पश्चिम बंगाल के पुरुलिया जिले में हाल में चार दिनों के भीतर बीजेपी के दो कार्यकर्ताओं की मौत की घटनाएं लगातार सुर्खियां बटोर रही हैं. लेकिन इस हिंसा के बीज बहुत गहरे हैं.
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ताजा राजनीतिक हिंसा ने सत्तारुढ़ तृणमूल कांग्रेस और बीजेपी के बीच राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप का दौर भी तेज कर दिया है. यह दोनों राजनीतिक हत्याएं हैं या नहीं, इस पर विवाद हो सकता है. लेकिन पश्चिम बंगाल में राजनीतिक हत्याएं और हिंसा का इतिहास नया नहीं है.
बीते लगभग पांच दशकों के दौरान यह राजनीतिक बर्चस्व की लड़ाई में हत्याओं और हिंसा को हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया गया है. इस दौरान सत्ता संभालने वाले चेहरे जरूर बदलते रहे, लेकिन उनका चाल-चरित्र रत्ती भर भी नहीं बदला.
मशहूर बांग्ला कहावत 'जेई जाए लंका सेई होए रावण' यानी जो लंका जाता है वही रावण बन जाता है. इसी तर्ज पर सत्ता संभालने वाले तमाम दलों ने इस दौरान इस हथियार को और धारदार ही बनाया है.
बंगाल की ट्रेन, जिसमें पुरुष नहीं चढ़ सकते
इस ट्रेन में पुरुषों का चढ़ना मना है
कोलकाता और उसके आसपास के इलाकों में चलने वाली मातृभूमि लोकल खास तौर से महिलाओं की ट्रेन है. पुरुषों को इस पर चढ़ने की इजाजत नहीं. और इसी को लेकर अकसर झगड़ा होता रहा है.
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रेल अकेला विकल्प
भारत में रेल को देश की जीवनरेखा कहा जाता है. पश्चिम बंगाल में बहुत सी महिलाएं भी आने जाने के लिए भारतीय रेल पर निर्भर हैं.
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केवल महिलाएं
भारतीय ट्रेनों में महिलाओं के लिए अलग से डिब्बे भी होते हैं. लेकिन उनमें भीड़ खूब होती है. कई बार तो सिर्फ खड़े होने के लिए ही जगह मिलती है.
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कहासुनी
महिला डिब्बों में पर्याप्त जगह न होने के कारण अकसर महिलाओं को सामान्य डिब्बों में सफर करना पड़ता है. ऐसे में, कई बार पुरूषों से उनकी कहासुनी भी होती है.
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आपाधापी
भारतीय रेलवे स्टेशनों पर ऐसा नजारा आम है. भीड़, धक्का-मुक्की और रेलमपेल रोजमर्रा की बात है. इस आपाधापी में कई बार कोई अनहोनी भी हो जाती है.
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मातृभूमि का इंतजार
महिलाओं को होने वाली परेशानियों के मद्देनजर कोलकाता में उनके लिए मातृभूमि लोकल के नाम से अलग ट्रेन चलाने के बारे में सोचा गया.
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आरामदायक सफर
2010 में तत्कालीन रेल मंत्री और पश्चिम बंगाल की मौजूदा मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की पहल पर पूर्व रेलवे ने मातृभूमि स्पेशल नाम से महिलाओं के लिए विशेष ट्रेनें चलायीं.
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टकराव
दूसरी ट्रेनें जहां खचाखच भरी होती हैं, वहीं मातृभूमि लोकल में सीटें भी पूरी नहीं भरतीं. इसीलिए अकसर पुरुष इस ट्रेन को लेकर भेदभाव की शिकायत करते हैं.
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विरोध
2015 में इस ट्रेन के तीन डिब्बों को जनरल कोच बनाकर उसमें पुरूषों को सफर करने की अनुमति दे दी गयी. लेकिन महिलाओं के भारी विरोध के बाद इसे फिर से लेडीज स्पेशल करना पड़ा.
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पुरूषों की मांग
नाराज पुरूष यात्रियों का कहना है कि या तो मातृभूमि को बंद किया जाये या फिर उनके लिए पितृभूमि लोकल नाम से नई सेवा शुरू की जाये. इस मुद्दे पर खूब खींचतान होती रही है.
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कड़ी सुरक्षा
हाल के सालों में महिलाओं की सुरक्षा एक बड़ा मुद्दा बनकर उभरा है. ट्रेनों में कई बार महिलाओं से बदसलूकी के मामले सामने आते हैं. लेकिन मातृभूमि लोकल मनचलों से मुक्त है.
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सुविधा
रोजाना उपनगरीय इलाकों से हज़ारों महिलाएं नौकरी और दूसरे कामकाज के सिलसिले में सुबह-सुबह इसी ट्रेन से कोलकाता पहुंचती हैं. महिलाओं का कहना है कि मातृभूमि लोकल के कारण बहुत सुविधा है.
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अब राज्य के लोग भी इसके आदी हो चुके हैं. मोटे अनुमान के मुताबिक, बीते छह दशकों में राज्य में लगभग साढ़े आठ हजार लोग राजनीतिक हिंसा की बलि चढ़ चुके हैं. इस दौरान यह राज्य इस मामले में देश के शीर्ष तीन राज्यों में शुमार रहा है. सत्तर-अस्सी के दशक की हिंदी फिल्मों की कहानियों की तरह खून का बदला खून की तर्ज पर यहां खूनी राजनीति का जो दौर शुरू हुआ था उसकी जड़ें अब काफी मजबूत हो चुकी हैं.
आजादी के बाद से ही
कभी ईस्ट इंडिया कंपनी और ब्रिटिश शासकों का प्रिय रहा बंगाल देश के विभाजन के बाद से ही हिंसा के लंबे-लंबे दौर का साक्षी रहा है. विभाजन के बाद पहले पूर्वी पाकिस्तान और बाद में बांग्लादेश से आने वाले शरणार्थियों के मुद्दे पर भी बंगाल ने भारी हिंसा झेली है.
वर्ष 1979 में सुंदरबन इलाके में बांग्लादेशी हिंदू शरणार्थियों के नरसंहार को आज भी राज्य के इतिहास के सबसे काले अध्याय के तौर पर याद किया जाता है. उसके बाद इस इतिहास में ऐसे कई और नए अध्याय जुड़े.
दरअसल, साठ के दशक में उत्तर बंगाल के नक्सलबाड़ी से शुरू हुए नक्सल आंदोलन ने राजनीतिक हिंसा को एक नया आयाम दिया था. किसानों के शोषण के विरोध में नक्सलबाड़ी से उठने वाली आवाजों ने उस दौरान पूरी दुनिया में सुर्खियां बटोरी थीं. नक्सलियों ने जिस निर्ममता से राजनीतिक काडरों की हत्याएं की, सत्ता में रही संयुक्त मोर्चे की सरकार ने भी उनके दमन के लिए उतना ही हिंसक और बर्बर तरीका अपनाया.
वर्ष 1971 में सिद्धार्थ शंकर रे के नेतृत्व में कांग्रेस सरकार के सत्ता में आने के बाद तो राजनीतिक हत्याओं का जो दौर शुरू हुआ उसने पहले की तमाम हिंसा को पीछे छोड़ दिया. वर्ष 1971 से 1977 के बीच कांग्रेस शासनकाल के दौरान राज्य में विपक्ष की आवाज दबाने के लिए इस हथियार का इस्तेमाल होता रहा.
वर्ष 1977 के विधानसभा चुनावों में यही उसके पतन की भी वजह बनी. उसके बाद बंगाल की राजनीति में कांग्रेस इस कदर हाशिए पर पहुंची कि अब वह राज्य की राजनीति में अप्रासंगिक हो चुकी है.
लेफ्ट फ्रंट का दौर
वर्ष 1977 में भारी बहुमत के साथ सत्ता में आए लेफ्ट फ्रंट ने भी कांग्रेस की राह ही अपनाई. दरअसल, लेफ्ट ने सत्ता पाने के बाद हत्या को संगठित तरीके से राजनीतिक हथियार के तौर पर इस्तेमाल करना शुरू किया. वैसे, सीपीएम काडरों ने वर्ष 1969 में ही बर्दवान जिले के सेन भाइयों की हत्या कर अपने राजनीतिक नजरिए का परिचय दे दिया था. वह हत्याएं बंगाल के राजनीतिक इतिहास में सेनबाड़ी हत्या के तौर पर दर्ज है. वर्ष 1977 से 2011 के 34 वर्षों के वामपंथी शासन के दौरान जितने नरसंहार हुए उतने शायद देश के किसी दूसरे राज्य में नहीं हुए.
मिलिए बंगाल की शेरनी से
बंगाल की शेरनी: मार्गरिटा मामुन
चाहे हाथ में बॉल हो, रिबन हो या फिर स्टिक्स, रिदमिक जिमनास्टिक के कोर्ट पर जब मार्गरिटा मामुन उतरती हैं तो सबकी नजरें उन पर टिक जाती हैं. मिलिये बंगाल टाइग्रेस रिटा मामुन से.
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पिता बांग्लादेशी
मार्गरिटा को रिटा नाम से जाना जाता है. रूस में पैदा हुई रिटा के पिता अब्दुल्लाह अल मामुन बांग्लादेश के हैं और मरीन इंजीनियर हैं, जबकि मां अना रूसी हैं.
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शुरुआत
सात साल की उम्र में रिटा ने रिदमिक जिमनास्टिक की ट्रेनिंग लेनी शुरू की और आज वह रूस की अहम खिलाड़ी हैं. पहली नवंबर 1995 को पैदा हुई रिटा लंबी मेहनत के बाद इस जगह पर पहुंची हैं.
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पारंगत
जूनियर के तौर पर बांग्लादेश का और फिर सिनियर श्रेणी में रूस का प्रतिनिधित्व करने वाली मार्गरिटा रिदमिक जिमनास्टिक की हर विधा में पारंगत हैं.
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लचीली और आकर्षक
चाहे हाथ में रिबन हो, बॉल हो, रिंग या फिर स्टिक्स. मार्गरिटा ताल और लय में डूबी रहती हैं और साथ ही विधा के लिए जरूरी हर कलाबाजी को शानदार ढंग से पेश करती हैं. उनकी पहली बड़ी जीत रूस की ऑल अराउंड चैंपियनशिप 2011 में रही.
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कड़ी मेहनत
2011 में ही मॉन्ट्रियाल वर्ल्ड कप में रीटा ने ऑल अराउंड विधा में कांस्य पदक जीता. प्रैक्टिस के दौरान बैले की सारी मूवमेंट के अलावा पैर की अंगुलियां मोड़ कर उस पर चलने का अभ्यास वह वीडियो में करती दिखाई देती हैं.
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जर्मनी में
मार्च 2014 में श्टुटगार्ट में हुई प्रतियोगिता के दौरान रिटा ने अलग अलग विधाओं में तीन स्वर्ण, एक रजत और एक कांस्य पदक जीता.
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बंगाल टाइगर
उनकी कोच इरीना वाइनर कहती हैं कि मामून बंगाल टाइगर हैं. दुनिया भर की कई प्रतियोगिता में हिस्सा ले चुकी 18 साल की रिटा रिदमिक जिमनास्टिक में तेजी से उभरता नाम है.
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मुश्किल कला
बैले, योग, कलाबाजी और नृत्य के अद्भुत मेल का नाम है रिदमिक जिमनास्टिक. बैले की शालीनता जहां इसके लिए जरूरी है वहीं शरीर का अति लचीला होना भी इसकी एक जरूरत है.
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ऑल अराउंड
रिटा की खासियत है कि वह रिदमिक जिमनास्टिक की हर विधा में शानदार प्रदर्शन करती हैं. और उनका यही लाजवाब प्रदर्शन 2014 के दौरान जर्मनी के श्टुटगार्ट में भी देखने को मिला.
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कई फैन
मार्गरिटा मामुन के फैंस ने उनके लिए फेसबुक पेज बनाया है. फैंस उन्हें इंस्टाग्राम पर भी फॉलो करते हैं.
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वर्ष 1979 में तत्कालीन ज्योति बसु सरकार की पुलिस व सीपीएम काडरों ने बांग्लादेशी हिंदू शरणार्थियों के ऊपर जिस निर्ममता से गोलियां बरसाईं उसकी दूसरी कोई मिसाल नहीं मिलती. जान बचाने के लिए दर्जनों लोग समुद्र में कूद गए थे. अब तक इस बात का कहीं कोई ठोस आंकड़ा नहीं मिलता कि उस मरीचझांपी नरसंहार में कुल कितने लोगों की मौत हुई थी. उसके बाद अप्रैल, 1982 में सीपीएम काडरों ने महानगर में 17 आनंदमार्गियों को जिंदा जला दिया था.
इसी तरह जुलाई, 2000 में बीरभूम जिले के नानूर में पुलिस ने राजनीतिक आकाओं की शह पर जबरन अधिग्रहण का विरोध करने वाले कांग्रेस समर्थक 11 अल्पसंख्यक लोगों की हत्या कर दी थी. उसके बाद 14 मार्च, 2007 को नंदीग्राम में अधिग्रहण का विरोध कर रहे 14 बेकसूर गांव वाले भी मारे गए.
तृणमूल कांग्रेस का दौर
नंदीग्राम और सिंगुर की राजनीतिक हिंसा और हत्याओं ने सीपीएम के पतन का रास्ता साफ किया था. नेशनल क्राइम रिकार्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों के मुताबिक, वर्ष 2009 में राज्य में 50 राजनीतिक हत्याएं हुई थीं और उसके बाद अगले दो वर्षों में 38-38 लोग मारे गए.
सिंगूर में क्या हुआ, जानिए
सिंगूर में क्या क्या हुआ
सिंगूर पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद किसानों को जमीन वापस होगी. ममता बनर्जी की राजनीतिक जीत में यह मुद्दा एक अहम पड़ाव रहा है. कब क्या हुआ सिंगूर में.
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नैनो का ऐलान
2008 में भारत की कार निर्माता कंपनी टाटा ने लखटकिया कार नैनो बाजार में उतारने का ऐलान किया. ये खबर दुनिया भर में सुर्खी बनी. नैनो को बनाने के लिए कंपनी ने पश्चिम बंगाल के सिगूंर में फैक्ट्री लगाने की योजना बनाई.
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1000 एकड़
इसके लिए पश्चिम बंगाल की तत्कालीन वाम मोर्चा सरकार ने खेती की एक हजार एकड़ जमीन का अधिग्रहण किया और उसे टाटा को सौंप दिया गया.
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जोर जबर्दस्ती
लेकिन जल्द ही आरोप लगने लगे कि सरकार ने जबरदस्ती किसानों की जमीन ली है जबकि सरकार का कहना था कि राज्य की बदहाल अर्थव्यवस्था पटरी पर लाने के लिए निवेश और उद्योगों को बढ़ावा देने की जरूरत है.
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नैनो की ना
ये मामला उपजाऊ जमीन लेकर उसे प्राइवेट कंपनी को दिए जाने का था. इसलिए जल्द ही इस मुद्दे पर राजनीति शुरू हो गई है और ये एक बड़ा मुद्दा बन गया. आखिरकार टाटा को अपनी फैक्ट्री गुजरात के साणंद ले जानी पड़ी.
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ममता की एंट्री
सिंगूर लोगों को उनकी जमीन वापस दिलाने के वादे ने ममता बनर्जी को नई राजनीतिक ताकत दी. 2011 के राज्य विधानसभा चुनाव में ममता बनर्जी ने वो कर दिखाया जो अब तक कोई नहीं कर पाया. उन्होंने पश्चिम बंगाल में 1977 से राज कर रहे वाममोर्चा को सत्ता से बाहर कर दिया.
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जीत पर जीत
इसी साल हुए राज्य विधानसभा चुनाव में फिर शानदार जीत दर्ज की. अब ममता बनर्जी कह रही है लेकिन लोगों को जमीन लौटाने का काम शुरू कर उन्होंने अपना वादा निभाया है. लेकिन साथ ही उन्होंने टाटा और बीएमडब्ल्यू जैसी कंपनी को भी राज्य में आने का न्यौता दिया है.
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यह लेफ्ट फ्रंट सरकार के उतार और तेजी से उभरती तृणमूल कांग्रेस के सत्ता की ओर बढ़ने का दौर था. वर्ष 2007, 2010, 2011 और 2013 में राजनीतिक हत्याओं के मामले में बंगाल पूरे देश में अव्वल रहा.
वर्ष 2011 में ममता बनर्जी की अगुवाई में तृणमूल कांग्रेस के सत्ता में आने के बाद भी राजनीतिक हिंसा का दौर जारी रहा. दरअसल, लेफ्ट के तमाम काडरों ने धीरे-धीरे तृणमूल का दामन लिया था. यानी दल तो बदले लेकिन चेहरे नहीं. अब धीरे-धीरे बीजेपी के सिर उभारने के बाद एक बार फिर नए सिरे से राजनीतिक हिंसा का दौर शुरू हुआ है.
मई में पंचायत चुनावों की हिंसा के दौरान दर्जनों लोग मारे गए. लेकिन तृणमूल कांग्रेस ने यह कहते हुए इस हिंसा का बचाव किया था कि लेफ्ट फ्रंट के शासनकाल में होने वाले पंचायत चुनावों में पार्टी के चार सौ से ज्यादा कार्यकर्ता मारे गए थे.
वजह
आखिर बंगाल में लगातार तेज होने वाली इस हिंसा की वजह क्या है? राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि राजनीति सबसे फायदेमंद धंधा बन गई है जिसके चलते खासकर ग्रामीण स्तर पर चुनावों में जीत कर सत्ता पर पर काबिज होने की बढ़ती हवस ही इसकी मूल वजह है.
राजनीतिक विश्लेषक कंचन चंद्र कहते हैं, "किसी दूसरे पेशे में शुरुआती स्तर पर होने वाले फायदों के मुकाबले राजनीति में शुरुआती स्तर पर निर्वाचित पदों पर होने वाली आय, स्टेट्स और सत्ता की ताकत बहुत ज्यादा है."
वह बताते हैं कि विभिन्न विकास परियोजनाओं और केंद्रीय परियोजनाओं के मद में सालाना मिलने वाले हजारों करोड़ की रकम में से मिलने वाले मोटे कमीशन के लालच ने राजनीति को एक आकर्षक पेशा बना दिया है. यही वजह है कि चुनाव जीतने के लिए साम-दाम-दंड-भेद सबका सहारा लिया जाता है. ऐसे में राजनीतिक हिंसा ही सबसे धारदार व असरदार हथियार साबित होती है.
एक अन्य राजनीतिक पर्यवेक्षक विश्वनाथ चक्रवर्ती कहते हैं, "राजनीतिक हिंसा के मामले में भले तमाम राजनीतिक दल अपनी कमीज को बेदाग होने का दावा करें, कोई भी दूध का धुला नहीं है. सबके हाथ खून से सने हैं."
पर्यवेक्षकों का कहना है कि बंगाल की राजनीति में पांच दशकों से भी लंबे समय से इस असरदार हथियार की मारक क्षमता लगातार तेज हो रही है. अगले साल होने वाले आम चुनावों और 2021 के विधानसभा चुनावों को देखते हुए इस हिंसा की आग और भड़कने होने का अंदेशा है.
बंगाल में पर्यटन
बंगाल में पर्यटन
पश्चिम बंगाल भारत के अहम पर्यटन केंद्रों में शामिल है. बंगाल की सरकार विदेशी पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए आधारभूत ढांचों में सुधार कर रही है.
तस्वीर: DW/P. Mani Tewari
टॉय ट्रेन
हिमालय की तलचटी में 2045 मीटर की ऊंचाई पर बसे दार्जिंलिंग का एक आकर्षण नैरो गेज रेल भी है. पर्यटक इसकी सवारी का आनंद लेने दार्जिलिंग जाते हैं.
तस्वीर: Imago
चाय बागान
दार्जिलिंग पूर्वी हिमालय रेंज का हिस्सा है. आल्पीन जंगलों वाला यह इलाका अपने मशहूर चाय के बागानों के लिए भी जाना जाता है. दार्जिलिंग चाय पश्चिमी देशों में भी बहुत लोकप्रिय है.
तस्वीर: DW/R. Rajpal Weiß
रेल रोड का साथ
रोड के साथ साथ चलती रेलगाड़ी. दार्जिलिंग जाते हुए रेल और रोड का खेल चलता रहता है. सैलानी कभी ट्रेन पर होते हैं तो कभी नीचे उतरकर तस्वीर खींचते हैं.
तस्वीर: DW/S. Bandopadhyay
पहाड़ी वादियां
दार्जिंलिंग शहर से कंचनजंगा पहाड़ों की चोटियां देखी जा सकती हैं. यहां केवेंटर रेस्तरां से धुंध में लिपटे पहाड़ी शहर दार्जिलिंग का नजारा.
तस्वीर: DW/S. Bandopadhyay
संग्रहालय
कलिम्पोंग के निकट मुंगपो में स्थित इस घर में महाकवि रबींद्रनाथ टैगोर अक्सर ठहरा करते थे. अब यहां उनी यादगार चीजों से बना संग्रहालय है.
तस्वीर: Sirsho Bandopadhyay
मिशनरी स्कूल
कलिम्पोंग का प्रसिद्ध जेसुइट मिशनरी स्कूल. यहां 300 से ज्यादा बच्चे पढ़ते हैं. उनमें से अधिकतर गरीब परिवारों से आते हैं.
तस्वीर: DW/S. Bandopadhyay
बंगाल टाइगर
सुंदरबन का इलाका अपने बंगाल टाइगर्स के लिए मशहूर है. ताजा जनगणना के अनुसार भारत में बाघों की संख्या में वृद्धि हुई है.
तस्वीर: picture-alliance/AP/J. Kundu
आकर्षक शहर
बंगाल की राजधानी कोलकाता भी अपनी लंबी सांस्कृतिक विरासत के कारण हर मौसम में यात्रा के लायक है. क्रिसमस के समय सड़कों पर जगमगाती रोशनी.
तस्वीर: DW/S.Bandopadhyay
भव्य पंडाल
कोलकाता अपने रंगारंग दशहरा के लिए भी जाना जाता है. दुर्गा पूजा के मौके पर सुंदर मूर्तियों के अलावा सारे शहर में ढेर सारे भव्य पंडाल भी बनाए जाते हैं.
तस्वीर: DW/P. M. Tiwari
सुंदर तालाब
अंग्रेजों की पहली राजधानी रहा कोलकाता अपने अत्यंत खूबसूरत तालाबों के लिए भी जाना जाता है.