रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन और हंगरी के प्रधानमंत्री विक्टर ओरबान जैसे एक दूजे के लिए ही बने हैं. दोनों कट्टर राष्ट्रवादी हैं और दोनों को ही उदारवादी बर्दाश्त नहीं. लेकिन इनके रिश्ते को समझना इतना आसान भी नहीं है.
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"अगर आप चाहते हैं कि आपको एक अच्छा यूरोपीय समझा जाए, तो आपको पुतिन की ऐसे बुराई करनी होगी जैसे वो कोई शैतान हों." ये हंगरी के प्रधानमंत्री विक्टर ओरबान के शब्द हैं. जनवरी 2008 में इटली के अखबार 'ला रिपुब्लिका' को इंटरव्यू देते हुए उन्होंने यह बात कही.
ओरबान हमेशा ही पुतिन के साथ अपने अच्छे संबंधों का बखान करते रहे हैं. उनका कहना है कि यूरोपीय संघ के अधिकारी पुतिन को ऐसे पेश करते हैं जैसे उनके सर पर सींग लगे हों और वे इस बात को नजरअंदाज कर देते हैं कि पुतिन एक महान और प्राचीन साम्राज्य की हुकूमत को संभाल रहे हैं.
इतिहास में झांके तो पता चलता है कि ऐसा नहीं है कि हंगरी और रूस के रिश्ते हमेशा से ही अच्छे रहे हों. ओरबान इस बात को मानते भी हैं लेकिन फिर भी वे पुतिन की तारीफ करने से नहीं चूकते, "अतीत में हंगरी के लोगों को रूस के कारण काफी कष्ट उठाना पड़ा है लेकिन आपको ये बात तो माननी ही होगी कि पुतिन ने अपने देश को फिर से महान बना दिया है. रूस एक बार फिर दुनिया के सामने एक अहम देश के रूप में उभरा है."
वैसे, यूरोपीय संघ के अधिकारी जिन्हें पुतिन नापसंद हैं, वे ओरबान के बारे में भी बहुत अच्छी राय नहीं रखते. 2010 में सत्ता में लौटने के बाद से उन्होंने अपने देश को बिलकुल वैसे ही बदला है जैसे कि पुतिन ने रूस को. उन्होंने मीडिया को अपने काबू में कर लिया है और अपने इर्द गिर्द कुछ रईस लोगों का धनिकतंत्र खड़ा कर लिया है.
रूस पर लगाए गए यूरोपीय संघ के प्रतिबंधों की ओरबान खुल कर निंदा करते रहे हैं. इतना ही नहीं, 2014 में यूक्रेन के क्रीमिया इलाके पर रूसी कब्जे के बाद जब ईयू ने रूस के साथ राजनयिक संबंधों को रोकने का फैसला लिया, तब भी ओरबान ने पुतिन को बुडापेस्ट आने का न्योता दे डाला. और ऐसा उन्होंने सिर्फ एक बार ही नहीं किया.
अजीब बात यह है कि इस सब के बावजूद हंगरी नाटो का एक प्रतिबद्ध सदस्य है. पूर्व रूसी जासूस सेर्गेई स्क्रिपाल की ब्रिटेन में नर्व एजेंट से हत्या की कोशिश के बाद जब नाटो सदस्यों ने अपने देशों से रूसी राजनयिकों को निकालना शुरू किया, तो हंगरी ने भी ऐसा ही किया.
दोनों के बीच इस अंतर की एक बड़ी वजह यह हो सकती है कि शीत युद्ध के दौरान पुतिन और ओरबान ने दो अलग अलग दिशाओं से अपने करियर की शुरुआत की. जहां पुतिन सोवियत संघ की खुफिया एजेंसी केजीबी के लिए जर्मनी में तैनात थे, वहीं ओरबान सोवियत सेना को देश से हटाए जाने की मांग कर रहे थे. 1989 में बुडापेस्ट में छात्र ओरबान के जोशीले भाषण को आज भी याद किया जाता है.
आप्रवासन पर विक्टर ओरबान के विवादास्पद बयान
हंगरी के दक्षिणपंथी प्रधानमंत्री विक्टर ओरबान यूरोपीय संघ में शरणार्थियों के खिलाफ प्रमुख आवाजों में शामिल हैं. विवादों से डरे बिना उन्होंने आप्रवासन को हमला और आप्रवासियों को जहर बताया है.
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"मुस्लिम आक्रमणकारी"
"हम इन्हें मुस्लिम रिफ्यूजी के तौर पर नहीं देखते. हम उन्हें मुस्लिम आक्रमणकारी के तौर पर देखते हैं." ओरबान ने जर्मन दैनिक बिल्ड को एक इंटरव्यू में कहा था. हंगरी के 54 वर्षीय प्रधानमंत्री ने कहा, "हम समझते हैं कि मुसलमानों की बड़ी तादात से समांतर समाज बनेगा क्योंकि ईसाई और मुस्लिम समाज कभी एक नहीं हो सकते."
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"आप आप्रवासी चाहते थे, हम नहीं"
पर कि क्या जर्मनी का लाखों शरणार्थियों को लेना और हंगरी का किसी को नहीं लेना उचित है, प्रधानमंत्री विक्टर ओरबान का जबाव था, "अंतर ये है कि आप आप्रवासी चाहते थे, हम नहीं." ओरबान ने कहा कि आप्रवासन हंगरी की "संप्रभुता और सांस्कृतिक पहचान" को खतरा पहुंचाता है.
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"आप्रवासन जहर है"
हंगरी के प्रधानमंत्री काफी समय से आप्रवासन के खिलाफ रहे हैं और उसे अपने देश के लिए समस्या बताते रहे हैं. 2016 में उन्होंने कहा था कि हंगरी को "अर्थव्यवस्था को चलाने के लिए एक भी आप्रवासी की जरूरत नहीं है." उनका कहना है, "आप्रवासन समाधान नहीं बल्कि समस्या है, दवा नहीं जहर है, हमें इसकी जरूरत नहीं."
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"होमोफोबिया का आयात"
विक्टर ओरबान ने 2015 में लाखों शरणार्थियों को जर्मनी में आने की अनुमति देने के लिए अंगेला मैर्केल की बार बार आलोचना की है. एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था, "अगर आप देश में भारी संख्या में मध्य पूर्व के गैर रजिस्टर्ड आप्रवासियों को लेते हैं तो आप आतंकवाद, अपराध, यहूदीविरोध और होमोफोबिया आयात कर रहे हैं."
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"सभी आतंकवादी मूलतः आप्रवासी हैं"
ओरबान ने राष्ट्रीय कोटा के आधार पर शरणार्थी लेने के सदस्य देशों पर यूरोपीय संघ के दबाव की भी आलोचना की है. 2015 में उन्होंने बाहरी सीमा को सुरक्षित बनाने पर जोर दिया था. उन्होंने कहा था, "हां ये स्वीकार्य नहीं है, लेकिन तथ्य ये है कि सभी आतंकवादी मूलतः आप्रवासी हैं."
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"समांतर समाज"
ओरबान को पोलैंड जैसे पूर्वी यूरोप की दक्षिणपंथी सरकारों में साथी भी मिला है जो हंगरी की ही तरह ईयू की शरणार्थी नीति का विरोध कर रहे हैं. यूरोपीय संघ में मुस्लिम आप्रवासियों के समेकन पर चिंता व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा था, "हम कैसा यूरोप चाहते हैं? समांतर समाज? ईसाई समुदायों के साथ रहता मुस्लिम समुदाय?"
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जुलाई 1998 में ओरबान ने हंगरी के प्रधानमंत्री का पद संभाला, इसके कुछ ही हफ्तों बाद पुतिन रूस की खुफिया एजेंसी एफएसबी के अध्यक्ष चुने गए और दो साल बाद उनके नाम के आगे राष्ट्रपति लग चुका था. दोनों शख्सियतों में फर्क इतना है कि जहां पुतिन ने तब से अब तक देश की कमान को अपने हाथों से निकलने नहीं दिया है, वहीं ओरबान को 2002 से 2010 के बीच का वक्त विपक्ष में बिताना पड़ा है.
विपक्षी नेता के रूप में वे रूस के खिलाफ आवाज उठाते रहते थे लेकिन 2010 में दोबारा सत्ता में आने के बाद से रूस को लेकर उनका रवैया बिलकुल ही बदल गया. 2011 में ओरबान ने अपनी "ईस्टर्न ओपनिंग" नीति की घोषणा की जिसके तहत रूस, चीन, तुर्की और अन्य पूर्वी देशों के साथ व्यापार को बढ़ाने पर काम शुरू किया गया. इतना ही नहीं, जनवरी 2014 में उन्होंने रूस की सरकारी कंपनी रोसाटोम को अपने एकमात्र परमाणु केंद्र "पाक्स" की मरम्मत का काम सौंप दिया. हालांकि ईयू ने कई कारण बताते हुए इस प्रोजेक्ट पर रोक लगा दी.
वर्तमान में हंगरी आर्थिक रूप से यूरोपीय संघ के अधीन है. उसका 80 फीसदी निर्यात ईयू के देशों में ही होता है. लेकिन ईंधन के लिए उसे रूस पर निर्भर करना पड़ता है. देश में आयत होने वाला 89 फीसदी कच्चा तेल और 57 फीसदी प्राकृतिक गैस रूस से ही आते हैं. तो क्या आर्थिक निर्भरता के कारण ही ओरबान पुतिन के पक्ष में खड़े दिखते हैं?
देखा जाए तो सैद्धांतिक रूप से भी ओरबान पुतिन से काफी मेल खाते हैं. 2014 में उन्होंने "इललिबरल डेमोक्रेसी" यानी अनुदारवादी लोकतंत्र का सिद्धांत दुनिया के सामने रखा और एक सफल अनुदारवादी देश के रूप में रूस की मिसाल भी दी. पुतिन की ही तरह ओरबान भी उदारवाद की जगह पारंपरिक ईसाई मूल्यों को तवज्जो देते हैं और देश में राष्ट्रवाद को बढ़ावा देते हैं. रूस और हंगरी दोनों ही पश्चिमी ताकतों को अपने देश के खिलाफ काम करने के लिए जिम्मेदार बताते रहे हैं. दोनों ने ही विदेशी एक्टिविस्ट को खदेड़ा भी है.
तो क्या इन समानताओं का मतलब यह है कि दोनों नेता करीबी दोस्त भी हैं? ओरबान इससे साफ इंकार करते हैं. 2015 में एक अमेरिकी अखबार "पोलिटको" को दिए इंटरव्यू में उन्होंने कहा था कि पुतिन के दिल में नेताओं के लिए कोई भावनाएं नहीं हैं. उन्होंने बताया था कि जहां पश्चिमी जगत में नेता एक दूसरे के साथ अच्छे निजी संबंध बनाने पर ध्यान देते हैं और एक दूसरे को पहले नाम से पुकारते हैं, वहीं रूसियों से ऐसी उम्मीद नहीं की जा सकती.
उस इंटरव्यू में ओरबान ने सवाल किया था, "क्या किसी ने पुतिन की शख्सियत देखी है? इसलिए, निजी रिश्तों की कतई भूमिका नहीं है - ना ही मेरे मन में ऐसा कुछ है और ना ही पुतिन के."
रिपोर्ट: डार्को जांजेविक/आईबी
दशक गुजर गए, पर इनकी सत्ता कायम है...
चीन में शी जिनपिंग जब तक चाहें राष्ट्रपति रह सकते हैं तो रूस में पुतिन फिर से छह साल के लिए राष्ट्रपति बन गए हैं. लेकिन दुनिया में कई राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री दशकों से सत्ता में जमे हैं. डालते हैं इन्हीं पर एक नजर..
तस्वीर: AP
कैमरून: पॉल बिया
अफ्रीकी देश कैमरून में पॉल बिया 35 साल से राष्ट्रपति पद पर कायम हैं. वह 1975 से 1982 तक देश के प्रधानमंत्री भी रहे. फिलहाल उनकी उम्र 85 साल है और सब सहारा इलाके में वह सबसे बुजुर्ग राष्ट्रपति हैं. उन्हें अफ्रीका के सबसे विवादित नेताओं में से एक माना जाता है. उनकी पार्टी 1992 से हर चुनाव में भारी जीतती रही है. लेकिन विरोधी धांधलियों के आरोप लगाते हैं.
तस्वीर: picture alliance/abaca/E. Blondet
रिपब्लिक ऑफ कांगो: डेनिस सासो
अफ्रीकी देश रिपब्लिक ऑफ कांगो में राष्ट्रपति डेनिस सासो पहले 1979 से 1992 तक राष्ट्रपति पद पर रहे और अब 1997 से फिर राष्ट्रपति पद संभाले हुए हैं. 1992 में वह राष्ट्रपति चुनाव हार गए. लेकिन देश में चले दूसरे गृहयुद्ध में सासो के हथियारबंद समर्थकों ने तत्कालीन राष्ट्रपति लेसुबु को सत्ता से बाहर कर दिया.
तस्वीर: Getty Images/AFP
कंबोडिया: हुन सेन
दक्षिण पूर्व एशियाई देश कंबोडिया में हुन सेन पिछले 32 वर्षों से प्रधानमंत्री के पद पर हैं. वह दुनिया में सबसे ज्यादा समय तक प्रधानमंत्री रहने वाले नेता हैं. उनका असली नाम हुन नबाल था लेकिन उन्होंने खमेर रूज के दौर में अपना नाम बदल लिया. वह 1985 में कंबोडिया के प्रधानमंत्री बने. राजशाही वाले देश कंबोडिया में एक पार्टी का शासन है.
तस्वीर: picture-alliance/dpa/M, Remissa
युंगाडा: योवेरी मोसेवेनी
अफ्रीकी देश युगांडा में राष्ट्रपति योवेरी मुसेवेनी ने 1986 में सत्ता संभाली थी. वह दो पूर्व राष्ट्रपतियों ईदी अमीन और मिल्टन ओबोटे के खिलाफ हुई बगावत का हिस्सा भी माने जाते हैं. कई लोग मानते हैं कि मोसेवेनी के शासन में युगांडा को आर्थिक विकास और राजनीतिक स्थिरता तो मिली लेकिन पड़ोसी देशों में जारी हिंसक विवादों में शामिल होने के आरोप भी उस पर लगे.
तस्वीर: Reuters/J. Akena
ईरान: अयातोल्लाह खामेनेई
ईरान में सत्ता का शीर्ष केंद्र सुप्रीम लीडर को माना जाता है और अयातोल्लाह खामेनेई पिछले 29 साल से इस पद पर कायम हैं. बताया जाता है कि ईरान में इस्लामी क्रांति के संस्थापक अयातोल्लाह खमेनी ने उन्हें अपना उत्तराधिकारी चुना था. वह 1981 से 1989 तक ईरान के राष्ट्रपति भी रह चुके हैं.
तस्वीर: khamenei.ir
सूडान: उमर अल बशीर
सूडानी राष्ट्रपति उमर हसन अल बशीर जून 1989 से अपने देश के राष्ट्रपति हैं. इससे पहले वह सूडानी फौज में ब्रिगेडियर थे और उन्होंने एक सैन्य बगावत के जरिए लोकतांत्रिक रूप से चुने हुए प्रधानमंत्री सादिक महदी की सरकार का तख्तापलट किया और देश की बागडोर अपने हाथों में ले ली. उन पर अपने विरोधियों को कुचलने के आरोप लगते हैं.
तस्वीर: Reuters/M. Abdallah
चाड: इदरीस देबी
मध्य अफ्रीकी देश चाड में इदरीस देबी ने 1990 में राष्ट्रपति हुसैन बाहरे को सत्ता से बेदखल किया और खुद देश के राष्ट्रपति बन गए. वह पिछले पांच राष्ट्रपति चुनावों में भारी वोटों से जीत दर्ज करते रहे हैं. लेकिन चुनावों की वैधता पर राष्ट्रपति देबी के विरोधी और अंतरराष्ट्रीय समुदाय हमेशा उंगलियां उठाते रहे है.
तस्वीर: Getty Images/AFP/L. Marin
कजाकस्तान: नूर सुल्तान नजरबायेव
मध्य एशियाई देश कजाकस्तान में नूर सुल्तान नजरबायेव 28 साल से सत्ता में हैं. सोवियत संघ के विघटन के बाद कजाकस्तान एक अलग देश बना. तभी से नजरबायेव राष्ट्रपति हैं. इससे पहले वह कजाकस्तान कम्युनिस्ट पार्टी के प्रमुख थे. उन्होंने कजाकस्तान में कई आर्थिक सुधार किए हैं. लेकिन देश के राजनीतिक तंत्र को लोकतांत्रिक बनाने में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं है.
तस्वीर: picture alliance/Sputnik/S. Guneev
ताजिकस्तान: इमोमाली राहमोन
एक और मध्य एशियाई देश ताजिकस्तान की सत्ता पर भी 1992 से राष्ट्रपति इमोमाली राहमोन का शासन चल रहा है. उन्हें अपने 25 साल के शासनकाल के शुरुआती सालों में गृहयुद्ध का सामना करना पड़ा जिसमें करीब एक लाख लोग मारे गए. ताजिकस्तान भी पहले सोवियत संघ का हिस्सा था. आज इसे मध्य एशिया का सबसे गरीब देश माना जाता है.
तस्वीर: DW/G. Faskhutdinov
इरीट्रिया: इसाइयास आफवेरकी
अफ्रीकी देश इरिट्रिया की आजादी के बाद से ही इसाइयास आफवेरकी राष्ट्रपति हैं. उन्होंने इथोपिया से इरीट्रिया की आजादी के लिए लंबे समय तक संघर्ष किया. इरिट्रिया को मई 1991 में संयुक्त राष्ट्र की निगरानी में होने वाले एक जनमत संग्रह के नतीजे में आजादी मिली थी.