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क्या 5जी आने से मौसम की भविष्यवाणी पर होगा असर

फाबियान श्मिट
१४ फ़रवरी २०२०

हाल में जब सबीने तूफान आया तो उसकी सटीक भविष्यवाणी समय रहते आ गई थी. मौसमविज्ञानियों को डर है कि 5जी आने के बाद उनको मुश्किल हो सकती है. टेलिफोन सिस्टम की फ्रीक्वेंसी मौसम की जानकारी देने वाले उपग्रहों को बाधा डालती है.

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तस्वीर: AFP/Rammb/Noaa/Ho

मौसम की भविष्यवाणी आजकल इतनी सटीक हो गई है, जितनी पहले कभी नहीं थी. इसकी वजह धरती पर नजर रखने वाले सैटेलाइट हैं जो पूरी दुनिया में मौसम के लिए जरूरी सूचनाएं इकट्ठा करते रहते हैं. उसके बाद ये सूचनाएं मौसम की भविष्यवाणी करने वाले कंप्यूटरों में पहुंचती हैं.

जिन सूचनाओं के आधार पर आने वाले मौसम का पता चलता है उनमें से एक वातावरण में भाप की मात्रा है. ये अदृश्य पानी है जो भाप बनकर गैस के रूप में वातावरण में मौजूद रहता है. ये ठंडा होने पर पहले बादल बनता है और फिर वर्षा का कारण बनता है.

यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी और अमेरिकी नासा के उपग्रह इसे मापते रहते हैं. भारत सहित दूसरे देशों ने भी मौसम की जानकारी हासिल करने के लिए अपने उपग्रह अंतरिक्ष में भेजे हैं. मौसमविज्ञानियों के लिए सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि वे भाप को देखने लायक बना सकें. यदि उन्हें उसकी मात्रा का पता है तो ठीक ठीक भविष्यवाणी कर सकते हैं कि कब और कहां तूफान या चक्रवात आने वाला है.

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यदि उन्हें भाप की मात्रा का ठीक से पता नहीं चलता है तो भविष्यवाणी की जगह 100 किलोमीटर दूर तक हो सकती है. चेतावनी का अनुमानित समय भी गलत हो सकता है जिसकी वजह से लोगों का जीवन खतरे में पड़ सकता है. 

वातावरण में वाष्प की मात्रा

वातावरण में मौजूद वाष्प की माप मौसम वाले सैटेलाइट सेंसर की मदद से करते हैं. इसकी जरूरी सूचनाएं अत्यंत कमजोर माइक्रोवेव सिग्नल के जरिए 23.4 से 24 गीगाहैर्त्स की फ्रीक्वेंसी पर भेजी जाती है.

बॉन यूनिवर्सिटी में मौसम विज्ञान के प्रोफेसर क्लेमेंस जिम्मर कहते हैं, "वाष्प के चक्कर काटने की गति में छोटे से छोटे बदलाव के कारण तरंगें पैदा होती है. इसका केंद्र 22.235 गीगाहैर्त्स पर होता है. ये उत्सर्जन चूल्हे से निकलने वाली गर्मी के उत्सर्जन से अलग नहीं है. लेकिन हम इसे सेंटीमीटर के पैमाने पर नापते हैं."

इसमें समस्या ये है कि अंतरराष्ट्रीय कम्युनिकेशन यूनियन आईटीयू ने तय किया है कि 5जी नेटवर्क 24.25 से 27.5 गीगाहैर्त्स की फ्रीक्वेंसी पर सिग्नल भेजेगा. इसके साथ मोबाइल फोन नेटवर्क की फ्रीक्वेंसी और मौसम की भविष्यवाणी के लिए जरूरी सिग्नल की फ्रीक्वेंसी में सिर्फ 0.25 गीगाहैर्त्स का अंतर रह जाएगा.

प्रो. जिम्मर कहते हैं कि 5जी मौमसविज्ञानियों की परेशानियां बढ़ाएगातस्वीर: Rheinische Friedrich-Wilhelms Universität Bonn

इसकी वजह से तय है कि मोबाइल फोन के एंटीना और फोन मौसमविज्ञानियों के काम में बाधा डालेंगे. इसलिए भी कि वाष्प का सिग्नल बहुत कमजोर होता है. जिम्मर बताते हैं, "वाष्प के मॉलेक्यूल में तापमान का बहुत कम परिवर्तन होता है, इसलिए भी यह मुश्किल है कि थोड़ी सी भी बाधा सिग्मल को अस्त व्यस्त कर देती है."

अभी भी मौसमविज्ञानी महसूस कर रहे हैं कि दूसरे सिग्नल उनके इलाके में घुस रहे हैं. मसलन 1.4 गीगाहैर्त्स पर यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी का एक उपग्रह जमीन की नमी और समुद्र की ऊपरी सतह पर खारेपन को मापता है. प्रो. जिम्मर कहते हैं, "जमीन जितनी नम होगी उतनी ही कम ऊर्जा परावर्तित करेगी. इसे मापा जा सकता है और इसका इस्तेमाल भी मौसम की भविष्यवाणी के लिए होता है."

पर्यावरण की निगरानी पर असर

मौसम वाले उपग्रहों के काम में बाधा को कम करने के लिए विश्व मौसमविज्ञान संगठन को ट्रांसमीटर की क्षमता को कम करने की सलाह दी गई है. इस तरह ट्रांसमीटर टॉवर पड़ोस की फीक्वेंसी में अधिकतम -55 डेसीबेल वाट तक ट्रांसमिट कर सकता है. यह 10 माइक्रोवाट की ट्रांसमिटिंग क्षमता के बराबर है. लेकिन मौसमविज्ञानियों की सलाह को ठुकरा दिया गया. उन्होंने उसकी सीमा 33 डेसीबेल वॉट तय की जो 1 मिलिवॉट ट्रांसमिटिंग क्षमता के बराबर है. यह सीमा 2027 से लागू होगी.

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प्रो. जिम्मर को डर है कि तब तक मौसमविज्ञानियों के लिए बहुत देर हो जाएगी. खासकर 5जी को लागू किए जाने के समय में चिंता इस बात की है कि बाजार सस्ते और ठीक से ट्रांमिट न करने वाले टेलिफोन से पट सकता है.

यदि मौसमविज्ञानियों की वाष्प वाली जानकारी खो जाती है तो पर्यावरण के बारे में हो रहे शोध पर भी उसका असर होगा. प्रो. जिम्मर का कहना है 1980 से सैटेलाइट इस फ्रीक्वेंसी पर काम कर रहे हैं और ऐसा नहीं रहने पर पर्यावरण मोनिटरिंग पर उसका असर होगा. तीस चालीस साल से इस फ्रीक्वेंसी का इस्तेमाल मौसम पर नजर रखने के लिए किया जा रहा है.

यदि 5 जी को लागू करने की प्रक्रिया में मौसमविज्ञानी हार जाते हैं तो भविष्य ऊंची फ्रीक्वेंसियां भी दाव पर होंगी. लेकिन राष्ट्रीय मौसम विभागों के साथ विश्व मौसमविज्ञान संगठन अभी अपने प्रयासों में लगा है.

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