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क्या वीडियो गेम्स बढ़ाते है हिंसा?

१५ नवम्बर २०११

जर्मनी में इस बात पर बहस चल रही है कि क्या वीडियो गेम खेलने के कारण लोग हिंसक हो जाते हैं. कुछ वैज्ञानिक इसे सही करार देते हैं लेकिन कुछ इसे एक गलत धारणा मानते हैं.

तस्वीर: picture-alliance/dpa

2009 में जब जर्मनी में एक लड़के ने 16 लोगों की गोली मार कर हत्या कर दी और सबको मारने के बाद खुद को भी गोली मार ली. मीडिया में चली रिपोर्टों के अनुसार यह लड़का शूटिंग वाली वीडियो गेम्स का शौकीन था और कई घंटों तक टीवी की स्क्रीन के आगे लोगों पर गोलियां चलाने के कारण उसने असल जिंदगी में भी ऐसा किया.

समझना मुश्किल

जर्मनी की बॉन यूनिवर्सिटी के मनोविज्ञान के प्रोफेसर क्रिस्टियान मोनटाग का कहना है कि आम तौर पर लोगों की प्रतिक्रिया ऐसी ही होती है और यह पूरी तरह गलत नहीं है. डॉयचे वेले से बातचीत में प्रोफेसर मोनटाग ने कहा, "जब स्कूल में गोलीबारी होती है तब पूरा मीडिया बस यही कहने लगता है कि यह गेम्स का असर है. मैं कई गेमर्स से मिला हूं और उनके जरिए मुझे यह पता चला है कि गेमिंग का एक सामाजिक पहलू भी होता है. और मैं यह कह सकता हूं कि इसे समझना उतना आसान नहीं है जितना मीडिया को लगता है."

तस्वीर: picture-alliance/ dpa

जब प्रोफेसर मोनटाग ने देखा कि मीडिया फौरन लोगों की वीडियो गेम खेलने की आदत को उनके चरित्र से जोड़ने लगता है तो उन्होंने इसे समझने के लिए कुछ प्रशिक्षण किए. उनकी टीम ने गेम खेलने वालों का दिमाग स्कैन किया और उनके एमआरआई को गेम ना खेलने वाले लोगों के एमआरआई से मिला कर देखा. एमआरआई करते समय इन लोगों को अलग अलग तरह की तसवीरें दिखाई गई. इसमें समुद्र किनारे की सुन्दर तसवीरें भी थीं और घायल और मरे हुए लोगों की भी. साथ ही मशहूर वीडियो गेम काउंटर स्ट्राइक के स्क्रीनशॉट भी लोगों को दिखाए गए.

निष्ठुर बनाते हैं गेम्स

प्रोफेसर मोनटाग ने पाया कि जो लोग एक हफ्ते में 15 घंटे काउंटर स्ट्राइक या उस जैसे अन्य गेम्स खेलते हैं उनके दिमाग के अगले हिस्से में बायीं तरफ बहुत कम हरकत देखी गई. दिमाग का यह हिस्सा भावनाओं पर नियंत्रण रखता है. प्रोफेसर मोनटाग का कहना है कि इस से यह पता चलता है कि जो लोग हिंसा से भरपूर वीडियो गेम्स नहीं खेलते उनके लिए हिंसक तस्वीरों को देखना बहुत मुश्किल होता है, लेकिन ऐसे गेम्स खेलने वाले लोग निष्ठुर हो जाते हैं, उन्हें हिंसक चित्र देख कर कोई खास फर्क नहीं पड़ता.

तस्वीर: picture-alliance / dpa

हालांकि कई लोग प्रोफेसर मोनटाग की बात से इत्तेफाक नहीं रखते. इंग्लैंड की यूनिवर्सिटी ऑफ लीड्स में 'पॉलीटिक्स एंड वीडियो गेम्स' पढ़ाने वाले निक रॉबिन्सन को प्रोफेसर मोनटाग का प्रशिक्षण अधूरा लगता है, "टीवी पर हिंसक चित्र दिखा कर मेरी प्रतिक्रिया की जांच करना एक बात है, लेकिन यहां बात हो रही है कि मैं बटन दबा कर लोगों को मारने की ट्रेनिंग ले रहा हूं. इस पर तो यहां कोई चर्चा ही नहीं की गई."

तनाव से मुक्ति

रॉबिन्सन ने गेम खेलने वाले व्यक्ति के निष्ठुर होने की बात पर भी सवाल उठाया है, "हम जानते हैं कि पहले की तुलना में आज कई ज्यादा लोग वीडियो गेम खेल रहे हैं, लेकिन अगर उत्तरी अमेरिका में अपराध के आंकडें देखें तो पता चलता है कि हिंसक अपराध पहले की तुलना में कम हो रहे हैं. यह दोनों एक दूसरे के विपरीत हैं." डॉयचे वेले से बातचीत में रॉबिन्सन ने कहा कि इन आंकड़ों से तो ऐसा लगता है कि लोग अपराध करने की जगह अपना गुस्सा गेम पर उतार देते हैं.

तस्वीर: AP

एक कृत्रिम मार्स मिशन के दौरान देखा गया कि वीडियो गेम खेल कर लोगों ने अपना तनाव कम किया. इन लोगों को 17 महीने तक एक कमरे में बंद किया गया था जिसमें कोई खिडकियां नहीं थीं.

वहीं जर्मनी के गेम डेवेलपर्स एसोसिएशन की बिरगिट रोथ का कहना है कि इस दिशा में किसी भी तरह के अनुसंधान से लोगों की गेम्स के बारे में राय बदल नहीं जाएगी. रोथ का कहना है कि माता पिता की भी इसमें जिम्मेदारी है, "आपको अपने बच्चों को मीडिया के बारे में सिखाना होगा. आप अपने बेटे या बेटी को बताएं कि कौनसी गेम उनके लिए अच्छा है और कौन सा खेलने के लिए उन्हें अभी थोड़ा इंतेजार करना चाहिए."

रोथ की सलाह है कि इसके लिए सभी को मिल कर काम करना होगा, भले ही वह नेता हों, गेम बनाने वाली कंपनियां या माता पिता.

रिपोर्ट: स्टुअर्ट टिफन/ ईशा भाटिया

संपादन: आभा मोंढे

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