पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान के अल कायदा के पूर्व सरगना ओसामा बिन लादेन को “शहीद” कहने पर विवाद छिड़ गया है. डीडब्ल्यू के शामिल शम्स कहते हैं कि असल में यह खान के निजी और राजनैतिक नजरिए से बिल्कुल मेल खाता है.
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यह बात किसी से छुपी नहीं है कि पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान के मन में उन इस्लामी लड़ाकों तक के लिए खास जगह है, जो अफगानिस्तान और यहां तक की खुद पाकिस्तान में हिंसक हमले करते आए हैं. वह इसका आरोप अमेरिका पर जड़ते हैं कि उसने अफगानिस्तान-पाकिस्तान क्षेत्र में अस्थिरता पैदा की और जिसके जवाब में तालिबान का उग्रवाद फैला. लेकिन फिर भी पूर्व अल कायदा प्रमुख ओसामा बिन लादेन को शहीद कह जाना उनकी इस तरह की सोच के लिहाज से भी काफी निम्न स्तर का है.
कुछ लोग कह रहे हैं कि ऐसा उनकी जबान से गलती से निकल गया. मैं कहता हूं कि अगर ऐसा है भी तो यह "फ्रायडियन स्लिप" था और इससे खान के अवचेतन में छुपे विचार ही सामने आए हैं.
25 जून को अपने संसदीय भाषण में खान विपक्ष के उन आरोपों का जवाब दे रहे थे कि उनकी सरकार ने पाकिस्तान में कोरोना महामारी को ठीक से नियंत्रित नहीं किया. उन्होंने इस आरोप को गलत बताते हुए एक लंबा चौड़ा भाषण दिया, जिसमें आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई और उससे पाकिस्तान को हुए नुकसान का भी जिक्र किया. पिछले 19 सालों की राजनीति में वह अपनी इसी सोच को दोहराते आए हैं.
पाकिस्तानी सरकार की सोच
सन 2011 में अमेरिकी सेना ने विशेष अभियान चलाकर पाकिस्तान के एबटाबाद में बिन लादेन को मारा था. माना जाता है कि उस समय पाकिस्तानी सरकार ने तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की बिन लादेन ऑपरेशन में मदद की थी. शायद उस समय पाकिस्तान के पास मदद करने के अलावा और कोई चारा भी नहीं था. लेकिन पूर्व अल कायदा सरगना के पाकिस्तान में पाए जाने के कारण उसके आतंकवाद-विरोधी होने के दावों की पोल तो खुल ही गई थी. आखिर आतंकवाद के खिलाफ कार्रवाई करने के नाम पर ही तो पाकिस्तान अरबों डॉलर अमेरिका से लेता आया था.
पश्चिमी देशों के लिए पाकिस्तान का आतंक के खिलाफ ऐसा संदेहास्पद रवैया ही हमेशा से परेशानी का कारण रहा है. पश्चिम को इस क्षेत्र में संकटों को सुलझाने के लिए पाकिस्तान की मदद तो चाहिए लेकिन सरकार का खुद अपनी घरेलू और विदेशी नीतियों पर नियंत्रण नहीं है. पाकिस्तान में सरकार और समाज दोनों ही स्तरों पर इस्लामिक लड़ाकों से सहानुभूति रखने वालों की भी कोई कमी नहीं है. इसी का सहारा लेकर भारत के खिलाफ भावनाएं भड़काई जाती हैं और इसी की मदद से सेना के जनरलों के हाथों में इतनी ताकत बनी रहती है.
खान के सेना के साथ गहरे संबंध होना भी जगजाहिर है. इसलिए खान की जबान से बिन लादेन के लिए जो निकला, उसे ही देश की नीति का प्रतिबिंब माना जाना चाहिए. फर्क बस इतना है कि जो बात सत्ता के गलियारों में ज्यादातर लोग मानते हैं, बस उसे ही खान ने खुलेआम और वो भी संसद में कह दिया.
क्या सच में लड़ी आतंक के खिलाफ जंग
जाहिर है कि इमरान खान को भी अपनी सोच रखने का अधिकार है. अगर उनका वाकई मानना है कि लादेन एक "शहीद" था तो वह अपनी सोच रखें. लेकिन साथ ही पाकिस्तान सरकार को अमेरिका से साफ कह देना चाहिए कि वह आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में उसका साथ नहीं देगी. यह बेकार का मुखौटा हटा लेना चाहिए. असल में पाकिस्तान ने कभी भी आतंक के खिलाफ जंग की ही नहीं.
इमरान खान को कितना जानते हैं आप?
पाकिस्तान में बदहाल अर्थव्यवस्था और कुशासन का आरोप झेल रहे प्रधानमंत्री इमरान खान की मुश्किलें लगातार बढ़ रहीं हैं. क्रिकेटर से राजनेता बने इमरान खान का अब तक का सफर बेहद दिलचस्प है, चलिए जानते हैं.
तस्वीर: Saiyna Bashir/REUTERS
पूरा नाम?
क्या आप इमरान खान का पूरा नाम जानते हैं? उनका पूरा नाम है अहमद खान नियाजी इमरान, लेकिन बतौर क्रिकेटर और राजनेता वह दुनिया के लिए हमेशा इमरान खान रहे हैं.
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करियर की शुरुआत
इमरान खान के क्रिकेट करियर की शुरुआत 16 साल की उम्र में हुई, जब उन्होंने 1968 में लाहौर की तरफ से सरगोधा के खिलाफ पहला फर्स्ट क्लास क्रिकेट मैच खेला.
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पढ़ाई से पहले क्रिकेट
1970 में वह पाकिस्तान की राष्ट्रीय टीम का हिस्सा बन गए. यानी उनकी पढ़ाई भी पूरी नहीं हुई थी और उनके अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट करियर का आगाज हो चुका था.
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इंग्लिश क्रिकेट में धाक
बाद में वह पढ़ाई के लिए इंग्लैंड चले गए. वहां भी उनके खेल के चर्चे होने लगे. वह 1974 में ऑक्सफर्ड यूनिवर्सिटी इलेवन के कप्तान बने. उन्होंने काउंटी क्रिकेट भी खेला.
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पाकिस्तान की कप्तानी
इमरान खान 1982 में पाकिस्तानी क्रिकेट टीम के कप्तान बने. बतौर कप्तान उन्होंने 48 टेस्ट मैच खेले जिनमें से पाकिस्तान ने 14 जीते, आठ हारे और बाकी ड्रॉ रहे.
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वनडे करियर
इमरान ने 139 एकदिवसीय मैचों में पाकिस्तानी टीम का नेतृत्व किया. इनमें से 77 जीते, 57 हारे और एक मैच का कोई नतीजा नहीं निकला.
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वर्ल्ड चैंपियन
पाकिस्तान ने अब तक सिर्फ एक बार क्रिकेट का वर्ल्ड कप जीता है और 1992 में यह कारनामा इमरान खान की कप्तानी में हुआ था.
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सबसे सफल कप्तान
इमरान पाकिस्तान के लिए सबसे सफल कप्तान साबित हुए, जिनकी तुलना अकसर भारत के पूर्व कप्तान कपिल देव से हुई है. दोनों ऑलराउंडरों के रिकॉर्ड भी प्रभावशाली रहे हैं.
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सियासत में कदम
इमरान खान ने 1996 में पाकिस्तान तहरीक ए इंसाफ पार्टी बना कर सियासत में कदम रखा. 2013 के आम चुनाव में उनकी पार्टी दूसरे स्थान पर रही और 2018 में पहले पर.
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निजी जीवन
इमरान खान अपनी निजी जिंदगी को लेकर भी सुर्खियों में रहते हैं. 65 साल की उम्र में उन्होंने तीसरी शादी की. इससे पहले सेलेब्रिटी जमैमा और टीवी एंकर रेहाम खान उनकी पत्नी रह चुकी हैं.
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गंभीर आरोप
रेहाम खान ने अपनी किताब में इमरान पर गंभीर आरोप लगाए. उन्होंने कहा कि किसी महिला को इमरान की पार्टी में तभी बड़ा पद मिलता है जब वह इमरान के साथ हमबिस्तर हो.
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पाकिस्तान के ट्रंप
कई लोग इमरान खान पर पॉपुलिस्ट होने का आरोप लगाते हैं. चरमपंथियों के प्रति उनकी नरम सोच पर कई लोग सवाल उठाते हैं. कई कट्टरपंथियों से उनके करीबी रिश्ते रहे हैं.
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अमेरिका के आलोचक
प्रधानमंत्री बनने से पहले इमरान खान आतंकवाद के खिलाफ अमेरिकी जंग और उसमें पाकिस्तान की भागीदारी पर सवाल उठाते रहे हैं. वे इसे पाकिस्तान की कई मुसीबतों की जड़ मानते थे. लेकिन पीएम बनने के बाद उन्हें पता चला कि अमेरिका से रिश्ते कितने जरूरी हैं.
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भ्रष्टाचार के खिलाफ
इमरान खान हमेशा से पाकिस्तान में भ्रष्टाचार को बड़ा मुद्दा बनाते रहे थे. पूर्व पीएम नवाज शरीफ खास तौर से उनके निशाने पर रहे. लेकिन आज वो खुद बदहाल अर्थव्यवस्था और कुशासन का आरोप झेल रहे हैं.
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लोकप्रियता
इमरान खान युवाओं में बेहद लोकप्रिय रहे हैं. नया पाकिस्तान बनाने का उनका नारा युवाओं की जुबान पर रहा. 2012 में वह एशिया पर्सन ऑफ द ईयर चुने गए. लेकिन अब उनकी छवि बदल रही है. उन पर अपने चुनावी वादों को पूरा ना करने के आरोप लग रहे हैं.
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इसके अलावा, पाकिस्तान को खुद को पीड़ित के रूप में दिखाना भी बंद कर देना चाहिए. खान हमेशा बाकी दुनिया को याद दिलाते रहते हैं कि आतंकवाद के खिलाफ जंग का हिस्सा बनने के कारण पाकिस्तान को कितनी भारी कीमत चुकानी पड़ी है. सन 2001 से ही हजारों आम शहरियों और सैनिकों की जान इसकी भेंट चढ़ चुकी है. अगर मासूमों की जान लेने वालों को वह "शहीद" मानते हैं तो अपने देश की "कुर्बानियों” के बारे में बात करने का उन्हें कोई हक नहीं बनता.
प्रिय प्रधानमंत्री जी, पाकिस्तान के लोगों को वाकई आतंकवाद के कारण बहुत कुछ झेलना पड़ा है. जिन उदारवादी सोच वाले नेताओं ने इसके खिलाफ आवाज उठाई, उन्हें आतंकियों ने मार डाला. दूसरी ओर आप जैसे नेता हैं जिन्होंने तालिबान से भी दोस्ताना संबंध बनाए हुए हैं. उग्रवाद और कट्टरवाद को चुनौती देने के लिए आपको कभी कोई कीमत नहीं चुकानी पड़ी है. लेकिन प्रगतिवादी और सेकुलर लोग सरकार की सोच और आपकी नीतियों पर ऐसे ही सवाल खड़े करते रहेंगे. अब तक भी इसमें कोई संदेह नहीं था कि आप इस्लामी लड़ाकों से सहानुभूति रखते हैं लेकिन अब तो आपने अपनी सोच को काफी उजागर कर दिया है. फिर भी, पाकिस्तान में कट्टरवाद के खिलाफ जंग चलती रहेगी. लादेन का महिमामंडन कर आपने दिखा दिया है कि आप इसमें किसके साथ खड़े हैं.
अफगानिस्तान को आजाद हुए 100 साल हो गए हैं. लेकिन यह एक पूरी सदी अफगानिस्तान को तबाही और बर्बादी के सिवाय कुछ नहीं दे पाई. जानिए इन सौ सालों में क्या हुआ.
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1919
तीसरे एंग्लो अफगान युद्ध के बाद अमानुल्लाह खान ने ब्रिटेन से आजादी की घोषणा की और खुद अफगानिस्तान की कमान संभाली. उन्होंने कई सामाजिक सुधार लागू करने की कोशिश की, जिनका काफी विरोध हुआ और आखिरकार उन्हें देश छोड़कर भागना पड़ा. (फोटो सांकेतिक है)
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1933
जहीर शाह अफगानिस्तान के राजा बने और अगले चार दशक तक अफगानिस्तान में राजशाही रही. दूसरे विश्व युद्ध के बाद अफगानिस्तान को सोवियत संघ से आर्थिक और सैन्य मदद मिली. इस दौरान, पर्दा प्रथा को खत्म करने जैसे कई सामाजिक सुधार भी हुए.
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1963
दस साल तक प्रधानमंत्री रहने वाले जनरल मोहम्मद दाऊद को इस्तीफा देने के लिए मजबूर किया गया. इसके अगले साल 1964 में अफगानिस्तान में संवैधानिक राजशाही लागू की गई. लेकिन इससे देश में राजनीतिक ध्रुवीकरण और सत्ता संघर्ष की शुरुआत हो गई.
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1973
मोहम्मद दाऊद ने जहीर शाह का तख्ता पलटा और अफगानिस्तान को एक गणतंत्र घोषित किया. वह अफगानिस्तान के पहले राष्ट्रपति बने. उन्होंने सोवियत संघ को पश्चिमी ताकतों से भिड़ाने की कोशिश भी की.
तस्वीर: gemeinfrei
1978
एक सोवियत समर्थित तख्तापलट में जनरल दाऊद की हत्या कर दी जाती है. पीपल्स डेमोक्रेटिक पार्टी सत्ता में आती है, लेकिन अंदरूनी हिंसा के चलते वह कुछ कर नहीं पाती है. उसे अमेरिका समर्थित मुजाहिदीन गुटों की तरफ से भी काफी विरोध झेलना पड़ रहा था.
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1979
दिसंबर के महीने में सोवियत सेना अफगानिस्तान पर हमला करती है और वहां एक कम्युनिस्ट सरकार को सत्ता में बैठाती है. बाबराक कारमाल को देश की बागडोर मिलती है. लेकिन सोवियत बलों से लड़ने वाले मुजाहिदीन गुटों की चुनौतियां बढ़ने लगीं. अमेरिका, पाकिस्तान, चीन, ईरान और सऊदी अरब ने मुजाहिदीन को पैसा और हथियार दिए.
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1985
मुजाहिदीन गुटों ने पाकिस्तान में आकर सोवियत बलों के खिलाफ एक गठबंधन बनाया. युद्ध की वजह से आधी अफगान आबादी विस्थापित हो गई. बहुत से लोग जान बचाने के लिए पड़ोसी ईरान और पाकिस्तान जैसे देशों में भाग गए.
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1986
अमेरिकी ने मुजाहिदीन को स्टिंगर मिसाइलें देनी शुरू कर दी, जिनके जरिए वे सोवियत हेलीकॉप्टर गनशिपों को मार गिरा सकते थे. इसी साल बाबराक कमाल की जगह नजीबुल्लाह को सोवियत समर्थित सरकार का प्रमुख बनाया गया.
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1988
अफगानिस्तान, सोवियत संघ, अमेरिका और पाकिस्तान ने एक शांति समझौते पर हस्ताक्षर किए जिसके बाद सोवियत सैनिकों ने अफगानिस्तान से हटना शुरू कर दिया. 1989 में सोवियत सेना पूरी तरह वहां से हट गई, लेकिन गृह युद्ध जारी रहा क्योंकि मुजाहिदीन नजीबुल्लाह सरकार को हटाना चाहते थे.
तस्वीर: picture-alliance/dpa
1992
नजीबुल्लाह को सत्ता से बेदखल कर दिया गया. दरअसल सोवियत संघ ने नजीबुल्लाह सरकार को सहायता देनी बंद कर दी थी जबकि मुजाहिदीन को लगातार पाकिस्तान की मदद मिल रही थी. लेकिन नजीबुल्लाह के हटने के बाद फिर गृह युद्ध शुरू हो गया जो कहीं ज्यादा खूनी और खतरनाक था.
तस्वीर: picture-alliance/dpa/Vyacheslav
1996
तालिबान ने काबुल पर कब्जा कर लिया और देश में कट्टरपंथी इस्लामी शासन लागू किया. दफ्तरों में महिलाओं के काम करने पर रोक गई और इस्लामी सजाओं का चलन शुरू हो गया जिसमें पत्थर मार कर मौत के घाट उतारना या फिर शरीर का कोई अंग काट देना भी शामिल था.
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1997
पाकिस्तान और सऊदी अरब ने तालिबान की सरकार को मान्यता दी. अब अफगानिस्तान के दो तिहाई हिस्से पर उनका नियंत्रण था. अमेरिका ने 1998 में अल कायदा नेता ओसामा बिन के कुछ ठिकाने पर हमले किए, जो उसे अमेरिका में अपने दूतावासों पर हुए हमलों का जिम्मेदार मानता था.
तस्वीर: picture-alliance/dpa
2001
ये अफगानिस्तान के हालिया इतिहास का सबसे अहम साल है. 2001 में तालिबान के सबसे बड़े विरोधी नॉर्दन एलायंस के नेता अहमद शाह मसूद की हत्या की गई. इसी साल अमेरिका में 9/11 के आतंकवादी हमले हुए. इसके बाद अमेरिका ने अफगानिस्तान पर हमला किया और तालिबान को सत्ता से बेदखल किया. जर्मन शहर बॉन में हुए समझौते के तहत हामिद करजई को अंतरिम साझा सरकार की कमान सौंपी गई.
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2002
नाटो के नेतृत्व वाले अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा सहयोग बल (आईसैफ) की तैनाती हुई. इसी साल जहीर शाह अफगानिस्तान लौटे लेकिन उन्होंने सत्ता पर कोई दावा नहीं किया. इसी साल लोया जिरगा में हामिद करजई को अंतरिम राष्ट्र प्रमुख चुना गया, जो 2014 तक अफगानिस्तान के राष्ट्रपति रहे.
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2008
राष्ट्रपति करजई ने चेतावनी दी कि अगर पाकिस्तान ने अफगानिस्तान में हमले करने वाले तालिबान चरमपंथियों के खिलाफ कार्रवाई नहीं की, तो अफगान सैनिक उनसे निपटने के लिए पाकिस्तान की सीमा में दाखिल होंगे. इसी साल काबुल में मौजूद भारतीय दूतावास पर हमले में 50 से ज्यादा लोग मारे गए. सितंबर 2008 में अमेरिकी राष्ट्रपति बुश ने साढ़े चार हजार अमेरिकी सैनिक अफगानिस्तान भेजे.
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2009
नाटो देशों ने अफगानिस्तान में 17 हजार सैनिक तैनात करने का संकल्प किया. दिसंबर 2009 में अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा ने अफगानिस्तान में तीस हजार और सैनिक भेजने का एलान किया जिसके बाद वहां एक लाख अमेरिकी सैनिक हो गए. उन्होंने यह भी घोषणा की कि 2011 से अमेरिकी फौज अफगानिस्तान से हटना शुरू कर देगी.
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2012
नाटो शिखर सम्मेलन में 2014 तक विदेशी सैनिकों के युद्धक मिशन को खत्म करने का समर्थन किया गया. फ्रांस के राष्ट्रपति ने योजना से एक साल पहले 2012 तक ही अपने सैनिक हटा लेने की घोषणा की. इसी साल टोक्यो में दानदाता सम्मेलन में अफगानिस्तान को 16 अरब डॉलर की असैन्य मदद का वादा किया गया.
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2014
इस साल अशरफ गनी अफगानिस्तान के नए राष्ट्रपति बने. लेकिन यह साल काबुल में एक बड़े हमले का गवाह बना. राजनयिक इलाके में हुए हमले में 13 विदेशी नागरिक मारे गए. इनमें अफगानिस्तान के लिए अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के प्रमुख भी थे. इसी साल नाटो का 13 साल से चल रहा युद्धक मिशन भी खत्म हो गया.
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2015
अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा ने कहा कि राष्ट्रपति गनी के आग्रह पर कुछ देरी से अमेरिकी सैनिकों को हटाया जाएगा. इसी साल कतर में तालिबान के प्रतिनिधियों और अफगान सरकार के बीच पहली बार शांति वार्ता हुई. तालिबान बातचीत जारी रखने पर सहमत हुआ, लेकिन लड़ाई रोकने पर नहीं.
तथाकथित इस्लामिक चरमपंथी संगठन ने नंगरहार में तोरा बोरा के पहाड़ी इलाकों पर कब्जा कर लिया. कभी अल कायदा नेता ओसामा बिन इस ठिकाने को इस्तेमाल किया करता था. इसी साल अगस्त में अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप ने कहा कि वह तालिबान से लड़ने के लिए और फौजी अफगानिस्तान भेज रहे हैं.
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2019
अफगानिस्तान अपनी आजादी के 100 साल बाद भी दुनिया के सबसे अशांत और गरीब देशों में शामिल है. तालिबान से शांति वार्ता जारी है. वहां रहने वाले लोगों के लिए हालात दयनीय बने हुए हैं. अब भी बहुत से लोग दूसरे देशों में शरण ले रहे हैं.