चुनावी जीत के बाद इस्राएली नेता नेतन्याहू के समर्थक उन्हें वेस्ट बैंक को मिलाने की योजना पर अमल करते देखना चाहते हैं. अमेरिका में ट्रंप के इस्राएल-समर्थक वोटर भी इससे खुश हो जाएंगे. फिर ईयू इसका कितना विरोध कर पाएगा.
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अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पोम्पेयो ने इस्राएल की स्थापना दिवस के मौके पर वहां जाकर प्रधानमंत्री बेन्यामिन नेतन्याहू से मुलाकात की और वेस्ट बैंक के कुछ हिस्सों को काट कर अलग करने की उनकी योजना पर चर्चा की. यह ऐसे माहौल में हुआ जब वेस्ट बैंक के इलाके में इस्राएली सेना के छापे के दौरान हिंसा की खबरें आई थीं.
नवंबर में अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप को चुनावों का सामना करना है जबकि इस्राएल में नेतन्याहू इसे पार कर अपना आधार मजबूत करने में कामयाब रहे हैं. इधर नेतन्याहू का राष्ट्रवादी खेमा वेस्ट बैंक के कब्जे की योजना को अमली जामा पहनाने के लिए बेकरार है ही, उधर इससे ट्रंप के इस्राएल-समर्थक वोटर भी खुश हो जाएंगे.
किसे है इस योजना पर आपत्ति
लेकिनअंतरराष्ट्रीय समुदाय में इस योजना की काफी आलोचना हुई है. उन फलस्तीनी लोगों की कमजोर पड़ती उम्मीदें इससे टूट जाएंगी जो इस्राएल के साथ साथ फलस्तीन को भी एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में स्थापित होते देखना चाहते हैं. सन 1967 में छह दिन चले मध्यपूर्व के युद्ध में इस्राएल ने इस इलाके पर कब्जा कर लिया था. फिलहाल यहां करीब 30 लाख फलस्तीनी और करीब 400 इस्राएली रहते हैं.
मध्यपूर्व में शांति की ट्रंप की योजना को फलस्तीन नकारता आया है और जॉर्डन के विदेश मंत्री आयमान सफादी ने हाल ही में कहा है कि यहूदी बस्तियों और मृत सागर के उत्तर वाले वेस्ट बैंक के इलाके को काट कर अलग करना "एक विनाशकारी कदम होगा." येरुशलम को इस्राएल की अविभाजित राजधानी बनाना और फलस्तीन के इलाके को आर्थिक सहायता मुहैया कराना इस योजना का हिस्सा है.
सबसे ज्यादा अमेरिकी मदद पाने वाले देश
दुनिया में अमेरिका की गिनती बेहद ही शक्ति संपन्न देशों में होती है. अमेरिका के संघीय बजट का कुछ हिस्सा अन्य देशों की मदद में जाता है. अमेरिकी सरकार के डाटा के मुताबिक 2018 में इन देशों को सबसे अधिक आर्थिक सहायता दी गई.
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10. इराक (34.79 करोड़ डॉलर)
अमेरिकी मदद पाने वाला इराक सबसे अहम देश है. पिछले 15 सालों से इराक में स्थायित्तव का संकट चल रहा है. सबसे पहले अमेरिका ने सद्दाम हुसैन के खिलाफ मोर्चा खोला था. लेकिन अब आईएस उसके लिए सिरदर्द बन चुका है. 2018 के दौरान अमेरिका ने इस क्षेत्र में 34.79 करोड़ डॉलर के सहायता देने की योजना बनाई थी.
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9. नाइजीरिया (41.91 करोड़ डॉलर)
नाइजीरिया में अमेरिकी मदद का मकसद देश को गरीबी से बाहर निकालना है. इसके साथ ही कोशिश स्थायी लोकतांत्रिक व्यवस्था स्थापित करने की भी है ताकि स्थानीय लोगों को काम में लगाया जा सके. हालांकि यह क्षेत्र कट्टरवादी आतंकवादी संगठन बोको हराम के हमलों से जूझ रहा है. 2018 में अमेरिका ने नाइजीरिया को 41.9 करोड़ डॉलर की आर्थिक सहायता दी.
जाम्बिया में अमेरिकी मदद का मुख्य उद्देश्य देश को गरीबी से निकालना है. यह मदद रहने के लिए मानवीय परिस्थितियों को बेहतर बनाने के लिए दी जा रही है. मदद का मकसद देश में टिकाऊ कृषि और एचआईवी, मलेरिया और टीबी जैसी जानलेवा बीमारियों को लेकर जागरूकता फैलाना है. इस मदद का मकसद भविष्य में अमेरिका के लिए एक अच्छा बाजार तैयार करना भी है. 2018 में मदद की सीमा 42.89 करोड़ डॉलर तय की गई.
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7. युगांडा
पूर्वी अफ्रीकी देश युगांडा में अमेरिका का जोर राष्ट्रीय सुरक्षा तंत्र को मजबूत करना है. 2018 में दी गई मदद का लक्ष्य देश में लोकतांत्रिक व्यवस्था को मजबूत करना, साथ ही गंभीर बीमारियों के खतरों को रोकना है. साल 2018 में अमेरिका ने 43.64 करोड़ डॉलर की आर्थिक सहायता का लक्ष्य रखा था.
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6. तंजानिया
तमाम कमियों के बीच तंजानिया एक स्थायी, बहुपक्षीय सरकारी प्रणाली के साथ-साथ एक तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था भी है. इसके बावजूद करीब एक चौथाई तंजानियाई लोग गरीबी रेखा से नीचे हैं.अमेरिकी मदद का उद्देश्य तंजानिया में लोगों को गरीबी से बाहर निकालना है. साथ ही देश को अमेरिका के एक अहम सहयोगी के रूप में स्थापित करना है. 2018 में तंजानिया को अमेरिका से 53.53 करोड़ डॉलर की आर्थिक मदद मिली.
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5. केन्या
तमाम लोकतांत्रिक सुधारों के बावजूद केन्या की राजनीतिक व्यवस्था अब भी भ्रष्टाचार और जातीय विवादों में उलझी हुई है. देश के किसान और कई नागरिक अब भी सूखाग्रस्त इलाकों में रहने को मजबूर हैं. केन्या को दी जाने वाली मदद का मकसद सूखा ग्रस्त इलाकों से लोगों को निकालना है. साथ ही जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से निपटना भी है. 2018 में केन्या को 63.94 करोड़ डॉलर की आर्थिक मदद दी गई.
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4. अफगानिस्तान
पिछले 18 सालों से अमेरिका की फौजें अफगानिस्तान में तैनात है. हालांकि अब अमेरिका के अंदर अफगानिस्तान से निकलने की छटपटाहट साफ नजर आती है. 2018 में अमेरिका ने अफगानिस्तान को 78.28 करोड़ डॉलर की आर्थिक मदद की. इस मदद का मकसद देश में आंतकवादी संगठन आईएस को जमीन तैयार करने से रोकना है. साथ ही लोकतांत्रिक व्यवस्था को स्थापित करने के साथ-साथ सुरक्षा व्यवस्था को मजबूत करना है.
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3. जॉर्डन
युद्धग्रस्त सीरिया के करीब स्थित जॉर्डन इस वक्त सबसे बड़े रिफ्यूजी संकट से जूझ रहा है. 2018 में एक अरब डॉलर की अमेरिकी मदद पाने वाले इस देश को अमेरिका से बड़ी भारी मदद मिलती है. आर्थिक मदद का मकसद सीरियाई रिफ्यूजियों से निपटने के साथ-साथ जॉर्डन में लोकतांत्रिक जवाबदेही तय करना भी है.
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2. मिस्र
मिस्र में अमेरिकी मदद का मकसद स्थानीय लोगों के लिए भोजन को सुनिश्चित करने के साथ-साथ देश में अच्छी शासन व्यवस्था लागू करना भी है. मिस्र पिछले लंबे वक्त से आतंकवाद और कट्टरवादी ताकतों से जूझता रहा है. मदद का उद्देश्य मिस्र और अमेरिका के बीच अच्छे आर्थिक संबंध स्थापित करना भी रहा है. सुरक्षा, स्वास्थ्य और शिक्षा के लिए अमेरिका भारी मदद करता है. 2018 में इसे 1.39 अरब डॉलर की मदद मिली.
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1. इस्राएल
पिछले कई दशकों से इस्राएल अमेरिकी मदद पाने वाला सबसे बड़ा देश रहा है. अमेरिका की ओर से दी जाने वाली मदद का मकसद क्षेत्रीय ताकतों के खिलाफ सुरक्षा व्यवस्था को मजबूत करना है. साल 2018 में अमेरिका की ओर से इस्राएस को 3.1 अरब डॉलर की मदद दी गई.
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पिछले महीने अरब लीग ने कहा था कि अमेरिका के समर्थन से इस्राएली कब्जे की योजना को अमली जामा पहनाना फलस्तीनी लोगों के खिलाफ "नए युद्ध अपराध" माने जाएंगे. यूरोपीय संघ और उसके सदस्य देश चेतावनी दे चुके हैं कि इस्राएल अपनी योजना को लेकर आगे बढ़ा तो उसके बुरे नतीजे होंगे.
कितना कड़ा विरोध जता सकता है यूरोपीयसंघ
दो-राष्ट्र वाले मॉडल के अहम समर्थकों में यूरोपीय संघ भी है. संयुक्त राष्ट्र और अरब लीग के साथ मिलकर ईयू वेस्ट बैंक को इस्राएल में मिलाने के कदम का विरोध कर रहा है. हालांकि अब तक ईयू की चेतावनियां इतनी सख्त और एकजुट नहीं रही हैं जिससे कब्जे का विरोध करने वाला खेमा मजबूत बने. ईयू के भीतर हंगरी जैसे भी कुछ सदस्य देश हैं जो इस्राएल को नाराज करने वाले हर कदम का विरोध करते हैं.
अगर अपनी योजना के अनुसार वाकई 1 जुलाई से इस्राएल वेस्ट बैंक के अधिग्रहण को लेकर आगे बढ़ता है तो उस स्थिति में यूरोपीय संघ के देशों और अंतरराष्ट्रीय समुदाय को भी उसके साथ अपने संबंधों को नए सिरे से तय करना होगा. इसके अलावा दो राष्ट्रों वाले ओस्लो समझौते को नकार कर आगे बढ़ने की इस्राएल को क्या कीमत चुकानी पड़ सकती है, इस पर भी यूरोपीय संघ के देश चर्चा कर रहे हैं.
फिलहाल ईयू के सामने जो ठोस विकल्प हैं उनमें से एक है, यूएन सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव2334 पर अमल करना - जिसके अंतर्गत इस्राएली बस्तियों के खिलाफ सख्ती से पेश आना और वहां से बन कर आने वाले उत्पादों के अलावा दूसरी इस्राएली चीजों पर प्रतिबंध भी लगाए जा सकते हैं. इसके अलावा सामाजिक सुरक्षा, टैक्स के कानून और कॉन्सुलर सेवाओं पर रोक लगाने जैसे कदम उठाए जा सकते हैं. ऐसे कई विकल्पों पर चर्चा करने के लिए यूरोपीय संघ के विदेश मंत्रियों का सम्मेलन हो रहा है जिससे संदेश जाएगा कि इस्राएल के इस कदम को लेकर उसे किस तरह के और कितने कड़े प्रतिबंधों का सामना करना पड़ सकता है.
पानी में अथाह मिनरल्स और नमक. जिसे तैरना न भी आता हो, उसे भी तैराने वाला मृत सागर धीरे धीरे मर रहा है.
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कहां है मृत सागर
जॉर्डन, इस्राएल और फलस्तीन के बीच मौजूद मृत सागर या डेड सी, दुनिया की सबसे बड़ी खारे पानी की झील है. वहां पानी में बहुत ही ज्यादा नमक है. नमक पानी को इतना सघन बना देता है कि मृत सागर में कोई भी आसानी से तैरने लगता है.
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धरती का निचला इलाका
मृत सागर धरती पर मौजूद सबसे निचला इलाका है. यह समुद्र तल से 423 मीटर नीचे हैं. तेज गर्मी और अथाह वाष्पीकरण की वजह से मृत सागर के पानी का खारापन 33.7 फीसदी रहता है. इसका पानी महासागरों की तुलना में 10 गुना ज्यादा खारा है.
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कैसे पड़ा नाम
बेहद खारेपन के चलते मृत सागर में पानी में रहने वाले आम जीव नहीं पनप पाते. इसके आसपास भी दूसरे जानवर और पौधे नहीं दिखाई पड़ते. इसी वजह से इसे मृत सागर कहा जाता है. हालांकि यहां के पानी बेहद नमकीन माहौल में कुछ विशेष किस्म के पौधे, मछलियां, फंगस और बैक्टीरियां मौजूद हैं.
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बेहद सेहतमंद
मृत सागर के पानी और वहां के माहौल में कई औषधीय गुण हैं. परागों की न्यूनतम संख्या, वायुमंडल के दबाव, हवा और पानी में घुले मिनरल्स और नमक के कारण वहां इंसान शरीर पर खास किस्म का प्रभाव पड़ता है. सांस और त्वचा संबंधी बीमारियों के लिए मृत सागर मशहूर है.
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मौत की तरफ बढ़ता सागर
मृत सागर के पानी का मुख्य जरिया जॉर्डन नदी है. पश्चिम एशिया की यह सबसे लंबी नदी है. जॉर्डन नदी सीरिया और लेबनान के बीच ने निकलती है और इस्राएल और पश्चिमी तट को जॉर्डन से अलग करते हुए बीच में बहती है. पानी के बंटवारे का विवाद भी मृत सागर पर भारी पड़ रहा है.
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धीमी धीमी मौत
हर साल मृत सागर एक मीटर सिकुड़ रहा है. कभी जॉर्डन नदी का 135 करो़ड़ घनमीटर पानी हर साल मृत सागर तक पहुंचता था. आज सिर्फ दो करोड़ क्यूबिकमीटर पानी ही मृत सागर की प्यास बुझाता है. इस्राएल और जॉर्डन के खनन का असर भी सागर पर पड़ रहा है.
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जगह जगह गड्ढे
सिकुड़ते सागर की वजह से जो जमीन बाहर निकल रही है, वो भी मुश्किलें खड़ी कर रही है. ऊपर रूखापन लेकिन गहराई में नमी होने के कारण वहां बड़े बड़े सिंकहोल बन रहे हैं.
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कैसा होगा भविष्य
विशेषज्ञों के मुताबिक मृत सागर निकट भविष्य में पूरा नहीं सूखेगा. आस पास की जलधाराओं से उसे थोड़ा बहुत पानी मिलता रहेगा. लेकिन उसके पानी का स्तर समुद्र तल से 417 की बजाए 700 मीटर नीचे चला जाएगा. तब वह सागर नहीं बल्कि एक छोटी सी झील जैसा लगेगा.
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खजाने को बचाने की कोशिश
मृत सागर जैसी नायाब प्राकृतिक धरोहर को बचाने के लिए दुनिया भर के पर्यावरण संरक्षक एकजुट हो रहे हैं. लेकिन इस्राएल और फलीस्तीन के झगड़े के चलते कोई ठोस नतीजा नहीं निकल पा रहा है.
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मृत सागर के सम्मान में
नवंबर 2016 में दुनिया भर के 25 तैराक मृत सागर में 17 किलोमीटर तैरकर जॉर्डन से इस्राएल पहुंचे. लगातार 7 घंटे तैरने वाले तैराक मृत सागर को बचाने के संदेश देकर पानी में उतरे.
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एक तिहाई को बचाने की जंग
इकोपीस की जॉर्डन रिवर प्रोजेक्ट मैनेजर मीरा एल्डेश्टाइन के मुताबिक आज मृत सागर सिकुड़कर एक तिहाई रह गया है.