1. कंटेंट पर जाएं
  2. मेन्यू पर जाएं
  3. डीडब्ल्यू की अन्य साइट देखें

क्या कोविड पैकेज निराशाजनक है?

१८ मई २०२०

कोविड-19 के आर्थिक दुष्प्रभावों का मुकाबला करने के लिए लाए गए केंद्र सरकार के स्टिमुलस पैकेज की हर तरफ आलोचना हो रही है. विशेषज्ञों की राय है कि देश ने आने वाले आर्थिक संकट के असर को कम करने का मौका गंवा दिया है.

Indien Coronavirus Lockdown
तस्वीर: picture-alliance/NurPhoto/D. Talukdar

कोविड-19 महामारी और तालाबंदी के आर्थिक दुष्प्रभावों का मुकाबला करने के लिए केंद्र सरकार जो तथाकथित स्टिमुलस पैकेज ले कर आई वो जानकारों की उम्मीदों पर खरा नहीं उतरा है. अधिकतर विशेषज्ञों का मत है कि पैकेज में जो घोषणाएं की गईं वो अपर्याप्त ही नहीं, दिशाहीन भी थीं और उनकी वजह से देश ने आने वाले आर्थिक संकट के असर को कुछ कम करने का मौका भी गंवा दिया है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 12 मई को जब पैकेज की घोषणा की थी तब उन्होंने कहा था कि पैकेज 20 लाख करोड़ रुपये का होगा जो कि भारत की जीडीपी के 10 प्रतिशत के बराबर होगा. लेकिन जानकारों का मानना है कि पैकेज में भारत सरकार द्वारा जितने खर्च का उल्लेख किया गया है वो जीडीपी के एक प्रतिशत से ज्यादा के बराबर नहीं है. ऐसा इसलिए क्योंकि अधिकतर खर्च बैंकों के सिर मढ़ दिया गया है, लोन देने की अलग अलग योजनाओं के जरिए.

जानकार महीनों से कहते आ रहे हैं कि महामारी और तालाबंदी की वजह से आर्थिक मंदी आएगी जिसके लिए तैयार रहने के लिए यह जरूरी है कि सरकार सबसे पहले तो सबसे गरीब तबकों के लिए फौरी आर्थिक मदद जारी करे और फिर अर्थव्यवस्था के महत्वपूर्ण क्षेत्रों को आर्थिक मदद और उनके लिए प्रोत्साहन के अन्य कदम उठाए. लेकिन सरकार ने जो भी घोषणाएं की हैं उन्होंने अधिकतर जानकारों को निराश ही किया है.

तस्वीर: DW/M. Kumar

प्रवासी श्रमिकों और दिहाड़ी पर जिंदा रहने वाले अन्य कामगारों को कोई फौरी राहत नहीं दी गई. छोटे व्यापारियों को भी ऐसी कोई राहत नहीं दी गई जिनसे उनके अभी तक हुए नुकसान की भरपाई हो पाए और उन्हें व्यापार फिर से खड़ा करने में मदद मिल पाए. बड़े औद्योगिक क्षेत्रों में से भी किसी के लिए कोई भी ऐसी योजना नहीं लाइ गई जिससे नुकसान की भरपाई हो और आगे बढ़ने में मदद मिल सके.

इंस्टीट्यूट ऑफ ह्यूमन डेवलपमेंट में सेंटर फॉर एम्प्लॉयमेंट स्टडीज के डायरेक्टर प्रोफेसर रवि श्रीवास्तव ने डीडब्ल्यू को बताया कि उनका अनुमान है कि पूरा का पूरा पैकेज संभवतः जीडीपी के 0.8 प्रतिशत से ज्यादा मूल्य का नहीं है. तुलना के लिए उन्होंने बताया कि 2007-08 का वित्तीय संकट इस संकट से कहीं कम गंभीर था लेकिन उस समय जो स्टिमुलस पैकेज दिया गया था वो जीडीपी के दो से तीन प्रतिशत तक के बराबर था. वो कहते हैं कि यह एक पहेली जैसा ही लग रहा है कि सरकार ने क्या सोच कर ऐसा पैकेज दिया?

पैकेज की घोषणाओं के बारे में इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज के अर्थशास्त्री प्रोफेसर अरुण कुमार कहते हैं कि ये वैसा ही है जैसे कि कहीं आग लगने पर आप आग बुझाने की कोशिश की जगह यह घोषणा करें कि आप आग बुझाने वाली गाड़ियां खरीदेंगे या फायर स्टेशन बनाएंगे. वो कहते हैं कि उनका अनुमान है कि इस साल विकास की दर माइनस 36 प्रतिशत रहेगी और टैक्स से सरकार की जो आमदनी होती है वो 50 प्रतिशत से भी ज्यादा गिरेगी, जिसका मतलब है सरकार के पास वेतन देने तक के पैसे नहीं होंगे.

तस्वीर: Imago Images/P. Kumar Verma

अरुण कुमार कहते हैं कि ऐसे में कम से कम 22 लाख करोड़ के असल राहत पैकेज की जरूरत है लेकिन सरकार ने ऐसा कुछ नहीं किया.

लेकिन आखिर ऐसा सरकार ने क्यों किया? रवि श्रीवास्तव कहते हैं कि ये या तो एक नव-रूढ़िवादी सोच के एक एक्सट्रीम ब्रांड का परिणाम है या ये यह दिखाता है कि सरकार संकट के स्वरूप को जरा भी समझ नहीं पाई. वो ये चेतावनी भी देते हैं कि इसका मतलब यह है कि ये संकट लंबा चलेगा और देश की अर्थव्यवस्था को उससे संभलने में काफी समय लग जाएगा. अरुण कुमार इससे भी ज्यादा चिंताजनक स्थिति आते हुए देख रहे हैं. उनका पूर्वानुमान है कि आने वाले समय में अमीरों की दौलत तो घटेगी ही, गरीबों के जो हालात होंगे उनसे सामाजिक और राजनीतिक अशांति जन्म ले सकती है.

__________________________

हमसे जुड़ें: Facebook | Twitter | YouTube | GooglePlay | AppStore

इस विषय पर और जानकारी को स्किप करें

इस विषय पर और जानकारी

डीडब्ल्यू की टॉप स्टोरी को स्किप करें

डीडब्ल्यू की टॉप स्टोरी

डीडब्ल्यू की और रिपोर्टें को स्किप करें

डीडब्ल्यू की और रिपोर्टें