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समाज

क्यों न हो आंदोलनों में बच्चों की भागीदारी

शिवप्रसाद जोशी
१२ फ़रवरी २०२०

सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली के शाहीन बाग आंदोलन में बच्चों की भागीदारी के बारे में केंद्र और दिल्ली सरकार को नोटिस जारी किया है. लेकिन कई नागरिक यह सवाल उठा रहे हैं कि आखिर बच्चे विरोध क्यों ना करें.

Indien Shaheen Bagh aus Kolkata
तस्वीर: DW/S. Bandopadhyay

पिछले दिनों धरना स्थल पर एक नवजात शिशु की मौत हो जाने के मामले पर सुप्रीम कोर्ट ने स्वतः संज्ञान लेते हुए एक नोटिस जारी किया है. खबरों के मुताबिक चीफ जस्टिस एसए बोबड़े की अगुवाई वाली बेंच ने सवाल किया कि चार महीने के बच्चे को ऐसे विरोध प्रदर्शनों में कैसे ले जाया जा सकता है. राष्ट्रीय वीरता पुरस्कार प्राप्त छात्रा जेन गुनरत्न सदावर्ते की चिट्ठी भी कोर्ट को मिली थी जिसमें किसी भी तरह के प्रदर्शन और आंदोलन में नाबालिगों की भागीदारी पर रोक की मांग की गई थी. हालांकि ये दिलचस्प है कि जैसे सदावर्ते का पक्ष है वैसा  शाहीन बाग के बच्चों का भी है. दोनों पक्ष अलग अलग ढंग से मुखर हैं और थोपे हुए नहीं लगते हैं.

पिछले महीने राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग ने भी जिलाधीश को नोटिस भेजकर धरनास्थल पर मौजूद बच्चों की पहचान और काउंसिलिंग कराने को कहा था. आयोग ने कथित तौर पर आशंका जताई थी कि संभवतः बच्चों को मानसिक आघात पहुंच रहा है.

एक खबर के मुताबिक इसी आयोग की पूर्व अध्यक्ष शांता सिन्हा ने आयोग की कार्रवाई को गैरजरूरी बताया है. उनके मुताबिक विरोध में भागीदारी बच्चों का बुनियादी अधिकार है. जनवरी के आखिर में स्वतंत्र रूप से विशेषज्ञों की एक टीम ने भी शाहीन बाग का दौरा कर पता लगाया कि आयोग का डर निराधार है. टीम में अकादमिक विशेषज्ञ और मनोवैज्ञानिक शामिल थे. उनके मुताबिक शाहीन बाग का माहौल बच्चों के लिए ‘रचनात्मक' है. उनके लिए ये एक तरह से ‘ज्वॉय ऑफ लर्निंग' है.

वैसे संयुक्त राष्ट्र भी विरोध करने के बच्चों के अधिकार को मान्यता देता है. लेकिन शिशु की मौत एक अप्रत्याशित दुखद घटना जरूर कही जा सकती है लेकिन इससे ये नहीं साबित होता कि धरने पर बैठी उसकी मां या अन्य महिलाएं या सभी प्रदर्शनकारी स्वार्थी, बेदिल और अमानवीय हैं बल्कि ये तो उनका साहस और धैर्य ही दिखाता है. तकलीफों और गमों को जज्ब कर विरोध प्रदर्शन से न उठने का हौसला यूं ही नहीं आता, ये भी समझने की जरूरत है. जिन मांओं के बच्चे बहुत छोटे या नवजात हैं वे भी उन्हें लेकर धरना स्थल पर गयी हैं. शायद उनके दिलोदिमाग में महात्मा गांधी का कथन गूंज रहा होः करो या मरो.

दिल्ली के शाहीन बाग में विवादित नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ प्रदर्शनों का नेतृत्व करती महिलाएं. तस्वीर: picture-alliance/AA/J. Sultan

इस बीच शाहीन बाग के आंदोलनकारियों का बयान भी सामने आया है कि ये कहना कि अपने दमन को समझने के लिए बच्चा बहुत अपरिपक्व है, ये दमन को कम करके आंकना है और उसे इस तरह कमतर बना देना है कि मानो जो उत्पीड़न के तरीकों के बारे में जानते हैं वही उसे महसूस भी कर सकते हैं. बयान में दावा किया गया है कि धरना स्थल पर बहुत छोटे बच्चों का विशेष रूप से ख्याल रखा गया है. खानेपीने के अलावा दवा प्राथमिक चिकित्सा तो है ही, नजदीक ही अस्पताल भी हैं. उनकी पढ़ाई लिखाई, खेलकूद और मनोरंजन के लिए तो यथोचित्त साधन वहां पर जुटाए गए हैं जिनमें कामचलाऊ लेकिन कामयाब लाइब्रेरी भी शामिल है.

बच्चों की भागीदारी के सवाल पर नोटिस का जवाब मिल जाने के बाद कोर्ट जो भी फैसला सुनाए, उम्मीद करनी चाहिए कि वो शायद उन तमाम मिसालों को भी ध्यान रखेगा जो इतिहास से लेकर आज तक समकालीन समय में बच्चों के जरिए बनती आई हैं. बताया जाता है कि भगत सिंह करीब 12 साल के थे जब जालियांवाला बाग कांड की भयावहता का मंजर देखने उस दिन कुछ घंटों बाद वहां गए थे. मजदूरी, यौन शोषण और तस्करी जैसी जघन्यताओं के विरोध में मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और संगठनों के साथ बच्चों ने भागीदारी कर जुलूस निकाले हैं और विरोध दर्ज कराया है.

बात अंग्रेजी हुकूमत के अलग अलग दौर की है लेकिन शाहीन बाग के बयान में रानी लक्ष्मीबाई का उल्लेख है जो अपनी पीठ में अपने बच्चे को बांधकर युद्ध के मैदान में कूद पड़ी थी. और महात्मा गांधी के दो साल के पोते कानु का भा जिक्र है जो दांडी मार्च में अपने दादा के आगे आगे चला था. कोर्ट को आठ साल की लिकीप्रिया कंगुजाम, 12 वर्षीय ऋद्धिमा पांडे, 15 साल के आदित्य मुखर्जी, 17 साल की ग्रेटा थुनबर्ग और तालिबानी कट्टरपंथियों का निशाना बनी मलाला की भी याद दिलाई गयी.

पिछले दिनों कर्नाटक के एक स्कूल में कथित तौर पर सीएए विरोधी एक नाटक में भाग लेने वाले बच्चों को घंटों पूछताछ के लिए पुलिस थाने पर बुलाती रही. इस बारे में एक मानवाधिकार याचिका कर्नाटक हाईकोर्ट में दायर की गयी है. पुलिस के इस कृत्य को कैसे देखा जाए.

अगर कोर्ट को या किसी और संवेदनशील नागरिक को धरना स्थल पर बच्चों का होना खलता है तो ये सवाल उठना लाजिमी है कि ऐसी परवाह उन बच्चों की भी क्यों नहीं की जानी चाहिए जो अपने मां बाप के साथ शहर दर शहर, सड़कों की धूल फांकते, इमारतों, सड़कों पुलों जैसी निर्माण परियोजनाओं में दिन रात नंगधड़ंग और धूलधूसरित हैं. जिनके लिए सीमेंट के बोरे और रेत का ढेर ही बिछावन हैं और ईंटें खड़ी कर बनाई गई गुमटी ही दीवारें और छतें हैं.

बाल अधिकारों की लड़ाई पर एक नोबेल इस देश के पास आ चुका है लेकिन क्या नोबेल भी उस भयानक खूंखार जाल को तोड़ पाया है जिसमें ये बच्चे घिरे हुए हैं? बच्चों का शोषण विभिन्न रूपों में घरों स्कूलों से लेकर सड़कों, फैक्ट्रियों और कारखानों तक पसरा हुआ है. ये हम कैसे छिपाएंगे कि बाल मजदूरी से मुक्ति की लड़ाई व्यापक होना तो दूर अभी अधूरी है. धार्मिक जुलूसों, जलसों और आयोजनों की भगदड़ की घटनाओं के शिकार बच्चे हों या बस्ते और पढ़ाई के बोझ से लदे बच्चे. स्कूली बसों, टैम्पू, वैन, ऑटोरिक्शा आदि में कभी देखिए. तमाम शहरों से खबरें आती हैं सड़क हादसों और अव्यवस्थाओं की- इन पर तत्काल प्रभाव से ध्यान देने की जरूरत है.

जरूरत इस बात की है कि बच्चों के लिए सुरक्षित और न्यायोचित्त माहौल हर जगह बनाया जाए, इसमें शाहीन बाग भी अपवाद नहीं. बच्चों को सकारात्मक दिशा में विकसित होने में मदद की जाए लेकिन उन्हें नागरिक जिम्मेदारियों का अहसास दिलाने वाला सबक भी मिलना जरूरी है. इन तमाम हालात के बीच अगर शाहीन बाग जैसी एक जगह नागरिक चेतना की अभिव्यक्ति का केंद्र बनती है और इसमें बच्चे भी अपनी हैसियत से भागीदार बनते हैं तो इस पर रोष या शक करने के बजाय एक सचेत नागरिक के रूप मे बच्चों का विकास और लोकतंत्र का विकास हमें देखना चाहिए. उन मांओं को डपटने के बजाय अपना ध्यान रखने की विनम्र सलाह देनी चाहिए जो अपने नवजात बच्चों के साथ वहां पर हैं.

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