आगामी विधानसभा चुनावों से पहले मायावती ने कांग्रेस से गठबंधन ना करने का एलान कर महागठबंधन की कोशिशों को झटका दिया है. लेकिन क्या आम चुनाव को लेकर भी उनका यही रुख़ कायम रहेगा?
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बहुजन समाज पार्टी की नेता मायावती का कांग्रेस पर बीएसपी समेत छोटी पार्टियों को खत्म करने का आरोप लगाना और कांग्रेस के साथ किसी गठबंधन में शामिल होने से इनकार कर देने से एनडीए सरकार के खिलाफ 2019 में बनने वाले कथित महागठबंधन को बड़ा झटका जरूर लगा है, लेकिन ये मामला सिर्फ यहीं खत्म नहीं होता.
मायावती ने यह कठोर एलान मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव के लिए कांग्रेस से गठबंधन बनने से पहले ही टूट जाने, छत्तीसगढ़ में कांग्रेस छोड़ कांग्रेस से बागी हुए व्यक्ति की पार्टी से गठबंधन करने पर विवश होने और राजस्थान में इसकी कोई संभावना ही न दिखने के चलते किया.
माना जा रहा था कि लोकसभा चुनाव के लिए महागठबंधन का रिहर्सल इन विधानसभा चुनावों में हो जाएगा लेकिन कांग्रेस पार्टी यहां गठबंधन के लिए उस स्तर से समझौते के मूड में कतई नहीं थी जिस स्तर पर उत्तर प्रदेश और बिहार में उससे उम्मीद की जा रही है.
हालांकि संभावित महागठबंधन के एक अन्य बड़े साझीदार और समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव ने भी कांग्रेस को ‘बड़ा दिल' दिखाने की सलाह दी लेकिन उनकी पार्टी खुद मध्य प्रदेश में अकेले चुनाव लड़ने की घोषणा कर चुकी है और अखिलेश यादव वहां लगातार सभाएं कर रहे हैं.
जानकारों के मुताबिक इन राज्यों के विधानसभा चुनावों में भी यदि इन तीनों पार्टियों, खासकर बीएसपी और कांग्रेस का गठबंधन होता तो चुनाव परिणाम काफी हद तक गठबंधन के पक्ष में होते, इससे इनकार नहीं किया जा सकता. लेकिन बीएसपी के उसके खिलाफ खड़े होने की स्थिति में नुकसान सिर्फ कांग्रेस का ही होगा, बीजेपी का नहीं, ऐसा कहना भी मुश्किल है.
भारत की कौन सी पार्टी कितनी अमीर है
भारत की सात राष्ट्रीय पार्टियों को 2016-2017 में कुल 1,559 करोड़ रुपये की आमदनी हुई है. 1,034.27 करोड़ रुपये की आमदनी के साथ बीजेपी इनमें सबसे ऊपर है. जानते हैं कि इस बारे में एडीआर की रिपोर्ट और क्या कहती है.
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भारतीय जनता पार्टी
दिल्ली स्थित एक थिंकटैंक एडीआर की रिपोर्ट के मुताबिक भारतीय जनता पार्टी को एक साल के भीतर एक हजार करोड़ रूपये से ज्यादा की आमदनी हुई जबकि इस दौरान उसका खर्च 710 करोड़ रुपये बताया गया है. 2015-16 और 2016-17 के बीच बीजेपी की आदमनी में 81.1 फीसदी का उछाल आया है.
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कांग्रेस
राजनीतिक प्रभाव के साथ साथ आमदनी के मामले भी कांग्रेस बीजेपी से बहुत पीछे है. पार्टी को 2016-17 में 225 करोड़ रुपये की आमदनी हुई जबकि उसने खर्च किए 321 करोड़ रुपये. यानी खर्चा आमदनी से 96 करोड़ रुपये ज्यादा. एक साल पहले के मुकाबले पार्टी की आमदनी 14 फीसदी घटी है.
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बहुजन समाज पार्टी
मायावती की बहुजन समाज पार्टी को एक साल के भीतर 173.58 करोड़ रुपये की आमदनी हुई जबकि उसका खर्चा 51.83 करोड़ रुपये हुआ. 2016-17 के दौरान बीएसपी की आमदनी में 173.58 प्रतिशत की वृद्धि हुई है. पार्टी को हाल के सालों में काफी सियासी नुकसान उठाना पड़ा है, लेकिन उसकी आमदनी बढ़ रही है.
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नेशनलिस्ट कांग्रेस पार्टी
शरद पवार की एनसीपी पार्टी की आमदनी 2016-17 के दौरान 88.63 प्रतिशत बढ़ी. पार्टी को 2015-16 में जहां 9.13 करोड़ की आमदनी हुई, वहीं 2016-17 में यह बढ़ कर 17.23 करोड़ हो गई. एनसीपी मुख्यतः महाराष्ट्र की पार्टी है, लेकिन कई अन्य राज्यों में मौजूदगी के साथ वह राष्ट्रीय पार्टी है.
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तृणमूल कांग्रेस
आंकड़े बताते हैं कि 2015-16 और 2016-17 के बीच ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस की आमदनी में 81.52 प्रतिशत की गिरावट हुई है. पार्टी की आमदनी 6.39 करोड़ और खर्च 24.26 करोड़ रहा. राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा रखने वाली तृणमूल 2011 से पश्चिम बंगाल में सत्ता में है और लोकसभा में उसके 34 सदस्य हैं.
तस्वीर: DW
सीपीएम
सीताराम युचुरी के नेतृत्व वाली सीपीएम की आमदनी में 2015-16 और 2016-17 के बीच 6.72 प्रतिशत की कमी आई. पार्टी को 2016-17 के दौरान 100 करोड़ रुपये की आमदनी हुई जबकि उसने 94 करोड़ रुपये खर्च किए. सीपीएम का राजनीतिक आधार हाल के सालों में काफी सिमटा है.
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सीपीआई
राष्ट्रीय पार्टियों में सबसे कम आमदनी सीपीआई की रही. पार्टी को 2016-17 में 2.079 करोड़ की आमदनी हुई जबकि उसका खर्च 1.4 करोड़ रुपये रहा. लोकसभा और राज्यसभा में पार्टी का एक एक सांसद है जबकि केरल में उसके 19 विधायक और पश्चिम बंगाल में एक विधायक है.
तस्वीर: DW/S.Waheed
समाजवादी पार्टी
2016-17 में 82.76 करोड़ की आमदनी के साथ अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी सबसे अमीर क्षेत्रीय पार्टी है. इस अवधि के दौरान पार्टी के खर्च की बात करें तो वह 147.1 करोड़ के आसपास बैठता है. यानी पार्टी ने अपनी आमदनी से ज्यादा खर्च किया है.
तस्वीर: DW
तेलुगु देशम पार्टी
आंध्र प्रदेश की सत्ताधारी तेलुगुदेशम पार्टी को 2016-17 के दौरान 72.92 करोड़ रुपये की आमदनी हुई जबकि 24.34 करोड़ रुपये खर्च करने पड़े. पार्टी की कमान चंद्रबाबू के हाथ में है जो आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री भी हैं.
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एआईएडीएमके और डीएमके
तमिलनाडु में सत्ताधारी एआईएडीएमके को 2016-17 में 48.88 करोड़ रुपये की आमदनी हुई जबकि उसका खर्च 86.77 करोड़ रुपये रहा. वहीं एआईएडीएमके की प्रतिद्वंद्वी डीएमके ने 2016-17 के बीच सिर्फ 3.78 करोड़ रुपये की आमदनी दिखाई है जबकि खर्च 85.66 करोड़ रुपया बताया है.
तस्वीर: picture-alliance/dpa
एआईएमआईएम
बचत के हिसाब से देखें तो असदउद्दीन औवेसी की पार्टी एआईएमआईएम सबसे आगे नजर आती है. पार्टी को 2016-17 में 7.42 करोड़ रुपये की आमदनी हुई जबकि उसके खर्च किए सिर्फ 50 लाख. यानी पार्टी ने 93 प्रतिशत आमदनी को हाथ ही नहीं लगाया. (स्रोत: एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म)
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लेकिन बड़ा सवाल यह है कि क्या मायावती की यह घोषणा साल 2019 के लोकसभा चुनाव पर भी लागू होती है और क्या गठबंधन छोड़ने की घोषणा के पीछे वही वजह है जो मायावती बता रही हैं, या कुछ और?
लखनऊ में वरिष्ठ पत्रकार शरद प्रधान कहते हैं कि यह तो सही है कि न तो मायावती और न ही समाजवादी पार्टी कांग्रेस से गठबंधन चाहते हैं, लेकिन इन ऐसा करना दोनों पार्टियों की ही विवशता है.
उनके मुताबिक, "दरअसल, दोनों ही पार्टियों को पता है कि यूपी में कांग्रेस की मजबूती का मतलब है, इन दोनों पार्टियों का कमजोर होना. खासकर मायावती के पास तो वही वोट बैंक है जो कभी कांग्रेस का हुआ करता था. लेकिन अभी इन तीनों दलों के सामने अस्तित्व का संकट है. इसलिए लोकसभा चुनाव में साथ आना इनकी मजबूरी है. दूसरे, ये उसका सीधा लाभ भी देख रहे हैं. लेकिन इन दोनों पार्टियों के नेता जिस कदर भ्रष्टाचार के आरोपों की जद में फँसे हैं, सत्तारूढ़ सरकार इनसे कुछ भी करा सकती है. ”
मायावती ने भी कांग्रेस से गठबंधन के खात्मे का एलान करते हुए राहुल गांधी और सोनिया गांधी के प्रति अपना नरम रवैया बरकरार रखते हुए संकेत दिया था कि आगे कुछ भी हो सकता है. शरद प्रधान कहते हैं कि इन राज्यों में बहुजन समाज पार्टी सीट जीतने के लिए कम, वोट प्रतिशत बढ़ाने के लिए ज्यादा चुनाव लड़ रही है. ऐसी स्थिति में उसे ज्यादा सीटें चाहिए और कांग्रेस यहां मजबूत है, तो ज्यादा सीटें वे कैसे दे सकती है.
चुनाव में इन हारों को देख कर चौंक गई बीजेपी
2014 के आमचुनाव में सफलता के साथ ही बीजेपी ने बीते 4 सालों में अपना दायरा 21 राज्यों तक फैला दिया.फिर भी उसे कुछ करारी हारों का भी मुंह देखना पड़ा. यहां देखिए बीजेपी को चौंकाने वाली हारों को.
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दिल्ली (फरवरी 2015)
आम चुनाव में जबर्दस्त जीत हासिल कर केंद्र की सत्ता पर काबिज होने वाली बीजेपी को उसकी नाक के नीचे दिल्ली में आम आदमी पार्टी ने पूरी तरह से परास्त कर चौंका दिया.
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बिहार (नवंबर 2015)
कई सालों से नीतीश कुमार के साथ गठबंधन में सरकार चला रही बीजेपी ने बिहार विधानसभा के चुनाव में आरजेडी और जेडीयू की ताकत को कम आंका और मुंह की खाई.
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पंजाब (मार्च 2017)
बीजेपी यहां अकाली दल के साथ गठबंधन में जूनियर सहयोगी के तौर पर सरकार चला रही थी लेकिन यहां कांग्रेस और आम आदमी पार्टी को चुनाव में कामयाबी मिली. बिहार के बाद यह दूसरा प्रमुख राज्य था जहां बीजेपी को सत्ता से बाहर होना पड़ा.
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राजस्थान उप चुनाव (फरवरी 2018)
हाल ही में राजस्थान के लोकसभा उपचुनाव में भी बीजेपी को हार का मुंह देखना पड़ा. अलवर और अजमेर की सीटों पर कांग्रेस ने उसके उम्मीदवारों को हरा दिया.
तस्वीर: UNI
मध्य प्रदेश उप चुनाव (फरवरी 2018)
हाल ही में मध्य प्रदेश के विधानसभा उपचुनाव में भी बीजेपी हार गई. शिवराज सिंह चौहान के व्यापक प्रचार अभियान के बावजूद मंगावली और कोलारास की सीटें कांग्रेस के पास ही रहीं. राज्य में इसी साल विधानसभा चुनाव होने हैं.
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बिहार उप चुनाव (मार्च 2018)
लालू यादव के जेल में रहने से शायद बीजेपी ने अररिया लोकसभा सीट और दो विधानसभा सीटों भभुआ और जहानाबाद पर हुए उपचुनाव को आसान समझ लिया था लेकिन आरजेडी अपनी दोनों सीटों को बचाने में कामयाब रही है, बीजेपी सिर्फ अपनी भभुआ सीट को बरकरार कर रख पाई.
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यूपी उपचुनाव (मार्च 2018)
उत्तर प्रदेश के उपचुनाव में मुख्यमंत्री आदित्यनाथ और उपमुख्यमंत्री केशव मौर्य की खाली हुई गोरखपुर और फूलपुर लोकसभा सीटें भी बीजेपी अपने पास नहीं रख सकी है. बहुत कम मतदान होने पर भी समाजवादी पार्टी ने बीएसपी के सहयोग से बड़ी जीत हासिल की.
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वहीं दूसरी ओर, मायावती के इस रुख के पीछे यह भी तर्क दिया जा रहा है कि केंद्र सरकार और बीजेपी के दबाव में आकर मायावती गठबंधन को कमजोर करने वाला बयान दे रही हैं. मेरठ विश्वविद्यालय में प्राध्यापक और दलित चिंतक सतीश प्रकाश कहते हैं कि दबाव तो जरूर है लेकिन मायावती को यह भली-भांति पता है कि इस समय उनके लिए क्या जरूरी है.
सतीश प्रकाश के मुताबिक, "मायावती का यह कहना कि उन्हें कांग्रेस और बीजेपी दोनों से नुकसान है, ये बिल्कुल सही है. लेकिन इस समय तो उनके सामने अस्तित्व का संकट है और कांग्रेस के साथ अपेक्षाकृत उन्हें कम नुकसान है. मायावती को यह भी पता है कि वो अकेले दलित मतों के आधार पर एक सीट भी नहीं जीत सकतीं और अन्य समुदायों का वोट उनके पास तभी आएगा जब वो साथ लड़ेंगी.”
वहीं एक चर्चा यह भी काफी तेजी से चल रही है कि महागठबंधन की बजाय मायावती एक तीसरे मोर्चे के लिए प्रयासरत हैं. इस मोर्चे में अखिलेश यादव, ममता बनर्जी, शरद पवार, लालू यादव, चंद्रबाबू नायडू जैसे उन नेताओं को शामिल किया जा सकता है जो कांग्रेस और बीजेपी दोनों से बराबर दूरी रखना चाहते हैं. लेकिन जानकारों का मुताबिक, मौजूदा परिस्थिति में ऐसे किसी मोर्चे के जरिए विपक्षी मतों का बिखराव होगा और बीजेपी को इसका सीधा फायदा होगा.
ताजमहल मुद्दे पर राजनीति तेज
01:07
यही नहीं, महागठबंधन की चर्चा और उसके महत्व का आकलन सबसे ज्यादा उत्तर प्रदेश और बिहार में हो रहा है. बिहार में तो इसकी स्थिति लगभग स्पष्ट है. उत्तर प्रदेश में ही इसे लेकर दिक्कतें हैं. राजनीतिक पर्यवेक्षकों के मुताबिक, पिछले दिनों हुए फूलपुर, गोरखपुर, कैराना और नूरपुर के चुनाव साफ दिखाते हैं कि गठबंधन करके उत्तर प्रदेश में बीजेपी को आसानी से रोका जा सकता है. लेकिन इसके लिए जरूरी है कि सभी दलों को एक साथ आना, खासकर कांग्रेस का.
विरासत की नेतागिरी
बीजेपी और कम्युनिस्ट पार्टियों को छोड़ दें तो भारतीय लोकतंत्र की प्रमुख पार्टियां वंशवाद के सहारे चल रही हैं. एक नजर ऐसी ही पार्टियों और विरासत में नेतागिरी पाने वाले नेताओं पर.
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राहुल गांधी
पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के बेटे राहुल गांधी ने अपनी मां सोनिया गांधी से पार्टी की बागडोर संभाली. सोनिया ने 19 साल तक पार्टी का नेतृत्व किया. हालांकि बहुत से लोग राहुल की नेतृत्व क्षमता पर सवाल उठाते हैं. पार्टी को लगातार वंशवाद के आरोपों को भी झेलना पड़ता है.
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अखिलेश यादव
मुलायम सिंह यादव के बेटे अखिलेश यादव बेटा होने के कारण पद पर आए. लेकिन मुख्यमंत्री बनने के बाद उन्होंने पिता के तिकड़म के विपरीत स्वच्छ और भविष्योन्मुखी प्रशासन देने की कोशिश की है.
तस्वीर: Prabhakar Mani Tewari
तेजस्वी यादव
बिहार के मुख्यमंत्री माता-पिता की संतान तेजस्वी यादव बिहार के उप मुख्यमंत्री रह चुके हैं. नीतीश सरकार से अलग होने के बाद बिहार सरकार और बीजेपी पर खूब हमलावर रहते हैं. पिता लालू यादव भ्रष्टाचार के दोषी होने के कारण चुनाव लड़ नहीं सकते.
तस्वीर: UNI Photo
महबूबा मुफ्ती
जम्मू-कश्मीर की मौजूदा मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती जम्मू कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री सैयद मुफ्ती की बेटी हैं और पिता द्वारा बनाए गए राजनीतिक साम्राज्य को संभालने और पुख्ता करने की कोशिश में हैं.
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उमर अब्दुल्लाह
उमर अब्दु्ल्लाह दादा शेख अब्दुल्लाह और पिता फारूक अब्दुल्लाह की राजनीतिक विरासत संभाल रहे हैं. वे जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री रहे हैं और पिछला चुनाव हारने के बाद वे प्रांत में विपक्ष के नेता हैं.
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सुप्रिया सूले
सुप्रिया सूले प्रमुख मराठा नेता शरद पवार की बेटी हैं और सांसद हैं. पिछले चुनाव तक पिता स्वयं सक्रिय राजनीति में थे, इसलिए अभी तक सुप्रिया को राजनीतिक प्रशासनिक अनुभव पाने का मौका नहीं मिला है.
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एमके स्टालिन
द्रमुक नेता और तमिलनाडु के कई बार मुख्यमंत्री रहे करुणानिधि ने अपने बेटे स्टालिन को अपना उत्तराधिकारी चुना है. 63 साल के स्टालिन पार्टी की युवा इकाई के प्रमुख हैं और युवा नेता माने जाते हैं.
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अनुराग ठाकुर
अनुराग ठाकुर हिमाचल प्रदेश के हमीरपुर से भारतीय जनता पार्टी के सांसद हैं. उनके पिता प्रेम कुमार धूमल भाजपा के वरिष्ठ नेता हैं और हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री रह चुके हैं. अनुराग ठाकुर बीसीसीआई के प्रमुख भी रह चुके हैं.
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अशोक चव्हाण
अशोक चव्हाण महाराष्ट्र में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता हैं और वह राज्य के मुख्यमंत्री रह चुके हैं. उनके पिता शंकर राव चव्हाण ने भी दो बार बतौर मुख्यमंत्री राज्य की बागडोर संभाली थी.
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चिराग पासवान
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार में केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान के बेटे हैं और सांसद हैं. बिहार में रामविलास पासवान की दलित राजनीति को चमकाना और उसे आधुनिक चेहरा देना उनकी जिम्मेदारी है.
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दुष्यंत चौटाला
वे देश के उपप्रधानमंत्री और हरियाणा के मुख्यमंत्री रहे देवी लाल की खानदानी विरासत को आगे बढ़ा रहे हैं. उनके दादा ओमप्रकाश चौटाला भी मुख्यमंत्री थे, लेकिन अब भ्रष्टाचार के लिए जेल काट रहे हैं.
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सुखबीर बादल
पिता प्रकाश सिंह बादल ने खानदानी राजनीति की नींव रखी. पिता बादल की सरकार में उनके बेटे सुखबीर पंजाब के उपमुख्यमंत्री रहे. बादल की राजनीतिक पूंजी को बचाना का भार उन पर है.
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यदि 2014 के लोकसभा चुनाव के आंकड़ों को देखें, तो कांग्रेस भले ही यूपी में कमजोर दिखती हो लेकिन कई सीटों पर उसकी पकड़ मजबूत है. 2014 में बीजेपी ने अकेले दम पर 71 सीटों के साथ 42.63 फीसदी वोट हासिल किए थे, समाजवादी पार्टी को 22.35 फीसदी वोट और पांच सीटें मिली थीं लेकिन बीएसपी को 19.7 फीसदी वोट भले ही मिले हों, लेकिन सीट एक भी नहीं जीत पाई. वहीं कांग्रेस सिर्फ 7.53 फीसदी वोट के बावजूद दो सीटें जीतने में कामयाब रही थी. यही नहीं, पश्चिमी उत्तर प्रदेश की कई सीटों पर उसने बीजेपी को कड़ी टक्कर दी थी.
बीएसपी से बीजेपी में गए एक वरिष्ठ नेता नाम न बताने की शर्त पर कहते हैं कि कांग्रेस से मायावती को हमेशा से ही खौफ रहा है कि कहीं वो उसके वोट बैंक पर दोबारा कब्जा न जमा ले. इनके मुताबिक मायावती कांग्रेस से गठबंधन से पहले सौ बार सोचेंगी लेकिन जानकारों का कहना है कि इस समय राजनीतिक सौदेबाजी और नफे-नुकसान से ज्यादा अस्तित्व का सवाल है. और ये सवाल बहुजन समाज पार्टी के सामने सबसे ज्यादा गंभीर होकर खड़ा है.
उत्तर प्रदेश कांग्रेस के प्रवक्ता जीशान हैदर कहते हैं, "कांग्रेस से ज्यादा महागठबंधन की जरूरत सपा और बसपा के लिए है. साथ आने पर इन्हीं दलों का ज्यादा लाभ होगा क्योंकि कांग्रेस की वजह से विपक्षी मतों का बिखराव नहीं होगा. दूसरे, कांग्रेस तो अपनी कमी की भरपाई दूसरे राज्यों से भी कर सकती है, ये पार्टियां कहां से करेंगी.”
बहरहाल, राजनीतिक हलकों में मायावती के इस रुख को छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान विधान सभा चुनाव के संदर्भ में ही देखा जा रहा है, 2019 के लोकसभा चुनाव के संदर्भ में नहीं. लेकिन जानकारों का कहना है कि यदि मायावती अपने इस रुख पर कायम रहीं तो गठबंधन बनने के बावजूद उसका अपने मक़सद में कामयाब हो पाना मुश्किल हो जाएगा.
कहां-कहां चूके मोदी
पहले दो साल में मोदी सरकार ने जमकर सुर्खियां बटोरी हैं. लेकिन ये सुर्खियां विवादों की वजह से ज्यादा रहीं. गिनती में तो ये विवाद बहुत ज्यादा हैं, लेकिन अभी जिक्र 10 सबसे बड़े विवादों का.
तस्वीर: Getty Images/AFP/M. Sharma
आईआईटी में संस्कृत
इसी साल अप्रैल में शिक्षा मंत्री स्मृति ईरानी ने लोकसभा में कहा कि आईआईटी से संस्कृत पढ़ाने को कहा गया है. इस प्रस्ताव का देशभर में विरोध हुआ. सीपीएम महासचिव सीताराम येचुरी ने कहा कि एचआरडी मिनिस्ट्री का नाम बदलकर हिंदू राष्ट्र डेवलपमेंट मिनिस्ट्री कर दिया जाना चाहिए.
तस्वीर: Uni
प्रधानमंत्री की डिग्री
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बीए और एमए की डिग्रियों को लेकर देश में जमकर विवाद हुआ. प्रधानमंत्री की शिक्षा पर एक आरटीआई का जवाब न मिलने से यह विवाद शुरू हुआ. आम आदमी पार्टी का दावा है कि उनकी डिग्री फर्जी है. अरुण जेटली और अमित शाह को सामने आकर सफाई देनी पड़ी.
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उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन
9 कांग्रेसी विधायकों के बागी होने पर इसी साल मार्च में केंद्र सरकार ने राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया. हाई कोर्ट और फिर सुप्रीम कोर्ट ने भी सरकार के इस फैसले को गलत करार दिया. मुख्यमंत्री हरीश रावत ने बहुमत साबित करके फिर से सरकार बना ली.
तस्वीर: Imago/Hindustan Times
कन्हैया विवाद
फरवरी 2016 में जेएनयू छात्र संगठन के अध्यक्ष कन्हैया को राजद्रोह का आरोप लगाकर गिरफ्तार कर लिया गया. इसके विरोध में देशभर में प्रदर्शन शुरू हो गए. दो और छात्रों को गिरफ्तार किया गया. शिक्षा मंत्री ने दखल देने से इनकार कर दिया. बाद में तीनों छात्र जमानत पर रिहा हुए.
तस्वीर: picture-alliance/Zuma Press/Xinhua
हैदराबाद यूनिवर्सिटी विवाद
शिक्षा मंत्री स्मृति ईरानी की पांच चिट्ठियों के बाद दलित छात्रों पर हैदराबाद यूनिवर्सिटी ने कार्रवाई की और पांच छात्रों को सस्पेंड कर दिया. उनमें से एक रोहित वेमुला ने खुदकुशी कर ली. दलित स्कॉलर वेमुला की मौत ने देशभर में विरोध प्रदर्शनों का सिलसिला छेड़ दिया.
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अरुणाचल संकट
बीते साल दिसंबर में अरुणाचल की कांग्रेस सरकार से कुछ बागी विधायकों ने समर्थन वापस ले लिया. सरकार गिर गई. कांग्रेस ने आरोप लगाया कि राज्यपाल की मदद से केंद्र सरकार ने राज्य सरकार को अस्थिर किया. बाद में बागी विधायकों ने बीजेपी की मदद से सरकार बना ली.
तस्वीर: picture-alliance/dpa
असहिष्णुता और सम्मान वापसी
देश में बढ़ती असहिष्णुता का आरोप लगाकर देश के कई जानेमाने लेखकों, कलाकारों, कवियों, वैज्ञानिकों और फिल्मकारों ने अपने-अपने सम्मान लौटा दिए. जिसके बाद देश में ऐसा विवाद खड़ा हुआ कि बंटवारा स्पष्ट नजर आने लगा.
तस्वीर: AP
ललित मोदी के संबंध
केंद्रीय विदेश मंत्री सुषमा स्वराज के भगोड़े ललित मोदी की मदद करने की बात सामने आने के बाद केंद्र सरकार विवादों में घिर गई. सुषमा स्वराज ने कहा कि उन्होंने मानवीय आधार पर मदद की. इसके बाद कई हफ्तों तक संसद ठप रही.
तस्वीर: UNI
गोमांस पर बैन
बीते साल हरियाणा और महाराष्ट्र में गोहत्या को लेकर कड़े कानूनों के लागू होने का काफी विरोध हुआ. यहां तक कि यह मुद्दा राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी चर्चित रहा. बीजेपी के कई नेताओं और केंद्र सरकार के मंत्रियों के भी बयान आए.
तस्वीर: Reuters/S. Andrade
10 लाख का सूट
बीते साल जनवरी में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की भारत यात्रा के दौरान उनसे मुलाकात में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जो सूट पहना उस पर उनका नाम लिखा था. ऐसे आरोप लगे कि यह सूट 10 लाख रुपये में बना है. कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने इसे बड़ा मुद्दा बनाया और सूट-बूट की सरकार कहकर तीखे बाण चलाए.