कांग्रेस, एनसीपी और शिव सेना सत्ता के लिए साथ आ तो गए हैं, लेकिन क्या एक दूसरे की विपरीत विचारधाराओं के विरोधाभास को लेकर साथ चल भी पाएंगे?
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शिव सेना प्रमुख उद्धव ठाकरे ने महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ले तो ली है, लेकिन जिस गठबंधन सरकार के नेतृत्व का उन्होंने बीड़ा उठाया है वह महाराष्ट्र के लिए ही नहीं पूरे देश की राजनीति के लिए एक नया प्रयोग है. शिव सेना, कांग्रेस और एनसीपी के इस गठबंधन में एनसीपी कांग्रेस से ही निकली हुई पार्टी है, इसलिए दोनों पार्टियों की वैचारिक नींव एक ही है. दोनों पार्टियां पिछले 15 सालों से गठबंधन में भी हैं.
शिव सेना की वैचारिक पृष्ठभूमि इन दोनों से बिलकुल विपरीत है. जहां कांग्रेस और एनसीपी को लेफ्ट और सेंटर-लेफ्ट समझा जाता है, सेना को एक हिन्दू राष्ट्रवादी पार्टी के रूप में जाना जाता है. इसके अलावा सेना की राजनीति का एक और चेहरा है, महाराष्ट्र में प्रवासियों के मुकाबले राज्य के स्थानीय लोगों को ज्यादा अवसर के लिए संघर्ष करने वाली पार्टी का.
वास्तव में सेना का जन्म इसी मांग को ले कर 1966 में हुआ था, जब मुंबई में रहने वाले कार्टूनिस्ट बाल ठाकरे ने छह साल प्रवासी विरोधी कार्टून छापने के बाद अपनी मुहिम को राजनीतिक मोड़ देने का फैसला किया. उसके बाद से ठाकरे और उनकी सेना लगभग एक अर्ध शताब्दी तक महाराष्ट्र की राजनीति पर एक किंगमेकर के रूप में हावी रहे.
शिव सेना ने कई प्रवासी विरोधी अभियान छेड़े और इनमें शिव सैनिकों ने अक्सर मार-पीट और हिंसक गतिविधियों का भी सहारा लिया. सत्तर के दशक से सेना ने हिंदुत्व की राजनीति को अपनाना शुरू किया. 80 के दशक में वो राम मंदिर आंदोलन से भी जुड़ गई और बाबरी मस्जिद को गिराने के आंदोलन में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया. तब से शिव सेना को उसकी धुर मुस्लिम विरोधी राजनीति के लिए जाना जाता है.
दिसंबर 1992 में मस्जिद गिराए जाने के बाद देश भर में जो दंगे हुए उनमें मुंबई के दंगों के लिए शिवसेना पर भी आरोप लगते हैं. इन दंगों में मुंबई में कम से कम 900 लोग मारे गए थे. बाल ठाकरे को 2000 में दंगों में उनकी कथित भूमिका के लिए हिरासत में भी लिया गया था पर जल्द ही उन्हें तकनीकी कारणों की वजह से छोड़ दिया गया.
आज समीक्षकों की दिलचस्पी यही देखने में है कि जिस पार्टी की ऐसी विरासत है उसके साथ कांग्रेस और एनसीपी कैसे रिश्ता निभा पाएंगी.
गठबंधन को भी ये अहसास है कि सबसे ज्यादा समीक्षा इसी सवाल पर होगी. इसीलिए गठबंधन का जो साझा न्यूनतम कार्यक्रम तैयार किया गया है, उसकी पहली ही लाइन में 'सेक्युलर' शब्द का जिक्र है. कार्यक्रम की प्रस्तावना की पहली लाइन कहती है, "गठबंधन के सहयोगी दल संविधान में प्रतिस्थापित 'सेक्युलर' मूल्यों को कायम रखने के प्रति प्रतिबद्धता व्यक्त करते हैं." दूसरी लाइन में लिखा है कि जब भी गठबंधन में कोई विवाद जन्म लेगा तो तीनों दल साथ बैठ कर उसपर विमर्श करेंगे और सहमति बनाएंगे.
इस शब्द पर सेना की व्यग्रता पहले ही दिन देखने को मिली, जब बतौर मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने अपनी पहली प्रेस वार्ता का सामना किया. वार्ता में उनसे पूछा गया कि क्या अब शिव सेना 'सेक्युलर' हो गई है? इस सवाल पर वो थोड़ा विचलित हुए और सवाल का जवाब सवाल से ही देते हुए बोले, "पहले आप मुझे बताइये कि 'सेक्युलर' का मतलब क्या होता है?" फिर कुछ क्षणों में अपने आप को संभालते हुए वो बोले, "जो संविधान में लिखा हुआ है, वही मतलब है."
इस एक घटना ने साबित कर दिया कि समीक्षकों की चिंता सही है. एकदम विपरीत विचारधारा की राजनीति करती आई इन तीनों पार्टियों के लिए अचानक एक साझा कार्यक्रम पर काम करना बहुत मुश्किल है. अगर ये सरकार सफल हो गई तो ये तीनों पार्टियां भारत की राजनीति में एक नया अध्याय लिख जाएंगी.
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जब दो प्रतिद्वंदी पार्टियों ने मिलाए हाथ
शिवसेना पहले समान विचारधारा वाली भाजपा के साथ थी. अब महाराष्ट्र में एकदम विपरीत विचारधारा वाली कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन और शिवसेना के बीच सरकार को लेकर बात चल रही है. जानिए कब-कब विपरीत विचारधारा वाले दलों ने किया गठबंधन.
तस्वीर: picture alliance/AP Photo/Anand
आरजेडी-जेडीयू -कांग्रेस
लालू यादव और नीतीश कुमार एक साथ छात्र आंदोलनों से निकले थे. लेकिन जल्दी ही वो राजनीति में कट्टर विरोधी हो गए. 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में ये दोनों विरोधी कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़े. दोनों नेता कांग्रेस के खिलाफ हुए छात्र आंदोलनों के ही अगुआ थे. 2015 में इस गठबंधन ने सरकार बनाई जो ज्यादा दिन ना चल सकी और गठबंधन टूट गया.
तस्वीर: UNI
बीजेपी-टीएमसी
आज की राजनीति में टीएमसी अध्यक्ष ममता बनर्जी बीजेपी की मुखर विरोधी हैं. लेकिन ममता पहले बीजेपी नेतृत्व वाली सरकार में मंत्री रह चुकी हैं. 1997 में कांग्रेस से अलग होकर टीएमसी बनाने के बाद 1999 में उन्होंने भाजपा से गठबंधन किया. ममता बनर्जी अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में रेल मंत्री भी रहीं. 2006 में उन्होंने एनडीए गठबंधन छोड़ दिया.
तस्वीर: DW/P. Mani Tiwari
बीजेपी-पीडीपी
जम्मू कश्मीर की पार्टी पीडीपी और बीजेपी के बीच 2015 के विधानसभा चुनावों के बाद गठबंधन हुआ. पीडीपी को कश्मीर को ज्यादा अधिकार की वकालत करती है जबकि बीजेपी इसके खिलाफ है. तीन साल तक यह गठबंधन चला जो 2018 में खत्म हो गया. बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने बाद में इसे बेमेल गठबंधन कहा था.
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आरजेडी-कांग्रेस
लालू यादव जयप्रकाश नारायण के आंदोलन के सक्रिय चेहरों में से एक थे. उनका पूरा आंदोलन कांग्रेस के खिलाफ था. लेकिन अब लालू की पार्टी आरजेडी कांग्रेस की सबसे करीबी पार्टियों में से है. 1997 में लालू ने जनता दल से अलग होकर अपनी पार्टी आरजेडी बनाई. लेकिन 2004 में लालू गठबंधन में शामिल हो गए. 2009 में ये गठबंधन टूट गया. लेकिन 2014 के बाद से दोनों पार्टियां साथी बने हुए हैं.
तस्वीर: imago/Hindustan Times
कांग्रेस-डीएमके
तमिलनाडू की पार्टी डीएमके की राजनीति की शुरुआत कांग्रेस के विरोध से ही हुई. डीएमके नेता अन्नादुरई ने तमिलनाडू से कांग्रेस का सूपड़ा साफ कर दिया था. कांग्रेस राजीव गांधी की हत्या में डीएमके नेता करुणानिधि की भूमिका पर सवाल उठी थी. 2004 में डीएमके केंद्र में कांग्रेस सरकार का हिस्सा बनी. यह गठबंधन 2013 तक चला. 2019 के लोकसभा चुनाव में फिर ये पार्टियां साथ आ गईं.
तस्वीर: picture-alliance/AP Photo/A. Sankar
एनसीपी-कांग्रेस
जब सोनिया गांधी पहली बार कांग्रेस की अध्यक्ष बनीं तो शरद पवार, तारिक अनवर और पीए संगमा ने उनके विदेशी मूल का मुद्दे उठाया और कांग्रेस से अलग हो कर एनसीपी बना ली थी. 2004 से 2014 तक एनसीपी ने केंद्र और महाराष्ट्र में कांग्रेस के साथ सरकार में गठबंधन बनाए रखा. 2014 के महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में यह गठबंधन टूट गया लेकिन चुनाव के बाद ये पार्टियां फिर साथ आ गईं.
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बीजेपी-एलजेपी
राम विलास पासवान को राजनीति का मौसम वैज्ञानिक भी कहा जाता है. वो राजनीति में आने के बाद अधिकतर सरकारों में मंत्री रहे हैं. 2002 में गुजरात दंगों को रोकने में नरेंद्र मोदी के नाकाम रहने का आरोप लगाकर उन्होंने बीजेपी से गठबंधन तोड़ा था. 2014 में उन्होंने नरेंद्र मोदी की बीजेपी से गठबंधन किया और 2014 से वो मोदी सरकार में मंत्री हैं.
तस्वीर: UNI
एसपी-बीएसपी
मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी और मायावती की बहुजन समाज पार्टी ने 90 के दशक में गठबंधन सरकार बनाई थी. लेकिन 1995 के गेस्ट हाउस कांड के बाद इन दोनों पार्टियों में दुश्मनी हो गई. 2019 के लोकसभा चुनावों में ये दुश्मनी खत्म हुई और दोनों पार्टियों ने साथ चुनाव लड़ा. हालांकि चुनाव के तुरंत बाद यह गठबंधन टूट गया.
तस्वीर: Ians
कांग्रेस-लेफ्ट
भारत की आजादी के बाद कांग्रेस सत्ता में रही और समाजवादी और लेफ्ट पार्टियों का विपक्ष रहा. लेफ्ट पार्टियों ने पहली बार गैर कांग्रेसी सरकार बनाई थी. लेकिन 2004 में कांग्रेस और लेफ्ट ने केंद्र में सरकार के लिए गठबंधन किया. 2016 के बंगाल विधानसभा चुनाव के दौरान भी दोनों पार्टियां गठबंधन में चुनाव लड़ीं. हालांकि केरल में दोनों पार्टियां एक दूसरे की विरोधी हैं.
तस्वीर: UNI
आम आदमी पार्टी-कांग्रेस
आम आदमी पार्टी का जन्म ही कांग्रेस पर लगे भ्रष्टाचारों के आरोपों का विरोध करके हुआ था. हालांकि 2013 में जब आम आदमी पार्टी दिल्ली में बहुमत नहीं पा सकी तो कांग्रेस ने उसे बाहर से समर्थन दिया. हालांकि यह सरकार 49 दिन ही चल सकी. 2019 के लोकसभा चुनाव में अरविंद केजरीवाल ने सार्वजनिक तौर पर कांग्रेस से गठबंधन की इच्छा जताई थी लेकिन ऐसा हो नहीं सका.
तस्वीर: Reuters/India's Presidential Palace
एसपी-कांग्रेस
समाजवादी नेता मुलायम सिंह यादव की राजनीति कांग्रेस विरोध पर शुरू हुई थी. लेकिन उनकी पार्टी ने कांग्रेस के साथ गठबंधन किया है. 2008 में विश्वास मत प्रस्ताव के दौरान सपा के समर्थन से ही कांग्रेस सरकार बची थी. 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में दोनों पार्टियां साथ चुनाव लड़ी थीं.