा इस पर विश्वास?

लेकिन प्रतिष्ठित डी त्साइट साप्ताहिक अखबार के वेबसाइट के पत्रकार किर्स्टेन हाके कहते हैं, "योनास शाइब्ले ने हमें कोएलर की विवादास्पद टिप्पणी के बारे में अपने ब्लॉग पर लिखकर और संपादकीय डेस्क को ट्विटर करके चेताया था. शुक्रिया."

हैम्बर्ग विश्वविद्यालय के मीडिया एक्सपर्ट यान-हिनरिक श्मिट का मानना है कि अंततः राष्ट्रपति का पतन इंटरनेट की वजह से नहीं हुआ. लेकिन श्मिट कहते हैं कि यह मामला दिखाता है कि भूली हुई ख़बरें फिर से सामने आ सकती हैं, "ब्लॉगस्फ़ेयर आम जनमत का हिस्सा बन गया है."

रिपोर्ट: एएफ़पी/महेश झा

संपादन: ए जमाल

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