क्या विपक्ष नरेंद्र मोदी को वाकई चुनौती दे रहा है?
समीरात्मज मिश्र
२५ अप्रैल २०१९
लंबे इंतजार के बाद वाराणसी संसदीय सीट पर प्रधानमंत्री मोदी के खिलाफ उम्मीदवारों का संशय तो जरूर खत्म हो गया लेकिन अब ये और बड़ा सवाल बन गया है कि क्या विपक्ष वास्तव में नरेंद्र मोदी को चुनौती दे रहा है?
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एक दिन पहले वाराणसी संसदीय सीट पर समाजवादी पार्टी ने शालिनी यादव को आनन-फानन में पार्टी का टिकट देकर ये स्पष्ट कर दिया कि इस सीट पर विपक्ष कोई साझा उम्मीदवार नहीं उतारेगा. अगले ही दिन कांग्रेस पार्टी ने इस आशंका को पूरी तरह से तो खारिज किया ही, ये भी साफ कर दिया कि प्रियंका गांधी वाराणसी में फिलहाल नरेंद्र मोदी को टक्कर नहीं देने जा रही हैं.
दरअसल, समाजवादी पार्टी ने बुधवार को जिस शालिनी यादव को गठबंधन का उम्मीदवार बनाया वो न सिर्फ दो दिन पहले तक कांग्रेस पार्टी में थीं और प्रियंका गांधी के साथ लगातार कांग्रेस का चुनाव प्रचार कर रही थीं बल्कि पुराने कांग्रेसी परिवार से ताल्लुक भी रखती हैं. शालिनी यादव कांग्रेस के कद्दावर नेता रहे श्यामलाल यादव के बेटे अरुण यादव की पत्नी हैं.
शालिनी यादव ने पिछले साल वाराणसी में कांग्रेस के टिकट पर मेयर का चुनाव भी लड़ा था और करीब एक लाख वोट हासिल किए थे. बताया जा रहा है कि वो लोकसभा चुनाव वाराणसी से ही लड़ना चाहती थीं लेकिन जब वहां से प्रियंका गांधी की उम्मीदवारी की चर्चा होने लगी तो उन्होंने पार्टी छोड़कर दूसरी पार्टी से चुनाव लड़ने का फैसला किया.
वहीं कांग्रेस पार्टी ने अब उन्हीं अजय राय को दोबारा मैदान में उतारा है जो पिछले लोकसभा चुनाव यानी 2014 में नरेंद्र मोदी को टक्कर दे चुके हैं. अजय राय वाराणसी से कई बार विधायक रह चुके हैं लेकिन 2014 के लोकसभा चुनाव में वो न सिर्फ तीसरे स्थान पर रहे थे बल्कि उनकी जमानत भी नहीं बच सकी थी. उस समय नरेंद्र मोदी के निकटतम प्रतिद्वंद्वी अरविंद केजरीवाल थे जिन्हें नरेंद्र मोदी ने करीब तीन लाख सत्तर हजार वोटों से हराया था.
उस चुनाव में अजय राय को महज पचहत्तर हजार वोट मिले थे. यही हाल चौथे और पांचवें स्थान पर रहने वाली बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी के उम्मीदवारों का भी था और दोनों के सम्मिलित वोट भी महज एक लाख के आस-पास थे.
ऐसी हैं प्रियंका गांधी
आखिरकार प्रियंका गांधी ने राजनीति में सक्रिय रूप से कूदने का फैसला कर ही लिया. लोग उनमें इंदिरा गांधी की झलक ढूंढते हैं. जानिए प्रियंका की जिंदगी से जुड़े कुछ अहम तथ्य.
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बचपन
प्रियंका गांधी का जन्म 12 जनवरी 1972 को दिल्ली में हुआ. अपने 47वें जन्मदिन के करीब दस दिन बाद उन्होंने राजनीति में उतरने की घोषणा की.
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शिक्षा
प्रियंका ने स्कूली शिक्षा दिल्ली के मशहूर मॉडर्न स्कूल से प्राप्त की. इसके बाद उन्होंने दिल्ली यूनिवर्सिटी के जीसस एंड मेरी कॉलेज से साइकॉलोजी में डिग्री हासिल की.
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परिवार
इंदिरा गांधी की हत्या के बाद कुछ वक्त के लिए प्रियंका को स्कूल छोड़ना पड़ा था और घर में ही उनकी शिक्षा हुई. प्रियंका राहुल से करीब दो साल छोटी हैं.
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बौद्ध धर्म
कम ही लोग जानते हैं कि प्रियंका ने बुद्धिस्ट स्टडीज यानी बौद्ध अध्ययन में एमए किया है. यह डिग्री उन्होंने 2010 में हासिल की. प्रियंका खुद भी बौद्ध धर्म का पालन करती हैं.
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शादी
18 फरवरी 1997 को प्रियंका ने अपने बचपन के दोस्त रॉबर्ट वाड्रा से शादी की. रॉबर्ट दिल्ली के जाने माने बिजनसमैन हैं और पिछले कुछ सालों से उनका नाम लगातार किसी ना किसी घोटाले से जुड़ता रहा है.
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बच्चे
प्रियंका और रॉबर्ट वाड्रा के दो बच्चे हैं. बेटा रेहान और बेटी मिराया. बच्चे मां को एक सख्त टीचर बताते हैं. प्रियंका अपने पारिवारिक जीवन को सार्वजनिक करना पसंद नहीं करतीं.
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दादी जैसी
सिर्फ जनता ही नहीं, प्रियंका खुद भी मानती हैं कि वह अपनी दादी इंदिरा गांधी जैसी दिखती हैं. दादी जैसे ही छोटे बाल और तेज नाक. उनके पास दादी की कई साड़ियां भी हैं.
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पहली स्पीच
ऐसा कम ही होता है जब प्रियंका को माइक के साथ खड़े देखा जाए. वो कम बोलती हैं लेकिन जब भी बोलती हैं लोगों का दिल जीत लेती हैं. प्रियंका 16 साल की थीं जब उन्होंने पहली बार स्पीच दी थी.
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चुनाव प्रचार
अमेठी और रायबरेली में चुनाव प्रचार के दौरान प्रियंका एक अहम भूमिका निभाती रही हैं. माना जाता है कि भाई राहुल गांधी के राजनीतिक फैसलों में भी उनकी बड़ी भूमिका रहती है.
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शौक
प्रियंका को पढ़ने, खाना पकाने और तस्वीरें खींचने का काफी शौक है. एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था कि उनकी अच्छी हिंदी का श्रेय तेजी बच्चन को जाता है.
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भारतीय जनता पार्टी ने अपनी पहली लिस्ट में ही नरेंद्र मोदी को वाराणसी से उम्मीदवार घोषित कर दिया था और तब ये चर्चाएं हो रही थीं कि विपक्ष शायद उनके खिलाफ साझा उम्मीदवार खड़ा करे, या फिर किसी पार्टी के मजबूत उम्मीदवार को अन्य दल समर्थन दें. ऐसे में भीम आर्मी के प्रमुख चंद्रशेखर से लेकर कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी तक का नाम जोर-शोर से चला, लेकिन ऐसा हुआ नहीं.
जहां तक गठबंधन और कांग्रेस के उम्मीदवारों का सवाल है तो इस बार भी यही कहा जा सकता है कि ये लोग ज्यादा से ज्यादा पिछली बार के अंतर को कुछ कम करने के लिए भले ही लड़ रहे हों, नरेंद्र मोदी को किसी तरह की चुनौती तो नहीं दिख रही है. जबकि समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी एक साथ लड़ रहे हैं.
वाराणसी के ही रहने वाले पत्रकार अनुराग तिवारी कहते हैं, "वाराणसी में नरेंद्र मोदी का जो भी जादू 2014 में दिखा था, कमोवेश वो अभी भी बरकरार है. हां, कुछेक वर्ग में नाराजगी और बीजेपी के प्रति उदासीनता जरूर बढ़ी है लेकिन इतना भी नहीं कि उन्हें फिलहाल चुनाव हराया जा सके. हां, ये जरूर है कि यदि प्रियंका जैसी कोई बड़ी नेता चुनाव लड़तीं और दूसरे विपक्षी दल पूरा समर्थन करते, तब जरूर स्थिति लड़ाई वाली हो सकती थी. अब तो चुनौती जैसी कोई स्थिति नहीं दिख रही है.”
दरअसल, यदि प्रियंका गांधी वाराणसी से चुनाव लड़तीं, और समाजवादी पार्टी-बहुजन समाज पार्टी का उन्हें समर्थन मिलता तो वाराणसी सीट के जातीय समीकरण को देखते हुए ये कहा जा सकता था कि वो नरेंद्र मोदी को चुनौती बढ़िया दे सकती थीं. ऐसा इसलिए, क्योंकि माना जा रहा है कि प्रियंका की वजह न सिर्फ युवा मतदाता कांग्रेस की ओर आकर्षित होते बल्कि उस मतदाता समूह में भी सेंध लग सकती थी जो परंपरागत रूप से बीजेपी के समझे जाते हैं.
वाराणसी लोकसभा क्षेत्र में सत्रह लाख मतदाता हैं जिनमें सबसे ज्यादा संख्या पिछड़े मतदाताओं की है जो करीब पांच लाख हैं. इसके बाद करीब तीन लाख मुस्लिम मतदाता, करीब ढाई लाख ब्राह्मण मतदाता, दो लाख वैश्य मतदाता, एक लाख राजपूत और करीब इतनी ही भूमिहार मतदाताओं की संख्या है. यहां दलित मतदाताओं की संख्या करीब एक लाख है.
ये हैं भारतीय आम चुनाव 2019 के पांच सबसे अहम चेहरे
भारत में चुनावी गहमागहमी में हर पार्टी और हर नेता लोगों को लुभाने में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहता. लेकिन इस चुनाव के पांच सबसे बड़े चेहरे कौन से हैं जिन पर सबकी नजर टिकी है. चलिए जानते हैं.
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नरेंद्र मोदी
निसंदेह 68 वर्षीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस चुनाव का सबसे बड़ा चेहरा हैं. उनके समर्थकों का कहना है कि उन्होंने राष्ट्रीय सुरक्षा को मजबूत किया और विदेशों में देश का गौरव बढ़ाया है. वहीं उनके विरोधी उन पर नफरत की राजनीति करने के साथ साथ जनता से किए वादों को ना निभाने का आरोप लगाते हैं. इस बार मोदी के सामने पिछले चुनाव में मिले जबरदस्त समर्थन को बचाए रखने की चुनौती है.
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राहुल गांधी
कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी प्रधानमंत्री मोदी को टक्कर दे रहे हैं. 48 वर्षीय राहुल गांधी आम चुनाव में पहली बार कांग्रेस का नेतृत्व कर रहे हैं. उनके ऊपर पार्टी में जान फूंकने की जिम्मेदारी है जिसे पिछले आम चुनाव में सिर्फ 44 सीटें मिली थीं. हालिया विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को कई राज्यों में कामयाबी मिली, लेकिन अब भी कम लोगों को विश्वास है कि वह मोदी को सत्ता से बाहर कर पाएंगे.
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अमित शाह
बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह को प्रधानमंत्री मोदी का सबसे विश्वासपात्र और सफल चुनावी रणनीतिकार माना जाता है. मोदी के प्रधानमंत्री बनने के साथ ही उन्हें पार्टी अध्यक्ष की कुर्सी मिल गई. गुजरात सरकार में गृह राज्य मंत्री रहते हुए उन पर कई फर्जी मुठभेड़ें कराने के आरोप लगे. लेकिन सबूतों के अभाव में ऐसे सभी मुकदमे बंद हो गए. 2019 के चुनाव 54 वर्षीय अमित शाह के लिए एक कड़ी परीक्षा माने जा रहे हैं.
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मायावती
चार बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रह चुकीं मायावती फिलहाल भारत में दलित राजनीति का सबसे बड़ा चेहरा हैं. पिछले आम चुनाव में उनकी पार्टी एक भी सीट नहीं जीत पाई. फिर भी 63 वर्षीय मायावती पर इस बार सबकी नजरें टिकी हैं. वह कभी उनकी कट्टर प्रतिद्वंद्वी रही समाजवादी पार्टी के साथ चुनावी मैदान में उतरी हैं. चुनावी पंडित कह रहे हैं कि त्रिशंकु संसद की स्थिति में मायावती किंगमेकर बन सकती हैं.
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ममता बनर्जी
कांग्रेस से अलग होकर खुद को स्थापित करने वाली ममता बनर्जी किसी राजनीतिक चमत्कार से कम नहीं हैं. उन्होंने पश्चिम बंगाल में कई दशकों से जमे वामपंथियों की सत्ता को खत्म किया और 2011 से पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री हैं. 64 वर्षीय ममता बनर्जी की गितनी इस वक्त प्रधानमंत्री मोदी के सबसे बड़े आलोचकों में होती हैं. पिछले आम चुनाव में उनकी पार्टी ने पश्चिम बंगाल की कुल 42 सीटों में से 34 सीटें जीती थीं.
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जहां तक विपक्षी उम्मीदवारों का सवाल है तो गठबंधन के उम्मीदवार की पहचान भी अब तक कांग्रेसी ही रही है और कांग्रेस के अजय राय इससे पहले समाजवादी पार्टी से भी चुनाव लड़ चुके हैं. जहां तक बात अजय राय की है तो कई बार विधायक रहने और पिछली बार मोदी के मुकाबले खड़े होने के चलते वाराणसी लोकसभा क्षेत्र में उनकी अच्छी खासी पहचान है लेकिन शालिनी यादव पुराने कांग्रेसी परिवार से आती जरूर हैं लेकिन राजनीति में महज उन्हें अभी कुछ साल ही हुए हैं और इसी दौरान उन्होंने पार्टी भी बदल ली.
लखनऊ में वरिष्ठ पत्रकार योगेंद्र यादव कहते हैं, "गठबंधन ने जो उम्मीदवार उतारा है उससे साफ पता चल रहा है कि वो मोदी की जीत को कितना ज्यादा आसान बना देना चाहते थे. यदि ऐसा ही था तो उम्मीदवार न ही उतारते. जहां तक मेरा मानना है, मोदी से मुकाबला अजय राय का ही होगा और कांग्रेस के अजय राय 2014 के मुकाबले कहीं अच्छा चुनाव लड़ेंगे. ऐसा इसलिए क्योंकि तब मुख्य प्रतिद्वंद्वी अरविंद केजरीवाल थे. गठबंधन ने दिखा दिया है कि वह चुनाव को लेकर गंभीर नहीं है. इतने कठिन उम्मीदवार के मुकाबले इतना हल्का उम्मीदवार.”
हालांकि समाजवादी पार्टी के नेता शालिनी यादव को न तो कमजोर उम्मीदवार मान रहे हैं और न ही ये मानने को तैयार हैं कि इससे पार्टी की गंभीरता पर कोई फर्क पड़ा है. समाजवादी पार्टी के नेता राजेंद्र चौधरी की मानें तो गठबंधन के उम्मीदवार के तौर पर शालिनी नरेंद्र मोदी को कड़ी टक्कर दे रही हैं और ‘पिछड़े-दलित, अल्पसंख्यक और समाज के अन्य सभी वर्गों के मतदाताओं के समर्थन से वो चुनाव जीत जाएंगी.' राजेंद्र चौधरी इसके पीछे ये भी तर्क देते हैं कि ‘वाराणसी की जनता ये जानती है कि मोदी सरकार ने पिछले पांच साल में क्या किया?'
वाराणसी लोकसभा क्षेत्र में पांच विधानसभा सीटें आती हैं जिनमें से वाराणसी उत्तर, वाराणसी दक्षिण और कैंट शहरी इलाके की हैं जबकि सेवापुरी और रोहनिया में ग्रामीण इलाके भी शामिल हैं. कभी कांग्रेस का गढ़ कही जाने वाली इस सीट पर 1991 से लेकर अब तक हुए सात लोकसभा चुनावों में बीजेपी को छह बार और कांग्रेस को एक बार जीत हासिल हुई है और इसी वजह से अब इसे बीजेपी के गढ़ के रूप में जाना जाने लगा है. साल 2014 में जब नरेंद्र मोदी ने यहां से चुनाव लड़ने का फैसला किया था तब यही कहा गया था कि सबसे ‘सुरक्षित' सीट होने के अलावा इस सीट से मोदी पूर्वांचल की करीब 25 सीटों को तो प्रभावित करेंगे ही, बिहार तक इसका असर होगा.
साल 2004 में कांग्रेस उम्मीदवार राजेश कुमार मिश्र यहां से जीते थे जबकि 2009 में वो बीजेपी के मुरली मनोहर जोशी से हार गए थे. 2014 में नरेंद्र मोदी ने बीजेपी उम्मीदवार के तौर पर यहां से जीत हासिल की. कांग्रेस और बीजेपी के अलावा यहां से सीपीएम, भारतीय लोकदल और जनता दल के उम्मीदवार भी एक-एक बार चुनाव जीत चुके हैं.
ट्रंप के पास आईफोन और नरेंद्र मोदी के पास?
मोबाइल फोन आज हर किसी की जरूरत हैं तो फिर बड़े नेताओं का काम फोन के बगैर कैसे चलेगा. दुनिया के कई नेता तो मोबाइल फोन के इस्तेमाल को लेकर सुर्खियों में रहते हैं. डॉनल्ड ट्रंप से लेकर नरेंद्र मोदी तक किसके पास कौन फोन है?
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डॉनल्ड ट्रंप
मार्च 2017 में डॉनल्ड ट्रंप के सहयोगी डान स्केविनो ने ट्विटर पर इस बात की पुष्टि की कि बीते कई हफ्तों से ट्रंप आईफोन के नए मॉ़डल का इस्तेमाल कर रहे हैं.
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टेरीजा मे
ब्रिटेन की प्रधानमंत्री पहले ब्लैकबेरी फोन का इस्तेमाल करती थीं लेकिन अब उन्होंने आइफोन को अपना लिया है.
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इमानुएल माक्रों
फ्रांस के राष्ट्रपति को एक वीडियो में बीते साल दो मोबाइल फोन के साथ देखा गया. दोनों फोन एक दूसरे के ऊपर रखे थे और ऊपर वाला फोन एप्पल जैसा दिखा.
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नरेंद्र मोदी
भारतीय प्रधानमंत्री को 2014 के चुनाव अभियान के दौरान आइफोन से सेल्फी लेते देखा गया. वह सोशल मीडिया और फोन का अत्यधिक इस्तेमाल करने वाले नेता माने जाते हैं.
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अंगेला मैर्केल
जर्मन चांसलर का फोन 2013 में सुर्खियों में आया जब पता चला कि अमेरिकी खुफिया एजेंसी उनके फोन की निगरानी कर रही है. उनके पास दो फोन हैं एक नोकिया 6260 और दूसरा ब्लैकबेरी जेड10
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किम जोंग उन
उत्तर कोरियाई नेता का फोन भी 2013 में सुर्खियों में आया, जब सुरक्षा अधिकारियों के साथ एक बैठक में उनके पास ताइवान की कंपनी एचटीसी का मोबाइल दिखा.
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बराक ओबामा
पूर्व अमेरिका राष्ट्रपति बराक ओबामा ब्लैकबेरी फोन का इस्तेमाल करते थे जिसे अमेरिकी खुफिया एजेंसी एनएसए ने और बेहतर बनाया था.
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नवाज शरीफ
पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री और प्रमुख नेता नवाज शरीफ आईफोन का इस्तेमाल करते हैं और उन्हें इसका बड़ा मुरीद बताया जाता है.
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फ्रांसुआ ओलांद
फ्रांस के पूर्व राष्ट्रपति आईफोन के जबर्दस्त दीवाने हैं. कहा जाता है कि उन्हें उनके फोन-5 से अलग नहीं किया जा सकता.
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व्लादिमीर पुतिन
रूसी राष्ट्रपति शायद दुनिया के अकेले राष्ट्रप्रमुख हैं जिनके पास कोई मोबाइल फोन नहीं है. आमतौर पर वो लैंडलाइन फोन का इस्तेमाल करते हैं और चलते चलते बात करनी हो तो अपने किसी सहयोगी का फोन इस्तेमाल कर लेते हैं.