जर्मनी में हर तीसरी महिला अस्पताल जाने से डरती है. पुरुषों की हालत महिलाओं से बेहतर है लेकिन बहुत बेहतर नहीं. हर चौथा पुरुष भी अस्पताल जाने से डरता है.
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जर्मनी की चिकित्सा व्यवस्था बहुत अच्छी मानी जाती है. लगभग सभी लोगों के पास स्वास्थ्य बीमा है जिसकी वजह से उन्हें डॉक्टरों या अस्पतालों पर होने वाले खर्च की बहुत चिंता नहीं होती. लेकिन फिर भी बहुत से लोग अस्पताल जाने से डरते हैं. डरने वालों में महिलाओं का अनुपात ज्यादा है. एक सर्वे के अनुसार 32 प्रतिशत महिलाएं क्लीनिक में इलाज कराने से डरती हैं. अस्पताल से डरने के मामले में पुरुषों की हालत महिलाओं से थोड़ी बेहतर है. फिर भी हर चौथे यानी करीब 25 प्रतिशत पुरुषों को क्लीनिक में रहकर इलाज कराने से डर लगता है.
यह सर्वे स्वास्थ्य बीमा कंपनी केकेएच के लिए प्रसिद्ध संस्था फोरसा ने किया है. फोरसा के सर्वे के अनुसार अस्पतालों से लोगों के डर की कई वजहें हैं. लेकिन हर तीसरा मरीज डर की वजह अस्पतालों में हुए अपने पुराने अनुभव को बताता है. बहुत से मरीज अस्पताल में भर्ती होने से पहले बीमारी के बारे में विस्तृत जानकारी चाहते हैं. बीमारी, इलाज के तरीके और अस्पताल के बारे में भी वे जानकारी चाहते हैं. सर्वे में भाग लेने वाले तीन चौथाई लोग इंटरनेट से जानकारी जुटाते हैं, तो दो तिहाई इसके लिए अपने जानने वालों के अनुभवों पर भरोसा करते हैं.
सर्वे के अनुसार जिन लोगों को अस्पताल जाने में डर लगता है, उनमें से 81 फीसदी को अस्पताल में इंफेक्शन हो जाने का डर लगता है. जर्मनी के अस्पतालों में मल्टी रेसिस्टेंट रोगाणुओं की समस्या है. एक तो नियमित सफाई के बावजूद वहां रोगाणु पूरी तरह से दूर नहीं होते, तो दूसरी ओर एंटीबायोटिक का असर नहीं होने के कारण वे पूरी तरह से खत्म नहीं होते. मल्टी रेसिस्टेंट रोगाणु इंसान से इंसान में आसानी से संक्रमण फैलाते हैं. हर दूसरे मरीज को फिर से ऑपरेशन किए जाने या एनेस्थीशिया के दौरान जटिलता पैदा होने का डर लगता है.
बहुत से मरीजों की चिंता और भी होती है. उन्हें जख्म के जल्दी नहीं भरने या दवाओं और चिकित्सीय सामानों के अच्छी क्वॉलिटी के न होने का डर भी सताता है. ऑपरेशन के बाद कभी कभी यहां भी पुर्जे शरीर के अंदर छूट जाते हैं. इसलिए अस्पताल से डरने का तीसरा बड़ा कारण ऑपरेशन के पुर्जों का शरीर में छूटना और दवाओं को बर्दाश्त न करना होता है. इस सर्वे के लिए पिछली जुलाई में 18 से 70 साल की उम्र के करीब 1000 जर्मन नागरिकों से सवाल पूछे गए थे.
सफर के लिए ट्रेन का इस्तेमाल तो आपने बहुत बार किया होगा. लेकिन क्या ट्रेन में अपना इलाज कराया है. देश में चलने वाली इस लाइफलाइन एक्सप्रेस में मरीजों का न सिर्फ प्राथमिक इलाज होता है बल्कि यह ट्रेन ऑपरेशन भी करती है.
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लाइफलाइन एक्सप्रेस
लाइफलाइन एक्सप्रेस भारतीय रेलवे में साल 1991 में शामिल हुई थीं. मकसद था दूर-दराज के इलाकों में मोतियाबिंद, पोलियो, जैसे रोगों के मरीजों की सर्जरी और इलाज में मदद करना. साल 2016 से इसकी सेवाओं में विस्तार में हुआ. अब इस ट्रेन में स्तन और गर्भाशय के कैंसरों की सर्जरी भी होने लगी है.
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दस लाख से अधिक मरीज
लाइफलाइन एक्सप्रेस पिछले तीन दशकों से दूर-दराज के इलाकों में मुफ्त चिकित्सा सेवाएं दे रही है. अब तक यह ट्रेन दस लाख से अधिक लोगों की मदद कर चुकी है. अपने इस सफर में यह ट्रेन एक जिले में करीब महीने भर तक रुकती है. कोशिश है सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली को बेहतर करना.
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डॉक्टर और स्टाफ
इस ट्रेन अस्पताल में दो ऑपरेशन थियेटर और 20 लोगों का स्टाफ है. अधिकतर डॉक्टर यहां मुफ्त में काम करते हैं. इसमें काम करने वाली महक सिक्का कहती हैं कि उन्होंने हेल्थ सेंटर्स की खराब हालत को देखने के बाद इस ट्रेन अस्पताल को ज्वाइन किया.
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जागरुक बनाना है उद्देश्य
महक कहती हैं कि ग्रामीण इलाकों में महिलाओं के लिए स्वास्थ्य सेवाएं नहीं है. यहां तक कि महिलाओं कि किसी स्त्रीरोग विशेषज्ञ तक पहुंच ही नहीं है. उन्होंने कहा कि हमारी कोशिश न सिर्फ मरीज का इलाज करना है बल्कि स्थानीय डॉक्टरों और लोगों को स्वास्थ्य सेवाओं के बारे में जागरुक बनाना भी है.
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स्थानीय डॉक्टर की भूमिका
ट्रेन में ऑपरेशन थियेटर की साफ-सफाई का भी खासा ध्यान रखा जाता है. जब इस ट्रेन के ऑपरेशन थियेटर में कोई ऑपरेशन हो रहा होता है तो एक स्थानीय डॉक्टर को भी अपने साथ रख जाता है. ताकि मरीज को आगे के इलाज में समस्या न आए.
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लोगों को भरोसा
ग्रामीण क्षेत्रों में सरकारी स्वास्थ्य केंद्र ही सबसे अहम हैं. लेकिन देश की एक बड़ी आबादी स्वास्थ्य क्षेत्र में बुनियादी ढांचे और डॉक्टरों की कमी से जूझ रही है. ट्रेन के कर्मचारी बताते हैं कि पहले लोग ट्रेन में होने वाले ऑपरेशन को लेकर काफी चिंतित होते थे. लेकिन सब सुविधाओं को देखने के बाद अब उनका विश्वास बढ़ा है.
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ट्रेन में 1.30 लाख ऑपरेशन
ट्रेन अस्पताल के डिप्टी प्रोजेक्ट डायरेक्टर अनिल दारसे के मुताबिक लॉन्च के बाद से ट्रेन में करीब 1.30 लाख ऑपरेशन हो चुके हैं. और यह देश के करीब 191 जगहों को पार कर चुकी है.
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ये चलाते हैं
इस लाइफलाइन एक्सप्रेस को एक गैर सरकारी संस्था इम्पैक्ट इंडिया फाउंडेशन, सरकार के साथ मिलकर चला रही है. इस पहल को विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) समेत संयुक्त राष्ट्र की बाल कल्याण संस्था यूनिसेफ का भी सहयोग मिल रहा है. अब दूसरी लाइफलाइन एक्सप्रेस चलाने की भी तैयारी की जा रही है.