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क्यों भारत तरस जाता है पदकों के लिए

अशोक कुमार ११ अगस्त २००८

खेलों के महाकुंभ ओलंपिक में दुनिया के साढे 10 हजार खिलाड़ियों के बीच मुकाबला हो रहा है. यह लड़ाई है सोने का तमगा हासिल करने की और अपनी काबलियत का लोहा मनवाने की. लेकिन बहुत से भारतीय इस लड़ाई में पिछड़ जाते हैं.

सबको पदकों की आसतस्वीर: AP

भारत की तरफ से भी 56 खिलाड़ी पेइचिंग ओलंपिक में हिस्सा लेने पहुंचे हैं. वे निशानेबाजी, तीरंदाजी, मुक्केबाजी, बैंटमिंटन, टेबलटेनिस और टेनिस जैसे कई खेलों में हिस्सा ले रहे हैं. पदक की उम्मीद जगती तो है लेकिन वह अभी है काफी दूर. ऐसे में भारतीय खिलाड़ियों से क्या उम्मीद करें? पेशे से रेडियो जॉकी गौरव कहते हैं, 'मैं तो सकारात्मक सोच ही रखता हूं. लिएंडर पेस, महेश भूपति, सानिया मिर्जा, राज्यवर्धन सिंह राठौर जैसे कई खिलाड़ी हैं जिनसे पदक की उम्मीद की जा सकती है.'

पदकों को तरसता भारत

बेशक उम्मीद पर तो दुनिया चलती ही है. लेकिन खेल की दुनिया में चीजें आकंड़ों से तय होती हैं. और आंकड़े कहते हैं कि भारत ने आखिरी बार 1980 में मॉस्को ओलंपिक के दौरान हॉकी में स्वर्ण पदक जीता था. इसके बाद उसके हाथ इक्का दुक्का कांस्य पदक ही लगे हैं. पिछली बार एथेंस में निशानेबाजी में राज्यवर्धन सिंह राठौड़ ने रजत पदक हासिल किया. लेकिन स्वर्ण पदक का इंतजार जारी है. दिल्ली में पार्ट टाइम इंजीनयरिंग करने वाले संजय कहते हैं कि चार साल बाद ओलंपिक आता है और जब पदकों की सूची में भारत का नाम बड़ी मुश्किल से ढूढने से मिलता है तो काफी निराशा होती है.

पेइचिंग में जारी है खेलों का महाकुंभतस्वीर: dpa

'सब हैं जिम्मेदार'

आर्थिक और तकनीकी क्षेत्र में अपनी काबलियत का झंडा दुनिया में बुलंद कर रहे भारत में क्या खेल प्रतिभाओं की कमी है? पेशे से एचआर मैनेजमेंट से जुड़ी निधि कहती हैं, 'भारत में प्रतिभाओं की कोई कमी नहीं है. कमी है तो प्रतिभा को पहचानने की और उन्हें सुविधाएं देने की और ओलंपिक जैसे अतरराष्ट्रीय मुकाबलों के लिए तैयार करने की.' कुछ ऐसा ही मानना है पेश से पत्रकार तुषार का. भारतीय खिलाड़ियों से उन्हें उम्मीद है तो लेकिन वह यह भी मानते हैं कि सिर्फ उम्मीद से तो पदक हासिल नहीं किए जा सकते. इसके लिए वह बहुत सारी चीजें जिम्मेदार हैं. वह कहते हैं, 'इसमें खेल प्राधिकरण, मीडिया और आम लोग सभी जिम्मेदार हैं. हमें अपने इन खिलाड़ियों की याद ही तब आती है जब ओलंपिक जैसी कोई बड़ी प्रतियोगिता आने वाली होती है. फिर हम यह भी उम्मीद लगाते है कि कोई चमत्कार हो जाए. हम स्वर्ण पदक जीत जाए.'

'क्रिकेट ने किया कबाडा़'

खेलों के प्रशासनिक ढांचे को तो दुरुस्त करने की जरूरत है ही. लेकिन बहुत से लोग इस निराशाजनक तस्वीर के लिए क्रिकेट को भी जिम्मेदार मानते हैं. आलम यह है कि बाकी खेलों में कॉमनेल्थ, एशियाड या फिर वर्ल्ड चैंपियनशिप जैसे बड़ी प्रतियोगिताओं में पदक जीतने वाले खिलाड़ियों को मीडिया और आम लोग अनदेखा कर देते हैं. निधि कहती हैं, 'पहले तो मीडिया और फिर लोगों की नजर में क्रिकेट के अलावा दूसरे खेलों की कोई अहमयित ही नहीं है. क्रिकेट खिलाड़ियों को सर आंखों पर बिठाया जाता है, जबकि दूसरे तीरंदाजी, निशानेबाजी, बैडमिंटन और टेबल टेनिस जैसे खेलों से जुड़े खिलाड़ी अगर बड़ी चैंपियनशिप में जीतकर भी आते हैं तो उन्हें ज्यादा भाव ही नहीं दिया जाता.' यही वजह है कि भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड दुनिया का सबसे अमीर क्रिकेट बोर्ड है. क्रिकेट खिलाड़ियों पर पैसा भी खूब बरसता है. न सिर्फ खेल के मैदान में, विज्ञापनों के जरिए भी वे वारे न्यारे कर रहे हैं.

पेइचिंग के बर्ड्स नेस्ट स्टेडियम में हुई भव्य शुरुआततस्वीर: AP Images

बुनियादी सुविधाओं की कमी

उधर दूसरे खेल बुनियादी सुविधाओं के लिए भी तरस रहे हैं. तुषार कहते हैं, 'मैंने कही पढ़ा कि ओलंपिक से कुछ दिनों पहले बैडमिंटन के खिलाड़ियों की शट्ल कॉक खत्म हो गई. और बढिया क्वॉलिटी शट्ल कॉक विदेश में बनती है. इसी वजह से उनकी प्रैक्टिस कई दिन तक रूकी रही. क्या क्रिकेट में कोई इस बात की कल्पना भी कर सकता है कि बैट या फिर बॉल न होने से खिलाड़ी अभ्यास न कर पाएं. अब ऐसे हालात होंगे तो उसका खमियाजा ओलंपिक जैसे आयोजनों में भुगतना ही पड़ेगा.' शायद यही वजह है कि सौ करोड़ से ज्यादा की आबादी वाला देश भारत बरसों से एक ओलंपिक स्वर्ण की बाट जो रहा है. लेकिन गौरव का कहना है, 'हमारे खिलाड़ी इस बार जरूर कुछ अच्छा करेंगे. ये कोई बात नहीं है कि अगर हम पहले नहीं जीते हैं तो इस बार भी नहीं जीतेंगे. उम्मीद है भारतीय खिड़ालियों का प्रदर्शन इस बार बेहतर रहेगा और पदक भी पहले से ज्यादा होंगे.'

हॉकी में क्वॉलिफाई तक नहीं कर पाए भारतीयतस्वीर: picture-alliance/ dpa
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