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विस्तार से समझिए सरकार के मंडी सुधारों को 

चारु कार्तिकेय
१९ मई २०२०

एनडीए सरकार कृषि उत्पादों की बिक्री प्रक्रिया में निजी कंपनियों को ला कर राज्य सरकारों द्वारा चलाई जा रही मंडियों के एकाधिकार को समाप्त कर रही है. क्या वाकई इससे किसानों का भला होगा और व्यवस्था में सुधार होगा?

Indien Verbrennung von Ernterückständen
तस्वीर: DW/Catherine Davison

भारत में दशकों से कृषि उत्पाद बाजार समिति कानून यानी एपीएमसी एक्ट के तहत बनी मंडियों के द्वारा कृषि उत्पादों की बिक्री का विनियमन होता आया है. इस मॉडल में कई त्रुटियां भी हैं और इन्हें दूर करने के लिए कई तरह के सुधारों पर चर्चा बीते कई सालों से हो रही है. एनडीए सरकार ने अब फैसला लिया है कि बिक्री प्रक्रिया में निजी कंपनियों को ला कर राज्य सरकारों द्वारा चलाई जा रही इन मंडियों के एकाधिकार को समाप्त कर दिया जाए.

इसके लिए केंद्र सरकार ने नया कानून लाने की घोषणा की है. इस कानून में क्या होगा इसका अंदाजा कम से कम चार राज्य सरकारों द्वारा हाल ही में इस दिशा में उठाए गए कदमों को देख कर लगाया जा सकता है. बीजेपी शासित उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, कर्नाटक और गुजरात में अध्यादेश ला कर एपीएमसी एक्ट में संशोधन कर दिया गया है. उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में व्यापारियों को अनुमति दे दी गई है कि वो मंडियों की जगह सीधे किसानों के खेतों या घरों से कृषि उत्पाद खरीद सकते हैं.

गुजरात ने इस से भी आगे बढ़कर निजी क्षेत्र की कंपनियों को अपनी ही बाजार समितियां बनाने की अनुमति दे दी है जहां कृषि उत्पादों की खरीद बिक्री हो पाएगी. किसानों को अनुमति दे दी गई है कि वो चाहें तो गोदामों को ही मंडी बना सकते हैं और वहां अपने उत्पाद बेच सकते हैं. राज्य सरकार का कहना है कि इस अध्यादेश से सरकारी और निजी मंडियों के बीच प्रतिस्पर्धा होगी और किसानों को बेहतर दाम मिल सकेंगे.

तस्वीर: DW/S. Ghosh

क्या होती हैं मंडियां

कृषि उत्पादों की खरीद-बिक्री के विनियमन (रेगुलेशन) की शुरुआत भारत में अंग्रेजों के शासन काल में ही हो गई थी. धीरे धीरे अधिकतर राज्य इसे अपनाते चले गए और अपने कानून भी बना लिए. आज देश में सभी राज्य मिला कर लगभग 2500 एपीएमसी मंडियां हैं. इन पर राज्य सरकारों का नियंत्रण होता है. हर एक मंडी में उस जिले के किसान अपने उत्पाद ले कर आते हैं और मंडी द्वारा लाइसेंस प्राप्त एजेंटों के जरिए अपने उत्पादों को बेचते हैं. मंडियों में व्यापारियों से टैक्स वसूला जाता है और पैसा राज्य सरकार के राजस्व में जाता है.

जानकारों का एक लंबे समय से ये कहना रहा है कि इन मंडियों की स्थापना तो किसानों के भले के लिए ही की गई थी लेकिन धीरे धीरे इन पर व्यापारियों का कब्जा हो गया. व्यापारी आपस में मिलकर ऐसा दाम तय करते हैं जिस से उन्हें लाभ होता है और किसानों को नुकसान. लेकिन किसान के पास कोई और विकल्प नहीं होता इसीलिए वो मजबूरी में इन्हीं दामों पर अपने उत्पाद बेच कर नुकसान उठा कर घर चला जाता है. ये भी आरोप लगते हैं कि इन मंडियों में भारी भ्रष्ट्राचार होता है और व्यापारी मंडियों को देने वाले टैक्स की चोरी भी करते हैं.

क्या अब सुधार होगा?

इन नए अध्यादेशों और केंद्र सरकार के नए कानून के पीछे सरकारों का दावा है की इनसे अब कहीं का भी किसान किसी भी राज्य के किसी भी जिले में अपने उत्पाद बेच पाएगा. इससे कृषि व्यापार में पारदर्शिता आएगी, किसान को सही दाम मिलेगा और व्यापारी को भी लाभ होगा. लेकिन जानकारों को ऐसा होने की उम्मीद नजर नहीं आती. उनका कहना है कि एपीएमसी व्यवस्था में सुधार लाने की आवश्यकता तो जरूर थी, लेकिन इन कदमों से उन उद्देश्यों की प्राप्ति नहीं हो पाएगी जिनका दावा सरकारें कर रही हैं.

तस्वीर: Krishna Gaddam

कृषि विशेषज्ञ देवेंदर शर्मा का कहना है कि एपीएमसी व्यवस्था को कमजोर करने का मतलब है कि सरकारें किसान को न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) देने की बाध्यता से बचना चाह रही हैं. उन्होंने डीडब्ल्यू को बताया कि वैसे भी देश में सिर्फ छह प्रतिशत किसानों को एपीएमसी मंडियों के जरिए एमएसपी मिलता है और और 94 प्रतिशत किसान बाजार पर निर्भर हैं. उनका कहना है कि अगर सरकार को निजी मंडियां ही बनानी हैं तो इन इलाकों में क्यों नहीं बनाती जहां कोई भी मंडी है ही नहीं. वो कहते हैं कि कानून उन्हें ऐसा करने की इजाजत भी देता है लेकिन उन्होंने ऐसा कभी किया ही नहीं.

देवेंदर शर्मा ने बताया कि यही दलीलें दे कर 2006 में बिहार से एपीएमसी एक्ट हटा दिया गया था और आज उसका नतीजा यह है कि बिहार का किसान गैर कानूनी ढंग से पंजाब और हरियाणा की मंडियों में जा कर अपना उत्पाद बेचता है, क्योंकि उसे मालूम है कि मंडियों में ही उसे संतोषजनक मूल्य मिलेगा. कृषि सुधारों को लेकर अलग अलग जानकारों की अलग अलग राय है. लेकिन सरकारी समर्थन की जगह बाजार आधारित व्यवस्था की वकालत करने वाले विशेषज्ञ भी इन कदमों की आलोचना कर रहे हैं.

पारदर्शिता की जरूरत

अर्थशास्त्री आमिर उल्लाह खान कहते हैं कि एपीएमसी मंडियों की समस्या ही यही है कि उनपर निजी व्यापारियों का एक समूह कब्जा कर लेता है मनमाने ढंग से दाम तय करता है, ऐसे में आप मंडियों में और ज्यादा निजी हितों को ला कर किस तरह के सुधार की उम्मीद करते हैं? डीडब्ल्यू से बातचीत में उन्होंने कहा कि एपीएमसी व्यवस्था में सुधार लाने का मतलब था कि आप या तो ये प्रणाली बंद ही कर देते या इसमें और पारदर्शिता लाते और मंडियों को और जवाबदेह बनाते.

तस्वीर: Getty Images/AFP/S. Panthaky

आमिर उल्लाह खान का कहना है सुधार का मूल अजेंडा ही था कि आप लोगों को सीधा किसानों से कृषि उत्पाद खरीदने देंगे और इ-कॉमर्स से चलने वाली बड़ी मंडियां बनाएंगे जिनमें पारदर्शिता और प्रतिस्पर्धा होगी, लेकिन आपने वो किया ही नहीं. तमाम आलोचनाओं के बावजूद सरकार अपने एजेंडे पर आगे बढ़ रही है. राज्यों का उदाहरण सामने है. कुछ ही महीनों में इन नए अध्यादेशों का असर सामने आ जाएगा और तब ये बेहतर आकलन हो पाएगा कि मंडियों में निजी क्षेत्र के हितों को बढ़ाने से वाकई व्यवस्था में सुधार हुआ या नहीं.

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