हाल में जब सबीने तूफान आया तो उसकी सटीक भविष्यवाणी समय रहते आ गई थी. मौसमविज्ञानियों को डर है कि 5जी आने के बाद उनको मुश्किल हो सकती है. टेलिफोन सिस्टम की फ्रीक्वेंसी मौसम की जानकारी देने वाले उपग्रहों को बाधा डालती है.
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मौसम की भविष्यवाणी आजकल इतनी सटीक हो गई है, जितनी पहले कभी नहीं थी. इसकी वजह धरती पर नजर रखने वाले सैटेलाइट हैं जो पूरी दुनिया में मौसम के लिए जरूरी सूचनाएं इकट्ठा करते रहते हैं. उसके बाद ये सूचनाएं मौसम की भविष्यवाणी करने वाले कंप्यूटरों में पहुंचती हैं.
जिन सूचनाओं के आधार पर आने वाले मौसम का पता चलता है उनमें से एक वातावरण में भाप की मात्रा है. ये अदृश्य पानी है जो भाप बनकर गैस के रूप में वातावरण में मौजूद रहता है. ये ठंडा होने पर पहले बादल बनता है और फिर वर्षा का कारण बनता है.
यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी और अमेरिकी नासा के उपग्रह इसे मापते रहते हैं. भारत सहित दूसरे देशों ने भी मौसम की जानकारी हासिल करने के लिए अपने उपग्रह अंतरिक्ष में भेजे हैं. मौसमविज्ञानियों के लिए सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि वे भाप को देखने लायक बना सकें. यदि उन्हें उसकी मात्रा का पता है तो ठीक ठीक भविष्यवाणी कर सकते हैं कि कब और कहां तूफान या चक्रवात आने वाला है.
तेजी से गर्म होती दुनिया का लोगों पर क्या हो रहा है असर
मौसम विज्ञानियों ने चेतावनी दी कि पिछला दशक अब तक का सबसे गर्म दशक साबित हो सकता है. स्पेन में हो रहे जलवायु सम्मेलन में विशेषज्ञों ने तेजी से गल रहे समुद्री बर्फ और समुद्र की भयावहता का चित्रण किया.
तस्वीर: Imago Images/Science Photo Library
बाढ़ और गर्म हवाओं का बढ़ा प्रकोप
जेनेवा स्थित विश्व मौसम विज्ञान संगठन (डब्ल्यूएमओ) द्वारा पृथ्वी की जलवायु का वार्षिक मूल्यांकन किया गया. इसमें ग्लोबल वार्मिंग को रोकने के उद्देश्य से 2015 के पेरिस समझौते की मुख्य बातों को रेखांकित किया गया. डब्ल्यूएमओ सेक्रेट्री जनरल पेटेरी टालस ने कहा, "पहले सैकड़ों सालों में एक बार बाढ़ या गर्म हवाएं चलने जैसी बात होती थी लेकिन अब यह अकसर हो रहा है."
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रिकॉर्ड स्तर पर तापमान
पेटेरी ने कहा, "बहामास और जापान से लेकर मोजाम्बिक तक के देशों ने विनाशकारी उष्णकटिबंधीय चक्रवातों के प्रभाव को झेला है. आर्कटिक और ऑस्ट्रेलिया तक के जंगलों में आग लगी." पांच साल (2015-2019) और 10 साल (2010-2019) की अवधि का औसत तापमान रिकॉर्ड स्तर पर होना लगभग तय है. साल 2019 दूसरा या तीसरा सबसे गर्म वर्ष हो सकता है.
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समुद्री जीवन पर प्रभाव
इस समय समुद्र का पानी औद्योगिक युग की शुरुआत के वक्त से 26 प्रतिशत ज्यादा अम्लीय हो चुका है. इसका सीधा असर समुद्री पारिस्थितिक तंत्र पर पड़ा है. कई सारे समुद्री जीवों के विलुप्त होने का खतरा उत्पन्न हो गया है.
आर्कटिक समुद्र में सितंबर और अक्टूबर महीने में सबसे कम बर्फ रिकॉर्ड किया गया. इस साल अंटार्कटिका में भी कई बार कम बर्फ देखा गया.
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लोगों को नहीं मिल रहा खाना
जलवायु परिवर्तन का असर भोजन पर भी पड़ रहा है. वैश्विक स्तर पर भूख से पीड़ित लोगों की संख्या बढ़ी है. 2018 में 82 करोड़ से ज्यादा लोग भूख से प्रभावित हुए.
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प्राकृतिक आपदा का कहर
जलवायु परिवर्तन की वजह से दुनिया के कई हिस्सों में प्राकृतिक आपदाएं आ रही है. लोग बेघर हो रहे हैं. भारत से लेकर उत्तरी रूस तक में बारिश का पैटर्न बदल गया है. कहीं ज्यादा बारिश की वजह से बाढ़ आ रही है तो कहीं बारिश न होने की वजह से सुखाड़.
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वातावरण में बढ़ रही कार्बन की मात्रा
रिपोर्ट में कहा गया है कि वातावरण में कार्बन की मात्रा तेजी से बढ़ रही है. वातावरण में CO2 की सांद्रता 2018 में 407.8 पार्ट्स प्रति मिलियन के रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गया. 2019 में यह और बढ़ने की संभावना है. जबकि संयुक्त राष्ट्र ने 400 पार्ट्स प्रति मिलियन को ही 'अकल्पनीय' बताते हुए चेतावनी दी थी.
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यदि उन्हें भाप की मात्रा का ठीक से पता नहीं चलता है तो भविष्यवाणी की जगह 100 किलोमीटर दूर तक हो सकती है. चेतावनी का अनुमानित समय भी गलत हो सकता है जिसकी वजह से लोगों का जीवन खतरे में पड़ सकता है.
वातावरण में वाष्प की मात्रा
वातावरण में मौजूद वाष्प की माप मौसम वाले सैटेलाइट सेंसर की मदद से करते हैं. इसकी जरूरी सूचनाएं अत्यंत कमजोर माइक्रोवेव सिग्नल के जरिए 23.4 से 24 गीगाहैर्त्स की फ्रीक्वेंसी पर भेजी जाती है.
बॉन यूनिवर्सिटी में मौसम विज्ञान के प्रोफेसर क्लेमेंस जिम्मर कहते हैं, "वाष्प के चक्कर काटने की गति में छोटे से छोटे बदलाव के कारण तरंगें पैदा होती है. इसका केंद्र 22.235 गीगाहैर्त्स पर होता है. ये उत्सर्जन चूल्हे से निकलने वाली गर्मी के उत्सर्जन से अलग नहीं है. लेकिन हम इसे सेंटीमीटर के पैमाने पर नापते हैं."
इसमें समस्या ये है कि अंतरराष्ट्रीय कम्युनिकेशन यूनियन आईटीयू ने तय किया है कि 5जी नेटवर्क 24.25 से 27.5 गीगाहैर्त्स की फ्रीक्वेंसी पर सिग्नल भेजेगा. इसके साथ मोबाइल फोन नेटवर्क की फ्रीक्वेंसी और मौसम की भविष्यवाणी के लिए जरूरी सिग्नल की फ्रीक्वेंसी में सिर्फ 0.25 गीगाहैर्त्स का अंतर रह जाएगा.
इसकी वजह से तय है कि मोबाइल फोन के एंटीना और फोन मौसमविज्ञानियों के काम में बाधा डालेंगे. इसलिए भी कि वाष्प का सिग्नल बहुत कमजोर होता है. जिम्मर बताते हैं, "वाष्प के मॉलेक्यूल में तापमान का बहुत कम परिवर्तन होता है, इसलिए भी यह मुश्किल है कि थोड़ी सी भी बाधा सिग्मल को अस्त व्यस्त कर देती है."
अभी भी मौसमविज्ञानी महसूस कर रहे हैं कि दूसरे सिग्नल उनके इलाके में घुस रहे हैं. मसलन 1.4 गीगाहैर्त्स पर यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी का एक उपग्रह जमीन की नमी और समुद्र की ऊपरी सतह पर खारेपन को मापता है. प्रो. जिम्मर कहते हैं, "जमीन जितनी नम होगी उतनी ही कम ऊर्जा परावर्तित करेगी. इसे मापा जा सकता है और इसका इस्तेमाल भी मौसम की भविष्यवाणी के लिए होता है."
पर्यावरण की निगरानी पर असर
मौसम वाले उपग्रहों के काम में बाधा को कम करने के लिए विश्व मौसमविज्ञान संगठन को ट्रांसमीटर की क्षमता को कम करने की सलाह दी गई है. इस तरह ट्रांसमीटर टॉवर पड़ोस की फीक्वेंसी में अधिकतम -55 डेसीबेल वाट तक ट्रांसमिट कर सकता है. यह 10 माइक्रोवाट की ट्रांसमिटिंग क्षमता के बराबर है. लेकिन मौसमविज्ञानियों की सलाह को ठुकरा दिया गया. उन्होंने उसकी सीमा 33 डेसीबेल वॉट तय की जो 1 मिलिवॉट ट्रांसमिटिंग क्षमता के बराबर है. यह सीमा 2027 से लागू होगी.
जलवायु परिवर्तन हमारी जिंदगी को आश्चर्य से भर देगा. न केवल पर्यावरण पर इसका असर होगा बल्कि यह इंसानों के मस्तिष्क को भी प्रभावित करेगा. बिजली कड़केगी, ज्वालामुखी फटेगा और हो सकता है कि रेगिस्तान की मिट्टी भी उड़ जाये.
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आकाश में बढ़ेगी हलचल
ब्रिटेन की एक स्टडी के मुताबिक जलवायु परिवर्तन का असर विमानों की उड़ान पर भी होगा. विमानों को आकाश में अधिक हलचल (टर्ब्युलेंस) का सामना करना होगा. इसमें तकरीबन 149 फीसदी की वृद्धि होगी.
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जहाजों के रास्ते होंगे बाधित
विशेषज्ञों के मुताबिक जलवायु परिवर्तन के चलते बड़े ग्लेशियर टूट सकते हैं, जो समुद्री यातायात प्रभावित करेंगे. असर कितना होगा, इस पर मोटा-मोटी कुछ कहना फिलहाल मुश्किल है.
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बिजली की कड़कड़ाहट बढ़ेगी
ताप ऊर्जा, तूफानी बादलों के लिये ईंधन का काम करती है. आशंका है कि अगर तापमान बढ़ता रहा तो आकाश में बिजलियों की कड़कड़ाहट बढ़ जायेगी, जिसके चलते जंगली आग एक समस्या बन सकती है.
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ज्वालामुखी होंगे सक्रिय
निष्क्रिय अवस्था में पड़े ज्वालामुखी सक्रिय हो सकते हैं. ग्लेशियर पिघलने से पृथ्वी की भीतरी परत पर पड़ने वाला दबाव घटेगा, जिसका असर मैग्मा चेंबर पर पड़ेगा और ज्वालामुखियों की गतिविधियों में वृद्धि होगी.
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आपका गुस्सा बढ़ेगा
हमारा मूड भी बहुत हद तक मौसम पर निर्भर करता है. शोधकर्ताओं के मुताबिक जैसे-जैसे तापमान में वृद्धि होगी लोगों में गुस्सा बढ़ेगा. यहां तक कि हिंसा की प्रवृत्ति में भी इजाफा होगा.
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समुद्रों में बढ़ेगा अंधेरा
कयास हैं कि जलवायु परिवर्तन का सबसे अधिक असर समंदरों में दिखेगा. तापमान बढ़ने से जलस्तर बढ़ेगा साथ ही इनका अंधेरा और भी गहरा होगा. कई इलाकों में वार्षिक वर्षा के स्तर में भी वृद्धि होगी.
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एलर्जी की समस्या
आपको न सिर्फ जल्दी गुस्सा आयेगा बल्कि इंसानों में एलर्जी की शिकायत भी बढ़ेगी. तापमान बढ़ने से मौसमी क्रियायें बदलेगी, पर्यावरण का रुख बदलेगा और बदले माहौल में ढलना इंसानों के लिये आसान नहीं होगा.
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पशुओं का आकार घटेगा
तापमान का एक असर स्तनपायी जीवों के आकार पर दिखेगा. एक अध्ययन के मुताबिक लगभग 5 करोड़ साल पहले जब तापमान बढ़ा था तब स्तनपायी जीवों का आकार घटा था, जो भविष्य में भी नजर आ सकता है.
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रेगिस्तान में रेत होगी कम
रेगिस्तान में कुछ ऐसे बैक्टरीया होते हैं जो मिट्टी के क्षरण को रोकने के लिये बायोक्रस्ट जैसी मजबूत परत का निर्माण करते हैं लेकिन तापमान बढ़ने से इनका आवास स्थान प्रभावित होगा और मिट्टी का क्षरण बढ़ेगा.
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चींटियों का व्यवहार बदलेगा
चींटियां पारिस्थितिकी के संतुलन में अहम भूमिका अदा करती है. अध्ययन बताते हैं कि चींटियां खेतों में कीड़े-मकौड़ों का सफाया करती हैं और मिट्टी के पोषक तत्वों को बनाये रखने में मददगार साबित होती है.
रिपोर्ट- इनेके म्यूल्स
तस्वीर: CC BY-SA 4.0/Hans Hillewaert
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प्रो. जिम्मर को डर है कि तब तक मौसमविज्ञानियों के लिए बहुत देर हो जाएगी. खासकर 5जी को लागू किए जाने के समय में चिंता इस बात की है कि बाजार सस्ते और ठीक से ट्रांमिट न करने वाले टेलिफोन से पट सकता है.
यदि मौसमविज्ञानियों की वाष्प वाली जानकारी खो जाती है तो पर्यावरण के बारे में हो रहे शोध पर भी उसका असर होगा. प्रो. जिम्मर का कहना है 1980 से सैटेलाइट इस फ्रीक्वेंसी पर काम कर रहे हैं और ऐसा नहीं रहने पर पर्यावरण मोनिटरिंग पर उसका असर होगा. तीस चालीस साल से इस फ्रीक्वेंसी का इस्तेमाल मौसम पर नजर रखने के लिए किया जा रहा है.
यदि 5 जी को लागू करने की प्रक्रिया में मौसमविज्ञानी हार जाते हैं तो भविष्य ऊंची फ्रीक्वेंसियां भी दाव पर होंगी. लेकिन राष्ट्रीय मौसम विभागों के साथ विश्व मौसमविज्ञान संगठन अभी अपने प्रयासों में लगा है.