सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि घर के काम करने वालों की कल्पित आय का हिसाब लगाना आवश्यक है. कोर्ट ने इस बात पर भी जोर दिया है कि इसके लिए श्रम के साथ साथ घर संभालने वाले ने क्या क्या त्याग किया उसका भी हिसाब लगाना चाहिए.
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अदालत ने यह टिप्पणी बीमा विवाद के एक मामले में सुनवाई के दौरान की. जस्टिस एनवी रमना, जस्टिस एस अब्दुल नजीर और जस्टिस सूर्य कांत की तीन जजों वाली पीठ के फैसले में जस्टिस रमना ने कहा, "घर संभालने वाले लोगों को जितना काम करना पड़ता है उसके लिए वो जिस मात्रा में समय और श्रम का योगदान करते हैं वो कोई आश्चर्य की बात नहीं है."
यह स्पष्ट करते हुए कि घर संभालने का काम अधिकतर महिलाएं ही करती हैं, जस्टिस रमना ने गिनवाया कि एक गृहिणी अक्सर पूरे परिवार के लिए खाना बनाती है, परचून के सामान और घर की जरूरत के दूसरे सामान की खरीद का प्रबंधन करती है, घर की सफाई करती है और उसका रखरखाव करती है, सजावट और मरम्मत भी करती है, बच्चों और बुजुर्गों की विशेष जरूरतों का ध्यान रखती है, बजट प्रबंधन करती है और इसके अलावा और भी बहुत कुछ करती है.
आगे उन्होंने यह भी कहा कि घर के काम करने वालों की कल्पित आय तय करना इसलिए जरूरी है क्योंकि इससे उन महिलाओं के योगदान को पहचान मिलेगी जो बड़ी संख्या में या तो अपनी मर्जी से या सामाजिक/सांस्कृतिक मानकों की वजह से ये काम करती हैं. जस्टिस रमना ने यह भी कहा कि इससे समाज में भी एक संदेश जाता है कि देश की अदालतें और कानून व्यवस्था घर का काम करने वालों के श्रम, उनकी सेवाएं और उनके त्याग के मूल्य में विश्वास रखते हैं.
मामला 2014 में हुए एक हादसे का था जिसमें एक व्यक्ति और उसकी पत्नी की मौत हो गई थी. पति एक शिक्षक था जबकि उनकी पत्नी गृहिणी थी और दोनों के दो बच्चे हैं. जिस बीमा कंपनी से उन्होंने बीमा करवाया था उसे एक ट्रिब्यूनल ने बीमे के एवज में उनके बच्चों को 40.71 लाख रुपये देने का आदेश दिया था, लेकिन कंपनी ने इस आदेश को दिल्ली हाई कोर्ट में चुनौती दे दी थी.
हाई कोर्ट ने बीमे की रकम को घटा कर 22 लाख कर दिया था, लेकिन अंत में सुप्रीम कोर्ट ने कंपनी को आदेश दिया कि वो मृतकों के परिवार को 33.20 लाख रुपए दे और 2014 से नौ प्रतिशत ब्याज दर पर ब्याज भी दे. हर्जाने की इस रकम के आकलन में मृत महिला की बतौर गृहिणी कल्पित आय का सही हिसाब लगाने की एक बड़ी भूमिका थी. तीन जजों की पीठ ने अपने फैसले में यह भी लिखा कि कल्पित आय तय करने में हर मामले को अलग से देखा जाना चाहिए.
घर संभालने वालों की कल्पित आय पर सुप्रीम कोर्ट और देश की दूसरी अदालतें भी इससे पहले भी महत्वपूर्ण आदर्श दे चुकी हैं. दिसंबर 2020 में महाराष्ट्र में एक मोटर एक्सीडेंट्स क्लेम ट्रिब्यूनल ने सड़क हादसे में मारी गई एक महिला के परिवार को 17 लाख रुपये दिए जाने का आदेश दिया था. तब ट्रिब्यूनल ने उस महिला की कल्पित आय 7,000 रुपये प्रति माह तय की थी.
सुप्रीम कोर्ट की ताजा टिप्पणी का महिलाओं के अधिकारों के लिए लड़ने वाली एक्टिविस्टों ने स्वागत किया है. उन्होंने उम्मीद जताई है कि इससे महिलाओं के योगदान का समाज में और सही आकलन होगा और उन्हें और सम्मान और उनके अधिकार मिलेंगे.
भारत में लोग समय कैसे बिताते हैं इस विषय पर सरकार ने पहली बार एक सर्वेक्षण कराया है. सर्वे में यह साबित हो गया है कि शहर हो या गांव, महिलाएं आज भी हर जगह चारदीवारी के अंदर ही सीमित हैं.
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कैसे बिताते हैं समय
सर्वेक्षण जनवरी से दिसंबर 2019 तक 5,947 गांवों और 3,998 शहरी इलाकों में कराया गया. इसमें 1,38,799 परिवारों ने भाग लिया, जिनमें छह साल से ज्यादा उम्र के 4,47,250 लोगों से सवाल पूछे गए.
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अपना ख्याल रखने में बिताते हैं ज्यादा वक्त
दिन के 24 घंटों में पुरुष और महिलाएं दोनों सबसे ज्यादा समय अपना ख्याल रखने में बिताते हैं. पुरुष उसके बाद सबसे ज्यादा वक्त रोजगार और उससे जुड़ी गतिविधियों में बिताते हैं और महिलाएं उसके बाद सबसे ज्यादा वक्त बिना किसी वेतन के घर के काम करने में बिताती हैं.
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रोजगार में महिलाओं की भागीदारी कम
सर्वे में पूरे देश में सिर्फ 38.2 प्रतिशत लोगों को रोजगार में व्यस्त पाया गया. ग्रामीण इलाकों में यह दर 37.9 प्रतिशत है, जिसमें से पुरुषों की भागीदारी 56.1 प्रतिशत है और महिलाओं की 19.2 प्रतिशत. शहरी इलाकों में दर 38.9 प्रतिशत है, जिसमें पुरुषों की भागीदारी 59.8 प्रतिशत है और महिलाओं की भागीदारी 16.7 प्रतिशत है.
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उत्पादन में महिलाएं आगे
अपने इस्तेमाल के लिए सामान के उत्पादन में देश में सिर्फ 17.1 प्रतिशत लोग लगे हुए हैं. ग्रामीण इलाकों में यह दर 22 प्रतिशत है, जिसमें से पुरुषों की भागीदारी 19.1 प्रतिशत है और महिलाओं की 25 प्रतिशत. शहरी इलाकों में दर सिर्फ 5.8 प्रतिशत है, जिसमें पुरुषों की भागीदारी 3.4 प्रतिशत है और महिलाओं की भागीदारी 8.3 प्रतिशत है.
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घर के काम करने में पुरुष बहुत पीछे
बिना किसी वेतन के घर के काम करने में ग्रामीण इलाकों में पुरुषों की भागीदारी सिर्फ 27.7 प्रतिशत है और महिलाओं की 82.1 प्रतिशत. शहरों में पुरुषों की भागीदारी है 22.6 प्रतिशत और महिलाओं की 79.2 प्रतिशत. ग्रामीण इलाकों में पुरुषों ने इन कामों में औसत एक घंटा 38 मिनट बिताए जब कि महिलाओं ने पांच घंटे एक मिनट. शहरी इलाकों में पुरुषों ने एक घंटा और 34 मिनट दिए जबकि महिलाओं ने चार घंटों से ज्यादा समय दिया.
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दूसरों की देख-भाल भी ज्यादा करती हैं महिलाएं
बिना किसी वेतन के दूसरों की देख-भाल करने में भी महिलाएं पुरुषों से कहीं ज्यादा आगे हैं. ग्रामीण इलाकों में यह सिर्फ 14.4 प्रतिशत पुरुष करते हैं जबकि महिलाओं का प्रतिशत 28.2 है. शहरी इलाकों में इसमें पुरुषों की भागीदारी 13.2 प्रतिशत है और महिलाओं की 26.3 प्रतिशत.
तस्वीर: Catherine Davison
पूजा-पाठ और लोगों से मिलने पर विशेष ध्यान
91.3 प्रतिशत भारतीय पूजा-पाठ, लोगों से मिलने और सामुदायिक गतिविधियों में शामिल होते हैं. इसमें ग्रामीण और शहरी दोनों ही इलाकों में 90 प्रतिशत से ज्यादा महिलाओं और पुरुषों दोनों की भागीदारी है. ग्रामीण इलाकों में इन पर पुरुष एक दिन में औसत दो घंटे और 31 मिनट और महिलाएं दो घंटे और 19 मिनट बिताती हैं. शहरी इलाकों में महिलाएं और पुरुष दोनों ही इन पर एक दिन में औसत दो घंटे और 18 मिनट बिताते हैं.