फसल बीमा योजनाओं में केंद्र सरकार के योगदान में कटौती करने के निर्णय की कृषि विशेषज्ञ आलोचना कर रहे हैं.
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किसानों के लिए बीमा योजनाओं में केंद्र सरकार ने जो बदलाव किये हैं उन पर विवाद खड़ा हो गया है और किसानों का साथ छोड़ देने के लिए केंद्र सरकार की आलोचना हो रही है. 20 फरवरी को जब सरकार ने प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना (पीएमएफबीवाई) और पुनर्गठित मौसम आधारित फसल बीमा योजना (आरडब्ल्यूबीसीआईएस) में इन बदलावों की घोषणा की थी तो शुरू में इनका स्वागत किया गया था. लेकिन बारीकी से देखने के बाद कृषि अर्थव्यवस्था के विशेषज्ञों ने इन बदलावों पर निराशा जाहिर की है.
सरकार ने अपनी तरफ से सबसे ज्यादा जोर इस बात पर देना चाहा कि बीमा लेना अब अनिवार्य नहीं होगा. यानी किसानों को अनिवार्य रूप से बीमे के प्रीमियम के भुगतान का बोझ नहीं उठाना पड़ेगा. हालांकि नए नियमों के अनुसार इन योजनाओं के तहत केंद्रीय सब्सिडी की सीमा बिना सिंचाई वाली फसलों के लिए 30 प्रतिशत और सिंचाई वाली फसलों के लिए 25 प्रतिशत पर तय कर दी है.
इसका सीधा मतलब है कि बीमा योजना में केंद्र सरकार के सहयोग को भारी मात्रा में कम कर दिया गया है. दरअसल मौजूदा व्यवस्था यह है कि इन दोनों योजनाओं के तहत किसानों को खरीफ की फसलों के लिए दो प्रतिशत प्रीमियम, रबी की फसलों के लिए डेढ़ प्रतिशत प्रीमियम और बागवानी की फसलों के लिए पांच प्रतिशत प्रीमियम खुद भरना पड़ता है. इसके बाद जो अंतर बचता है उसका भुगतान राज्य सरकारें और केंद्र सरकार आधा आधा करते हैं. राज्य सरकारों को छूट है कि वो चाहें तो अपनी तरफ से अतिरिक्त सब्सिडी भी दे सकती हैं.
अभी तक केंद्रीय सब्सिडी की कोई सीमा नहीं थी लेकिन नए निर्देशों के बाद इसकी सीमा 25 प्रतिशत और 30 प्रतिशत तय कर दी गई है.
इस से राज्यों पर सब्सिडी का भार बढ़ जाएगा. विपक्ष और विशेषज्ञों ने इन बदलावों की कड़ी आलोचना की है. कृषि विशेषज्ञ देविंदर शर्मा कहते हैं कि क्या इस नए निर्णय का मतलब यह है कि केंद्र सरकार बीमा योजना से अपना हाथ खींच रही है?
सामाजिक कार्यकर्ता रमनदीप सिंह मान का कहना है कि अगर बीमा कंपनियों ने प्रीमियम रेट केंद्र की सीमा से ऊपर तय कर दिए, तो केंद्र वास्तव में अपना हाथ खींच लेगा.
पूर्व वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने इन बदलावों पर सरकार को आड़े हाथों लिया और कहा कि इस से ज्यादा बड़ा किसान-विरोधी कदम नहीं हो सकता. चिदंबरम ने ट्वीट किया कि नए नियमों की वजह से फसलों का बीमा कवरेज ही गिर जाएगा और किसानों के लिए जोखिम बढ़ जाएगा.
देखना होगा कि किसान इन बदलावों को स्वीकार करते हैं या नहीं. किसान पहले से ही बुरे हाल में है. टाइम्स ऑफ इंडिया अखबार ने महाराष्ट्र सरकार के राजस्व विभाग के आंकड़ों का विश्लेषण कर कहा था कि अकेले महाराष्ट्र में नवंबर 2019 में एक महीने में 300 किसानों ने आत्महत्या कर ली थी. प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना को पहले भी बहुत कारगर नहीं माना जा रहा था. पर उसमें किये गए ये बदलाव कहीं उसे बिल्कुल बेकार ना कर दें.
भारत की पहचान एक कृषि प्रधान देश के रूप में रही है लेकिन देश के बहुत से किसान बेहाल हैं. इसी के चलते पिछले कुछ समय में देश में कई बार किसान आंदोलनों ने जोर पकड़ा है. एक नजर किसानों की मूल समस्याओं पर.
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भूमि पर अधिकार
देश में कृषि भूमि के मालिकाना हक को लेकर विवाद सबसे बड़ा है. असमान भूमि वितरण के खिलाफ किसान कई बार आवाज उठाते रहे हैं. जमीनों का एक बड़ा हिस्सा बड़े किसानों, महाजनों और साहूकारों के पास है जिस पर छोटे किसान काम करते हैं. ऐसे में अगर फसल अच्छी नहीं होती तो छोटे किसान कर्ज में डूब जाते हैं.
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फसल पर सही मूल्य
किसानों की एक बड़ी समस्या यह भी है कि उन्हें फसल पर सही मूल्य नहीं मिलता. वहीं किसानों को अपना माल बेचने के तमाम कागजी कार्यवाही भी पूरी करनी पड़ती है. मसलन कोई किसान सरकारी केंद्र पर किसी उत्पाद को बेचना चाहे तो उसे गांव के अधिकारी से एक कागज चाहिए होगा.ऐसे में कई बार कम पढ़े-लिखे किसान औने-पौने दामों पर अपना माल बेचने के लिए मजबूर हो जाते हैं.
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अच्छे बीज
अच्छी फसल के लिए अच्छे बीजों का होना बेहद जरूरी है. लेकिन सही वितरण तंत्र न होने के चलते छोटे किसानों की पहुंच में ये महंगे और अच्छे बीज नहीं होते हैं. इसके चलते इन्हें कोई लाभ नहीं मिलता और फसल की गुणवत्ता प्रभावित होती है.
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सिंचाई व्यवस्था
भारत में मॉनसून की सटीक भविष्यवाणी नहीं की जा सकती. इसके बावजूद देश के तमाम हिस्सों में सिंचाई व्यवस्था की उन्नत तकनीकों का प्रसार नहीं हो सका है. उदाहरण के लिए पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के क्षेत्र में सिंचाई के अच्छे इंतजाम है लेकिन देश का एक बड़ा हिस्सा ऐसा भी है जहां कृषि, मॉनसून पर निर्भर है. इसके इतर भूमिगत जल के गिरते स्तर ने भी लोगों की समस्याओं में इजाफा किया है.
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मिट्टी का क्षरण
तमाम मानवीय कारणों से इतर कुछ प्राकृतिक कारण भी किसानों और कृषि क्षेत्र की परेशानी को बढ़ा देते हैं. दरअसल उपजाऊ जमीन के बड़े इलाकों पर हवा और पानी के चलते मिट्टी का क्षरण होता है. इसके चलते मिट्टी अपनी मूल क्षमता को खो देती है और इसका असर फसल पर पड़ता है.
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मशीनीकरण का अभाव
कृषि क्षेत्र में अब मशीनों का प्रयोग होने लगा है लेकिन अब भी कुछ इलाके ऐसे हैं जहां एक बड़ा काम अब भी किसान स्वयं करते हैं. वे कृषि में पारंपरिक तरीकों का इस्तेमाल करते हैं. खासकर ऐसे मामले छोटे और सीमांत किसानों के साथ अधिक देखने को मिलते हैं. इसका असर भी कृषि उत्पादों की गुणवत्ता और लागत पर साफ नजर आता है.
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भंडारण सुविधाओं का अभाव
भारत के ग्रामीण इलाकों में अच्छे भंडारण की सुविधाओं की कमी है. ऐसे में किसानों पर जल्द से जल्द फसल का सौदा करने का दबाव होता है और कई बार किसान औने-पौने दामों में फसल का सौदा कर लेते हैं. भंडारण सुविधाओं को लेकर न्यायालय ने भी कई बार केंद्र और राज्य सरकारों को फटकार भी लगाई है लेकिन जमीनी हालात अब तक बहुत नहीं बदले हैं.
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परिवहन भी एक बाधा
भारतीय कृषि की तरक्की में एक बड़ी बाधा अच्छी परिवहन व्यवस्था की कमी भी है. आज भी देश के कई गांव और केंद्र ऐसे हैं जो बाजारों और शहरों से नहीं जुड़े हैं. वहीं कुछ सड़कों पर मौसम का भी खासा प्रभाव पड़ता है. ऐसे में, किसान स्थानीय बाजारों में ही कम मूल्य पर सामान बेच देते हैं. कृषि क्षेत्र को इस समस्या से उबारने के लिए बड़ी धनराशि के साथ-साथ मजबूत राजनीतिक प्रतिबद्धता भी चाहिए.
तस्वीर: DW/P. Mani Tewari
पूंजी की कमी
सभी क्षेत्रों की तरह कृषि को भी पनपने के लिए पूंजी की आवश्यकता है. तकनीकी विस्तार ने पूंजी की इस आवश्यकता को और बढ़ा दिया है. लेकिन इस क्षेत्र में पूंजी की कमी बनी हुई है. छोटे किसान महाजनों, व्यापारियों से ऊंची दरों पर कर्ज लेते हैं. लेकिन पिछले कुछ सालों में किसानों ने बैंकों से भी कर्ज लेना शुरू किया है. लेेकिन हालात बहुत नहीं बदले हैं.