जिग्नेश मेवानी और कन्हैया हुए कांग्रेस में शामिल
२८ सितम्बर २०२१गुजरात में निर्दलीय विधायक जिग्नेश मेवानी दलित नेता हैं और बीजेपी को दलित-विरोधी साबित करने की कांग्रेस और अन्य विपक्षी पार्टियों की कोशिशों का अहम हिस्सा हैं. हाल ही में चरणजीत सिंह चन्नी के रूप में पंजाब को पहला दलित मुख्यमंत्री देने की कांग्रेस के पक्ष में जो बातें कही गईं, यह उस कड़ी में बड़ी आसानी से जुड़ जाता है.
जेएनयू के पूर्व छात्र नेता कन्हैया दलित तो नहीं हैं लेकिन वामपंथी नेता होने के नाते दलितों, अल्पसंख्यकों, श्रमिकों, महिलाओं समेत समाज के तमाम वंचित वर्गों के प्रतिनिधि माने जाते रहे हैं. उन्हें और मेवानी को शामिल करके कांग्रेस को युवा मतदाताओं को भी लुभाने में भी मदद मिल सकती है.
कांग्रेस का फायदा
इसके अलावा कांग्रेस उम्मीद कर सकती है कि ज्योतिरादित्य सिंधिया, जितिन प्रसाद और सुष्मिता देव जैसे नेताओं के छोड़ कर चले जाने से पार्टी की छवि को जो नुकसान हुआ उसकी कुछ भरपाई हो पाएगी. लेकिन संभावित फायदों की फेहरिस्त का यहीं अंत होता है. इसके आगे ज्यादा संभावनाएं नुकसान की हैं, कम से कम कन्हैया को लेकर तो जरूर ही.
कन्हैया एक शक्तिशाली वक्ता हैं लेकिन चुनावी राजनीति में वो अभी तक अपना सिक्का नहीं जमा पाए हैं. 2019 में उन्होंने सीपीआई के टिकट पर बिहार के बेगूसराय से लोक सभा चुनाव लड़ा था और बीजेपी के गिरिराज सिंह से लगभग सवा चार लाख वोटों से हार गए थे.
हां, अपने पहले ही चुनाव में करीब 22 प्रतिशत वोट हासिल करना और दूसरे नंबर पर आना भी अपने आप में एक उपलब्धि है. संभव है कि कांग्रेस को उनमें भविष्य में बेगूसराय से जीतने का सामर्थ्य नजर आता हो. हालांकि आरजेडी के साथ कांग्रेस के गठबंधन के तहत यह सीट आरजेडी के कोटे की है, इसलिए अगले चुनावों में कांग्रेस यहां से कन्हैया को उतारेगी या नहीं इस सवाल का जवाब अभी भविष्य के गर्भ में है.
"टुकड़े-टुकड़े गैंग"
कन्हैया के साथ जुड़ी दूसरी समस्या वो है जिसे कांग्रेस में उनके शामिल होने में हुई देरी का जिम्मेदार माना जाता है. कांग्रेस सूत्र बताते हैं कि पार्टी बहुत पहले से कन्हैया को समर्थन और मदद दे रही है. सूत्रों के मुताबिक कांग्रेस ने कन्हैया की कई रैलियों के आयोजन में आर्थिक और दूसरी मदद की थी.
सूत्रों ने यह भी बताया कि जब कन्हैया दिल्ली में होते हैं तो एक कांग्रेस सांसद के आवास पर ही उनके ठहरने की व्यवस्था रहती है. इतने मेलजोल के बाद एक दिन आधिकारिक रूप से पार्टी का हाथ थाम लेना उनके लिए स्वाभाविक ही था, लेकिन इसमें अभी तक एक अड़चन थी.
2016 में जेएनयू में कथित रूप से "देश विरोधी" नारे लगाने के आरोप में उनके खिलाफ दिल्ली की एक अदालत में राजद्रोह का मुकदमा अभी भी चल रहा है. पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने उस समय जेएनयू जाकर कन्हैया और दूसरे छात्रों का समर्थन किया था.
जोखिम का गणित
लेकिन 2019 से राहुल और कांग्रेस कन्हैया के प्रति गर्मजोशी दिखाने से बच रहे हैं. बीजेपी ने कन्हैया और जेएनयू वाले मामले में शामिल सभी छात्र नेताओं को "टुकड़े-टुकड़े गैंग" का नाम दे दिया है और इसमें उनका समर्थन करने वाले राहुल गांधी और अरविंद केजरीवाल जैसे दूसरे नेताओं को भी शामिल कर लिया है.
"राष्ट्रवादी" विचारधारा से प्रेरित मतदाताओं के धड़े का मत खो देने के डर से इन नेताओं ने धीरे धीरे खुद को जेएनयू वाले मामले से दूर कर लिया. कांग्रेस सूत्रों ने बताया कि इसी वजह से पार्टी भी कन्हैया को साथ लेने में अभी तक हिचक रही थी. लेकिन अब जब कांग्रेस ने कन्हैया को हरी झंडी दिखा दी है, ऐसा लग रहा है कि कई राज्यों में विधान सभा चुनावों के करीब आ जाने की वजह से पार्टी ने यह जोखिम उठाने का फैसला कर लिया है.
कन्हैया के नाम पर जहां "राष्ट्रवादी" वोट ना मिलने का जोखिम है वहीं अल्पसंख्यकों, दलितों और अन्य वंचित वर्गों को लुभाने की संभावना भी है. देखना यह होगा कि कांग्रेस से जुड़ जाने का मेवानी, कन्हैया और कांग्रेस तीनों को फायदा मिल पाता है या नहीं.