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क्या से क्या कर गए प्रणब

२३ जून २०१२

प्रणब मुखर्जी रविवार को वित्त मंत्री के पद से इस्तीफा देंगे. वह राष्ट्रपति चुनाव लड़ रहे हैं. कांग्रेस के कद्दावर नेता प्रणब सक्रिय राजनीति में होनहार विदेश मंत्री और विफल वित्त मंत्री के रूप में याद रहेंगे.

तस्वीर: REUTERS

प्रणब मुखर्जी ने 2009 में वित्त मंत्रालय को ऐसे वक्त में संभाला जब भारत का तेज आर्थिक विकास धीमा पड़ने लगा था. विकास दर करीब सात फीसदी पर आ गई. महंगाई भी आसमान छू रही थी. वित्त मंत्री बने कांग्रेस के वरिष्ठ नेता ने पद संभालते ही कहा कि वह विकास दर को तेज बनाए रखेंगे. लेकिन अब जब तीन साल बाद प्रणब इस्तीफा दे रहे हैं, भारतीय अर्थव्यवस्था का बुरा हाल सबके सामने हैं.

प्रणब ने वित्त मंत्री के तौर पर हमेशा यही कहा कि सरकार महंगाई को काबू में कर लेगी. जब जब अर्थव्यवस्था के धीमे पड़ने की बात सामने आई, तो उन्होंने कभी मॉनसून को, कभी कच्चे तेल को और अक्सर वैश्विक संकट को जिम्मेदार ठहराया. घटनाक्रम इस बात का गवाह है कि बीते दो साल में रिजर्व बैंक ने 20 से ज्यादा बार मौद्रिक नीति में बदलाव किया. प्रणब के कार्यकाल में हमेशा ऐसा लगा जैसे अर्थव्यवस्था को चलाने की जिम्मेदारी सिर्फ भारतीय रिजर्व बैंक की है.

हर तीन या चार महीने बाद प्रणब कहते रहे कि अगले चार-छह महीनों में महंगाई काबू में आ जाएगी. इस बीच भारत का रुपया आए दिन रिकॉर्ड स्तर पर गिरता चला गया. इसकी वजह से आयात बहुत महंगा हो गया. छोटे मझोले उद्योगों की हालत खराब हो गई. लेकिन प्रणब इससे निपट नहीं सके.

तस्वीर: AP

अब इस्तीफे से ठीक पहले वित्त मंत्री के तौर पर प्रणब मुखर्जी मान रहे हैं कि भारतीय अर्थव्यवस्था की हालत नाजुक है. शुक्रवार को कोलकाता में उन्होंने कहा, "हम सोमवार को कुछ कदमों की घोषणा करेंगे जिससे बाजार के हालात बेहतर हो सकें. सकल घरेलू उत्पाद 6.5 प्रतिशत पर है. महंगाई का दबाव है और रुपये की कीमत भी गिर रही है. इसमें कोई शक नहीं कि यह भारत की अर्थव्यवस्था में कमजोरी के संकेत हैं. जब पूरी दुनिया में उथल पुथल हो रही है तो भारत इससे बचा नहीं रह सकता."

कार्यकाल के आखिरी दूसरे दिन प्रणब ने बताया कि भारतीय वित्त बाजारों में विदेशी कंपनियों का निवेश बढ़ा है. इस साल भारतीय कंपनियों में विदेशी निवेश 46-48 अरब डॉलर के आसपास रहा. उन्होंने यह नहीं बताया कि बीते एक साल में भारत में कुल विदेशी निवेश करीब 41 फीसदी गिरा है.

राजनीति की बिसात पर प्रणब मुखर्जी भले ही कांग्रेस के दिग्गज नेता हों, लेकिन वित्त मंत्री के तौर पर वह औसत दर्जे से भी बहुत नीचे रहे. वित्त मंत्रालय में प्रणब के कार्यकाल के दौरान काले धन का मुद्दा आया. तीन साल में प्रणब विदेशों में काला धन रखने वालों पर सख्त कार्रवाई तक नहीं कर सके. वह देश को काला धन रखने वालों के नाम तक नहीं बता सके. सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में तक इसका विरोध किया.

77 साल का यह वरिष्ठ नेता भ्रष्टाचार के मुद्दे पर भी देश को संतोषजनक जवाब नहीं दे सका. भ्रष्टाचार वित्त से जुड़ा मुद्दा है. प्रणब बजट में इससे निपटने के कदम उठा सकते थे. इसमें कोई शक नहीं कि गठबंधन की राजनीति की अपनी मजबूरियां होती हैं. लेकिन यह बात भी सच है कि प्रणब ने तीन साल के कार्यकाल में कभी यह नहीं बताया कि भारतीय अर्थव्यवस्था खतरे से जूझ रही है. एक तरह से वह गुमराह करने वाली लकीरें खींचते रहे.

कॉरपोरेट जगत प्रणब का जाने को अच्छे संकेत के रूप में देख रहा है. जून की शुरुआत में इस तरह की खबरें आईं कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह प्रणब मुखर्जी के काम काज से खुश नहीं हैं. कयास लगाए जा रहे हैं कि अब मनमोहन खुद कुछ दिनों तक वित्त मंत्रालय की कमान संभालेंगे. फिक्की और सीआईआई जैसे संगठन चाहते हैं कि सरकार ठोस नीतियां बनाए और लागू करे.

कई अंतरराष्ट्रीय संस्थान बीते दो साल में भारत की रेटिंग गिरा चुके हैं. कॉरपोरेट जगत का मानना है कि भ्रष्टाचार और मंहगाई के मुद्दों के साथ सरकारी नीतियों के अभाव में भारत से निवेशकों का भरोसा उठता जा रहा है. कई विदेशी कंपनियां सरकारी फैसलों के अभाव में इंतजार की मुद्रा में हैं. कुछ कंपनियों का सब्र टूट रहा है.

राजनीति के पंडितों को इसमें कोई शक नहीं है कि प्रणब एक कुशल नेता हैं. 2006 से 2009 तक विदेश मंत्री के तौर पर प्रणब ने बढ़िया काम किया. भारत-अमेरिका परमाणु करार को तमाम मुश्किलों से निकाल कर पटरी पर लाने में उनकी बड़ी भूमिका रही. उन्होंने पश्चिमी देशों के साथ भारत के रिश्तों के नई ऊंचाई दी. 2008 में मुंबई पर हुए आतंकवादी हमलों के बाद प्रणब ने भारत में ऊपजे जनाक्रोश को बखूबी संभाला. भारतीय जनता उस वक्त सरकार पर पाकिस्तान के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करने का दबाव बना रही थी. प्रणब ने ऐसा नहीं होने दिया और पश्चिमी देशों को साथ लेकर इस्लामाबाद को कस भी दिया. 2004 से 2006 तक रक्षा मंत्री रहते हुए भी पश्चिम बंगाल के इस वरिष्ठ नेता ने संयम दिखाया.

यूपीए गठबंधन को यहां तक लाने में उनकी बड़ी भूमिका रही. शायद इसी वजह से उन्हें अब सम्मानजनक तरीके से सक्रिय राजनीति से विदा करने की कोशिश की जा रही है. 1969 में सक्रिय राजनीति में आने वाले प्रणब में सबको साथ लेकर चलने की कला है. कहा जा सकता है कि बतौर राष्ट्रपति सभी पार्टियों को साथ लाने में प्रणब का यह हुनर काम आ सकता है. लेकिन इससे पहले उन्हें चुनाव की अग्नि परीक्षा देनी होगी.

रिपोर्ट: ओंकार सिंह जनौटी

संपादन: मानसी गोपालकृष्णन

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