क्यों घट रहे हैं यूपी के मदरसों में पढ़ने वाले बच्चे
फैसल फरीद
१२ दिसम्बर २०१८
भारत में सबसे ज्यादा मुसलमान उत्तर प्रदेश में रहते हैं. लेकिन वहां मदरसे में जाने वाले बच्चों की संख्या तीन साल में घट कर आधी रह गई है. आखिर क्यों?
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हाल के सालों में मदरसे लगातार सुर्खियों में रहे हैं. कई बार उन पर चरमपंथ की पाठशाला कहा गया तो कभी उन्हें मुख्यधारा में लाने की बात हुई. आम तौर पर कहा जाता है कि मुख्य रूप से धार्मिक शिक्षा देने वाले ये मदरसे बाकी दुनिया से कटे रहते हैं. लेकिन धीरे धीरे बदलाव की हवा वहां भी बहने लगी है. अब मदरसों में पढ़ने वाले बच्चे भी स्मार्टफोन चलाते हैं. वहां कंप्यूटर आ गए हैं और कई जगह पर अंग्रेजी भी पढ़ाई जा रही है.
लेकिन पिछले तीन सालों में उत्तर प्रदेश के मदरसों में पढ़ने वाले छात्रों की संख्या घट कर आधी रह गई हैं. इससे पता चलता है कि राज्य में मदरसों के प्रति मुसलमानों का आकर्षण कम हो रहा हैं.
उत्तर प्रदेश में दो तरह के मदरसे चलते हैं. पहले वे जो उत्तर प्रदेश सरकार के मदरसा शिक्षा बोर्ड से मान्यता प्राप्त हैं. इनके छात्रों, अध्यापकों और पाठ्यक्रम पर सरकार की नजर रहती है. इसके अलावा इनकी परीक्षा भी मानक के अनुरूप होती हैं. सरकार ने इन मदरसों में एनसीआरटी का पाठ्यक्रम लागू करवा दिया है.
यहां बच्चों को रोबोट पढ़ा रहे हैं
बच्चों को पढ़ाने लगे हैं रोबोट
अब वह दिन दूर नहीं जब बच्चों को पढ़ाने के लिए स्कूल में शिक्षकों की नहीं बल्कि रोबोट की भर्ती होगी. फिनलैंड के एक प्राइमरी स्कूल में ऐसा ही पायलट प्रोजेक्ट चल रहा है, जहां बच्चों को एक रोबोट भाषा सिखा रहा है.
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भाषा सिखाता रोबोट
इससे मिलिए, ये है एलियास. जो बतौर लैंग्वेज टीचर बच्चों को फिनलैंड के स्कूल में पढ़ा रहा है. यह बच्चों के सवालों का आराम से जवाब देता है ताकि किसी को सवाल पूछने में कोई शर्म या झिझक न हो. यह लैंग्वेंज पढ़ाने वाली मशीन एक ह्यूमनाइड रोबोट और मोबाइल ऐपलिकेशन है. यह उन चार रोबोटों में से एक है जिसे इस पायलट योजना के तहत तैयार किया गया है.
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23 भाषाओं का ज्ञान
यह रोबोट 23 भाषाएं बोल और समझ सकता है. साथ ही इसके अंदर लगा सॉफ्टवेयर इसे बच्चों की जरूरतों के बारे में बताता है ताकि पढ़ाई को लेकर वह इन्हें प्रोत्साहित कर सके. हालांकि इस ट्रायल प्रक्रिया में फिलहाल यह अंग्रेजी, जर्मन और फिनिश भाषाओं में काम कर रहा है.
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रिपोर्ट कार्ड भी तैयार
इस रोबोट की खास बात यह है कि ये बच्चों की प्रतिभा और कौशल को पहचान कर उनके स्तर के सवाल उनसे पूछ सकता है. साथ ही शिक्षकों को बच्चों के परफॉर्मेंस का फीडबैक और उनसे जुड़ी सभी संभावित समस्याओं का ब्योरा भी दे सकता है.
जो शिक्षक पढ़ाने की इस नई तकनीक के साथ काम कर रहे हैं वह इसे बच्चों को पढ़ाने और उन्हें पढ़ाई में व्यस्त रखने की एक नई तकनीक के रूप में देख रहे हैं. शिक्षक मानते हैं कि यह नया पाठ्यक्रम बच्चों को पढ़ाई से जोड़े रखने के साथ-साथ उन्हें काफी सक्रिय भी बना रहा है. साथ ही यह क्लास में बच्चों को कई तरह की गतिविधियों में व्यस्त रखता है.
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गणित सिखाने वाला रोबोट
एलियास के अलावा यह छोटे नीले रंग का नजर आ रहा रोबोट है मैथ्स रोबोट ओव्हीओबॉट. यह नीले रंग की मशीन 25 सेंटीमीटर ऊंची है और एक उल्लू की तरह नजर आती है. इसे भी फिनलैंड की एक कंपनी ने डेवलप किया है. मध्यपूर्व, एशिया और अमेरिका के भी कई स्कूलों में रोबोट का इस्तेमाल पढ़ाने के लिए किया जाता है.
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बच्चों में अनुशासन
रोबोट चाहे कितना कुछ भी सिखा ले लेकिन एक चीज जो वह नहीं कर पाता है वह है कक्षा में अनुशासन बनाए रखना. और, जब बात प्राइमरी कक्षा की हो तो यह और भी अहम हो जाता है. इसलिए फिलहाल ऐसा तो नहीं लगता कि निकट भविष्य में शिक्षकों की नौकरी को खतरा हो सकता है.
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दूसरे मदरसे वे हैं जो सरकार से कोई मतलब नहीं रखते. वे अपने स्तर से धार्मिक शिक्षा देते हैं. उनके पास कोई मान्यता नहीं है और वे अपने धार्मिक हिसाब से चलते हैं. ऐसे कितने मदरसे हैं, इसकी कोई पुष्ट जानकारी नहीं हैं.
मान्यता प्राप्त मदरसों में आधुनिक विषय भी पढ़ाए जाते हैं. लेकिन पिछले चार बरसों के आंकड़े देखें तो इन मदरसों की परीक्षा में बैठने वाले छात्रों कि संख्या में भारी कमी आई हैं.
साल 2016 में 4,95,636 छात्रों ने आवेदन किया जिसमें से 3,17,050 छात्र परीक्षा में बैठे. उसके बाद साल 2017 में आवेदन करने वाले छात्रों की संख्या घट गई और कुल 3,70,752 छात्रों ने फॉर्म भरे और कुल 2,8,9014 छात्र परीक्षा में शामिल हुए. फिर 2018 में छात्रों की संख्या और घट गई और कुल 2,70,755 छात्रों ने आवेदन किया और कुल 2,20,804 छात्र परीक्षा देने आए. 2019 में होने वाली परीक्षा के लिए कुल 1,63,365 छात्रों ने आवेदन किया.
फ्रांस के स्कूलों में स्मार्टफोन बैन
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इसका मतलब है कि 2016 से 2019 तक आते आते 3,32,271 छात्र घट गए. बोर्ड ने छात्रों की घटती संख्या को देखते हुए फॉर्म जमा करने की आखिरी तारीख चार दिन और बढ़ा दी.
ऐसे में सवाल है कि क्या मुसलमान अब बच्चों को मदरसे में नहीं भेजना चाहते? अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में थियोलोजी विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ रेहान अख्तर बताते हैं, "हम खुद मदरसे के पढ़े हुए हैं. लेकिन सरकार से मान्यता प्राप्त मदरसों में तमाम दिक्कतें हैं. वहां सरकार की पॉलिसी लागू करने की बात होती हैं जैसे कभी वन्दे मातरम, कभी उर्दू हटाओ. वरना इसके अलावा जो मदरसे हैं वहां बच्चे बहुत तेज़ी से बढ़ रहे हैं.”
जर्मनी में बच्चों का स्कूल में पहला दिन
कैसे मनाते हैं बच्चे स्कूल का अपना पहला दिन
स्कूल का पहला दिन यादगार होता है. कुछ बच्चे उत्साहित और रोमांचित होते हैं तो कुछ दूसरे डरे हुए होते हैं. जर्मनी में स्कूल का पहला दिन परंपराओं से भरा है जिनमें कुछ तो सैकड़ों साल पुरानी हैं.
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तोहफों का डब्बा
जर्मनी में पहले दिन स्कूल जाने वाले बच्चों का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा होता है तोहफों से भरा कोणदार डब्बा जिसे जर्मन में शूलटुइटे कहते हैं. बचपन भुलाकर अगले 12-13 साल रोज स्कूल जाने की तकलीफ कम करने के लिए बच्चों को चॉकलेट और मिठाइयों का उपहार दिया जाता है. ये परंपरा 19वीं सदी के शुरू से चली आ रही है.
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नई जिंदगी
जब अगस्त या सितंबर में स्कूल शुरू होता है तो पहली क्लास में जाने वाले ज्यादातर बच्चे छह साल के होते हैं. उनमें से अधिकांश प्री-स्कूल या किंडरगार्टन में कुछ साल गुजार चुके होते हैं. ये जर्मनी में शिक्षा व्यवस्था का हिस्सा नहीं हैं. शिक्षा देने की शुरुआत पहली क्लास से ही होती है. इसलिए बच्चों और माता-पिता के लिए स्कूल का पहला साल चुनौतियों वाला होता है.
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सही बस्ता
स्कूल शुरू होने के पहले माता-पिता अपने बच्चों के लिए स्कूल बैग खरीदते हैं. इसे जर्मन में शूलरांसेन कहा जाता है. यह इस तरह बना होता है कि किताबें टेढ़ी न हों और लंच बॉक्स का खाना ना बिखरे. बाद में चलकर जींस से बने स्कूल बैग अहम हो जाते हैं लेकिन पहली क्लास के बच्चों के लिए सबसे ट्रेंडी बैग खरीदना महत्वपूर्ण होता है. इस साल स्टार वॉर्स ट्रेंड में हैं.
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जरूरी चीजें
स्कूल बैग खरीदने के बाद स्कूल में काम आने वाली जरूरी चीजों की खरीदने की बारी आती है. आखिरकार स्कूल बैग में पेन, पेंसिल, रूलर और फोल्डर जैसे सारे जरूरी औजार तो होने ही चाहिए. जर्मनी में आमतौर पर छोटे बच्चे स्कूल में लंच नहीं करते. वे सुबह का नाश्ता घर में करते हैं, दोपहर से पहले का स्नैक या पाउजेनब्रोट साथ ले जाते हैं और दिन का खाना या तो घर पर या डेकेयर सेंटर में करते हैं.
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यादगार दिन
दुनिया भर में बहुत से बच्चे स्कूल के पहले दिन क्लास के साथ फोटो खिंचवाते हैं. जर्मनी में वे अपना तोहफों का डब्बा हाथ में लिए होते हैं जो अक्सर उनसे ज्यादा बड़ा होता है. और उस पर लिखा होता है, स्कूल में मेरा पहला दिन. ज्यादातर बच्चों के लिए ये उनके बड़े दिन की पराकाष्ठा नहीं होती. इसलिए अक्सर वे उन्हें स्कूल पहुंचाने आए माता-पिता या रिश्तेदारों से तस्वीर खिंचवाने में उत्साह नहीं दिखाते .
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धार्मिक परंपरा
जर्मनी में स्कूल का पहला दिन क्लास के साथ नहीं बल्कि बच्चों के लिए एक स्वागत समारोह के साथ मनाया जाता है. इसमें बच्चों के माता-पिता, रिश्तेदार और परिवार के साथी भाग लेते हैं. इस परंपरा में ईसाई बहुल जर्मनी में गिरजे में प्रार्थना सभा की परंपरा भी शामिल है जहां बच्चों को शिक्षा के सफर पर शुभकामनाएं दी जाती हैं. कुछ स्कूल मुस्लिम छात्रों के लिए अंतरधार्मिक सभा का आयोजन करते हैं.
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अनुभवियों से मिलता निर्देश
स्कूल के पहले दिन होने वाले स्वागत समारोह में दूसरी क्लास के बच्चे और टीचर प्रदर्शनों के जरिये बताते हैं कि स्कूल कैसे चलता है. कुछ स्कूलों में पहले क्लास के बच्चों की देखभाल और मदद की जिम्मेदारी तीसरी या चौथी क्लास के बच्चों को दी जाती है ताकि वे छोटे बच्चों के तंग करने के बदले ज्ञान की खोज की नई राह पर उनका साथ दें और उनकी मदद करें.
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अपना घर समझो
स्वागत समारोह का एक हिस्सा स्कूल का भ्रमण भी होता है. पहली क्लास के बच्चों को स्कूल टूर के दौरान उनका क्लास दिखाया जाता है. स्कूल के आकार के हिसाब से क्लास 1ए, 1बी और 1सी जैसे सेक्शनों में बंटा होता है. यहां बोर्ड पर लिखा है कक्षा 1ए के बच्चों का स्वागत है. बच्चों को क्लास के अलावा वे जरूरी चीजें भी बताई जाती है जिनकी उन्हें स्कूल में आने वाले दिनों में जरूरत होगी.
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पारिवारिक समारोह
स्कूल का औपचारिक समारोह खत्म हो जाने के बाद परिवार में जश्न मनाने की बारी आती है. मात-पिता अक्सर नाना-नानी, दादा-दादी और दूसरे रिश्तेदारों को खाने पर या शाम में केक पर बुलाते हैं ताकि वे युवा छात्र को शिक्षा की साहसिक डगर पर सम्मान के साथ विदा कर सकें. बच्चों के लिए यह मौका तंग होने के बदले खुशी का होता है क्योंकि मेहमान उनके लिए तोहफे लेकर आते हैं.
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असली पहला दिन
समारोह खत्म हो जाने, केक खा लिए जाने और तोहफों के डब्बे खोल लिए जाने के बाद आता है स्कूल का सचमुच का पहला दिन. बच्चों को अकेले अपनी क्लास खोजनी होती है. जर्मनी में प्राइमरी स्कूलों में आम तौर पर पहली से चौथी क्लास तक की पढ़ाई होती है. उसके बाद छात्र माध्यमिक शिक्षा के लिए तीन प्रकार के स्कूलों में से एक का चुनाव करते हैं.
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लखनऊ में ऐशबाग ईदगाह के इमाम मौलाना खालिद रशीद फरंगी महली भी ऐसी ही बात बताते हैं. उनके अनुसार, "ये मदरसे बोर्ड से मान्यता वाले हैं. इनमें बहुत से मदरसे शर्तें पूरी ना कर पाने से हटा दिए गए. आज भी जो प्राइवेट मदरसे हैं वहां पर बच्चों की संख्या बहुत हैं. हम लोग एडमिशन नहीं दे पाते सबको इतनी सीटें नहीं होती हैं.”
भाजपा की सरकार ने मदरसों के लिए कई कदम उठाए हैं. अधिकारियों के अनुसार मदरसा पोर्टल शुरू करके सारी जानकारी ऑनलाइन कर दी हैं. मान्यता की जांच हो रही हैं. पहले प्रदेश में 19,125 मदरसे थे जो जांच के बाद केवल 13,296 रह गए. यानी 3,250 मदरसे हटा दिए गए.
साय्यदा खतीजा लखनऊ में गृहिणी हैं और उनके बच्चे शहर के प्रतिष्ठित स्कूल में पढ़ते हैं. वो कहती हैं, "धार्मिक शिक्षा ज़रूरी हैं लेकिन हमको ज़माने के साथ चलना हैं. बच्चों को आगे जाकर नौकरी भी करनी हैं. हमने घर पर ही धार्मिक शिक्षा का प्रबंध किया हैं और बच्चे स्कूल जाते हैं.”
"इस स्कूल में हमारी पगड़ी नहीं उतारी जाती"
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अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में पीएचडी कर रहे सलमान अहमद बताते हैं, "हमारे देखते देखते कई मदरसे बंद हो गए हैं. हमारे मोहल्ले के बच्चे भी अब स्कूल में जाते हैं.”
एमए (ह्यूमन राइट्स) के छात्र अहमद मुजतबा फराज कहते हैं, "जब मदरसे के बच्चों को टारगेट करेंगे. उनको मार देंगे. हमला होगा. ऐसे माहौल में असर तो पड़ेगा. जब समाज का माहौल ऐसा होगा तो कौन भेजेगा.”
लेकिन यह भी सच है कि मदरसे की शिक्षा से नौकरी पाना वाकई मुश्किल हैं. शायद ही किसी सरकारी नौकरी में ये योग्यता काम आती हो. सभी जगह इनकी डिग्री भी मान्य नहीं हैं, ऐसे में समय के साथ चलना ज़रूरी हो गया हैं.
कुल मिलाकर अब हर मुस्लिम परिवार चाहता हैं कि उसके बच्चे आधुनिक शिक्षा लें जो रोजगारपरक हो और वे अपनी जिंदगी में कुछ कमी कर सके. आम मुसलमान धार्मिक शिक्षा के खिलाफ नहीं हैं लेकिन उसकी प्राथमिकता अब मौजूदा वक्त में बदल गई है. उसे समझ आ गया है कि नौकरी आधुनिक शिक्षा से ही मिलेगी.
पाकिस्तान में बच्चे नहीं जाते स्कूल
आतंक की मार झेल रहे पाकिस्तान में आज करोड़ों बच्चे स्कूलों से बाहर हैं. देश में 5 से 16 साल के तकरीबन 45 फीसदी बच्चे अब भी स्कूल नहीं जाते. हालांकि पिछले सालों में कुछ सुधार जरूर हुआ लेकिन हालात अब भी चिंताजनक हैं.
तस्वीर: DW/A. Saleem
शिक्षा का स्तर
पाकिस्तान के शिक्षा मंत्रालय की ओर से जारी आंकड़ों के मुताबिक देश के कुल 5.12 करोड़ बच्चों में से तकरीबन 2.26 करोड़ बच्चों का स्कूलों में नाम तक दर्ज नहीं हुआ है.
तस्वीर: DW/A. Saleem
बेहाल अर्थव्यवस्था
साल 2015-16 के आंकड़ें बताती इस रिपोर्ट में शिक्षा की बदहाल स्थिति के कारणों का स्पष्ट खुलासा तो नहीं किया गया है, लेकिन रिपोर्ट की सह-लेखक ने इसके लिये विवादों और बेहाल अर्थव्यवस्था को मुख्य कारण बताया.
तस्वीर: Front Line Media
2012 से बेहतर
हालांकि साल 2012 में ऐसे बच्चों का आंकड़ा 2.6 करोड़ से भी अधिक था, लेकिन सेना द्वारा कई हिस्सों को अपने नियंत्रण में ले लेने के बाद वहां हालात सुधरे और इन आंकड़ों में कमी आई है.
तस्वीर: UNICEF/UNI46382/Isaac
अर्थव्यवस्था की दर
पिछले लंबे समय से संघर्ष और ऊर्जा की कमी झेल रहे पाकिस्तान में अब स्थिति बेहतर होती नजर आ रही है. जून में समाप्त हो रहे इस वित्त वर्ष के दौरान पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था के 5 फीसदी की दर से बढ़ने का अनुमान है.
तस्वीर: DW/F.Khan
बलूचिस्तान के हालात
रिपोर्ट के मुताबिक तकरीबन 1.20 करोड़ लड़कियां और 1 करो़ड़ लड़के शिक्षा से वंचित हैं. बलूचिस्तान प्रांत के करीब 70 फीसदी बच्चे इससे सबसे अधिक प्रभावित है. बलूचिस्तान प्रांत की सीमा अफगानिस्तान और ईरान को छूती है.