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क्यों कर रहे हैं कर्मचारी इतनी बड़ी हड़ताल?

विवेक कुमार२ सितम्बर २०१६

शुक्रवार को भारत में आम हड़ताल हुई. 2009 से अब तक यह चौथी आम हड़ताल है. क्यों हो रही है हड़ताल? क्या है इस हड़ताल की बड़ी तस्वीर?

Indien Kalkutta Streik Demonstration Kommunistische Partei
तस्वीर: picture-alliance/AP/B. Das

भारत में करोड़ों कामगार शुक्रवार को हड़ताल पर रहे जिसमें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े भारतीय मजदूर संघ को छोड़कर बाकी लगभग सभी ट्रेड यूनियनों ने हिस्सा लिया. हड़ताली संगठनों ने कहा कि उनकी हड़ताल सरकार की "मजदूर विरोधी और इन्सान विरोधी" नीतियों के विरोध में है. हालांकि सरकार ने आखिरी समय तक कोशिशें कीं कि यह हड़ताल टल जाए. गुरुवार को वित्त और श्रम मंत्रालय ने कई ऐलान किए जिनमें न्यूनतम मजदूरी में 104 रुपये बढ़ाने का फैसला भी है. लेकिन आखिरी वक्त पर हुए ये ऐलान हड़ताल को टाल नहीं सके.

हड़ताली संगठनों की 12 मांगें थीं. इनमें न्यूनतम मजदूरी 692 रुपये प्रतिदिन करने के अलावा सभी के लिए सामाजिक सुरक्षा और रेलवे, बीमा और रक्षा उद्योगों में विदेशी निवेश रोकना भी शामिल है. पिछले साल भी 2 सितंबर को ऐसी ही आम हड़ताल हुई थी जिसमें 14 करोड़ कर्मचारियों ने हिस्सा लिया था. इस साल यह संख्या बढ़कर 18 करोड़ तक पहुंचने का अनुमान है.

तस्वीर: picture-alliance/dpa/P. Adhikary

इस बंद का असर आम जिंदगी पर दिखा है. असम, ओडिशा और उत्तर प्रदेश में रेलवे यातायात को रोके जाने की खबरें आईँ तो दक्षिण भारत में बेंगलुरु में पहले से ही स्कूल और कॉलेज एहतियातन बंद कर दिए गए थे. पश्चिम बंगाल में तो बड़े पैमाने पर गिरफ्तारियां भी हुईं. ऐसोचैम की एक रिपोर्ट है कि इस बंद से अर्थव्यवस्था को लगभग ढाई हजार करोड़ रुपये का नुकसान होगा.

बड़ी तस्वीर में यह हड़ताल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के उस रास्ते पर एक छोटा रोड़ा साबित हो सकती है, जिस पर देश को चलाने की कोशिशें वह दो साल से कर रहे हैं. देश में विकास दर को दो अंकों में ले जाने की कोशिशों के तहत राष्ट्रीय स्तर गुड्स एंड सर्विस टैक्स जैसी कर व्यवस्था में बड़े बदलावों से लेकर विदेशी निवेश आकर्षित करने के लिए स्थायी वीसा देने जैसे काफी आक्रामक कदम उठाए गए हैं. साथ ही सरकारी कंपनियों को बेचने का सिलसिला भी जोर-शोर से जारी है.

तस्वीर: Reuters/D. Siddiqui

सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों की हिस्सेदारी बेचकर सरकार अब तक 564 अरब रुपये जुटा चुकी है. ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन में सीनियर फेलो मिहिर शर्मा ने ब्रिटिश अखबार गार्डियन को दिए इंटरव्यू में कहा कि मोदी सरकार पिछले 25 साल में सार्वजनिक क्षेत्र की भारत की सबसे ज्यादा हितैषी सरकार है और आम हड़ताल उनकी उदारीकरण की नीतियों में रोड़े डालने की कोशिश भर है.

लेकिन विकास दर को उछालने का यह सिर्फ एक पहलू है. दूसरा पहलू यह है कि श्रम कानूनों में भारी फेरबदल किए जा रहे हैं और निजी क्षेत्र को ज्यादा से ज्यादा अधिकार दिए जा रहे हैं. इसका सीधा असर कामगारों की जिंदगी पर पड़ा है. जेएनयू में पढ़ाने वाली अर्थशास्त्री प्रोफेसर जयति घोष ने गार्डियन को बताया है कि मजदूरों की हालत कितनी खराब हो चुकी है. उन्होंने कहा, "अब सिर्फ 4 फीसदी कामगारों को ही श्रम सुरक्षा हासिल है. और अब उस सुरक्षा में भी सेंधमारी हो रही है. यह आम धारणा है कि सरकार गरीबी को निशाना बनाने के बजाय गरीब को निशाना बना रही है. सार्वजनिक क्षेत्र के खर्च में भारी कटौती इसी का प्रतीक है."

तस्वीर: Reuters/D. Siddiqui

यह सच है कि सार्वजनिक क्षेत्रों में ऐसे हजारों कामगार हैं जिन्हें महीनों तक तन्ख्वाह नहीं मिलती है. दिल्ली में हाल के महीनों में इसी वजह से दो बार सफाईकर्मी हड़ताल कर चुके हैं. दिल्ली से लेकर राज्यों तक में सरकारी कर्मचारियों को तन्ख्वाह मिलने में देरी होती है. और इन्हीं कारणों के चलते मजदूर यूनियनों ने 12 मांगें सरकार के सामने रखी थीं. मजदूर नेताओं का कहना है कि सरकार मजदूरों के हितों की सिर्फ बातें कर रही है और जमीन पर कुछ नहीं है.

मजदूर यूनियन सीटू ने श्रम मंत्री बंडारू दत्तात्रेय के उस दावे को सिरे से खारिज किया कि एनडीए सरकार मजदूरों की सामाजिक सुरक्षा को लेकर प्रतिबद्ध है. सीटू की ओर से जारी बयान में कहा गया कि न्यूनतम मजदूरी में बढ़ोतरी की जो मांग की गई थी, सरकार ने उसका आधा भी नहीं बढ़ाया है. बयान में कहा गया, "कोई भी यूनियन इस तरह का मजाक बर्दाश्त नहीं कर सकती. केंद्र सरकार को स्वीकार फॉर्मूला के आधार पर ही मांगें बनाई गई थीं. लेकिन सरकार की पेशकश तो एक मजाक है जिसे स्वीकार नहीं किया जा सकता."

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