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सरकार के निशाने पर गैरसरकारी संगठन?

अपूर्वा अग्रवाल
३ नवम्बर २०१८

भारत में एनडीए सरकार ने अब तक कई हजार गैरसरकारी संगठनों के लाइसेंस रद्द किए हैं. इससे पहले की यूपीए सरकार में भी सैकड़ों संगठनों ने जांच की आंच झेली. सरकार और गैरसरकारी संगठनों की रस्साकसी के पीछे क्या वजह है.

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तस्वीर: picture-alliance/dpa/greenpeace

गैर सरकारी संगठन ग्रीनपीस इंडिया के बेंगलुरु दफ्तर पर अक्टूबर 2018 में प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) ने छापा मारा. जांच एजेंसी को आशंका है कि ग्रीनपीस इंडिया ने विदेशी फंड का इस्तेमाल भारत में अपने अभियान के लिए किया है. ग्रीनपीस ने इन आरोपों को झूठ करार दिया. इस के कुछ ही दिन बाद ईडी के निशाने पर ब्रिटेन की गैर सरकारी संस्था एमनेस्टी इंटरनेशनल के बेंगलुरु दफ्तर आया. आरोप उस पर भी लगभग यही थे. एमनेस्टी का कहना है कि सरकार उसे डराना चाहती है. एक के बाद एक इन गैर सरकारी संस्थाओं (एनजीओ) पर हुई कार्रवाईयों से यह सवाल उठ रहा है कि इसके पीछे क्या वजह हो सकती है? इन संगठनों पर लग रहे आरोपों में कितनी सच्चाई है? क्या ये संगठन उतने ही निर्दोष हैं जैसा वे दावा करते हैं और सरकार की मंशा सिर्फ इन संगठनों की कार्यशैली में अनियमितता को दूर करना या फिर कुछ और?

सरकार-एनजीओ में तकरार की वजह

जब सरकारी नीतियों के विरोध में सामाजिक संगठन खड़े होते हैं तो सरकार के साथ इनकी तकरार बढ़ जाती है. स्पेशल इकोनॉमिक जोन, न्यूक्लियर प्लांट, बांध निर्माण, किसानों की समस्याएं कुछ ऐसे ही मुद्दे हैं जिन पर इन संगठनों ने सीधे सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है.

गैर सरकारी संगठनों(एनजीओ) पर लंबे समय तक काम कर चुके वरिष्ठ पत्रकार उत्कर्ष सिन्हा ने डीडब्ल्यू से बातचीत में कहा कि पिछले दस सालों में भारत में अधिकारों के लिए आवाज मुखर करने वाले गैर सरकारी संगठनों में बढ़ोतरी हुई है. सिन्हा बताते हैं, "एनजीओ का मुद्दा यही रहता था कि सरकार के पास संसाधन हैं, पैसा है, लेकिन जरुरतमंद लोगों तक पहुंच नहीं है, जिसके बाद सामुदायिक विकास की बात हुई और यही से सरकारी नीतियां कटघरे में आ गई."

सरकार के निशाने पर कुछ चुनिंदा संगठन 

जमीनी स्तर पर जो संस्थाएं फिलहाल काम कर रहे हैं उन्हें तीन श्रेणियों में बांटा जा सकता है. पहला ऐसे एनजीओ जो नागिरक अधिकारों और लोकतांत्रिक मूल्यों की बात करते हैं, दूसरे जो कॉरपोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व (कॉरपोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी, सीएसआर) के लिए काम करते हैं, और तीसरे वे जो सरकारी योजनाओं को लागू करने में मदद करते हैं. सिन्हा कहते हैं, "यहां पहली श्रेणी में आने वाले एनजीओ के लिए सरकार का रवैया बहुत सकारात्मक नहीं कहा जा सकता, बजाय इसके सर्विस मैकेनिज्म से जुड़ी संस्थाओं के लिए जगह छोड़ दी गई हैं."

एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया प्राइवेट लिमिटेड के प्रमुख कार्यकारी अधिकारी(सीईओ) आकार पटेल भी मानते हैं कि ऐसे एनजीओ जो मानवाधिकारों, नागरिक अधिकारों और सरकारी जबावदेही की बात करते हैं उनके लिए हालात अच्छे नहीं हैं. उन्होंने कहा, "पिछले सालों में सरकार ने बिना किसी ठोस कारण के दर्जनों एनजीओ के एफसीआरए लाइसेंस रद्द किए हैं. इसमें सिटिजन फॉर जस्टिस एंड पीस, पीपुल्स वॉच, नवसर्जन ट्रस्ट, ग्रीनपीस इंडिया, सबरंग ट्रस्ट जैसे नाम शामिल हैं. ऐसी संस्थाएं जो विरोध में मुंह खोलती हैं, उन्हें इसकी सजा भुगतनी पड़ती है."

क्या है एफसीआरए कानून

भारत में एनजीओ नियमन से जुड़े दो सबसे अहम कानून हैं विदेशी सहायता विनियमन कानून (एफसीआरए) और विदेशी मुद्रा प्रबंधन अधिनियम (फेमा). एफसीआरए को साल 1976 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाधी ने आपातकाल के दौरान लागू किया था.

मेधा पाटकरतस्वीर: picture-alliance/dpa

यह कानून विदेशों से मिलने वाली राशि, तोहफों और चंदों पर नजर रखता है. साल 2010 में इस कानून में संशोधन कर ऐसी संस्थाओं को इसके दायरे में लाया गया जो किसी न किसी राजनीतिक विचारधाराओं (पॉलिटिकल नेचर) से प्रभावित थीं. इसमें विदेशों से मिलने वाली राशि का ब्यौरा समेत लाइसेंस रिन्यू कराने जैसे नियम बनाए गए. इसके बाद साल 2014 में दिल्ली हाई कोर्ट ने बीजेपी और कांग्रेस दोनों ही दलों को एफसीआरए के नियमों का उल्लघंन करने वाला करार दिया, जिसके बाद 2016 में एक बार फिर एफसीआरए 2010 कानून में संशोधन किया गया.

नए संशोधनों के मुताबिक अब गैरलाभकारी संगठन, राजनीतिक दल और चुनावों में खड़े होने वाले उम्मीदवार विदेशी कंपनियों से शर्तों के साथ चंदा ले सकते थे. नए कानून के तहत ऐसे विदेशी सहायता लेने वाले एनजीओ को गृह मंत्रालय के तहत स्वयं को रजिस्टर कराना होगा, अपनी सालाना रिपोर्ट पेश करनी होगी. वित्तीय लेनदेन में अनियमितता होने पर इनके लाइसेंस रद्द करने जैसे प्रावधान भी जोड़े गए.

विदेशी पैसे की क्या जरुरत?

भारत में ये एनजीओ अपने काम के लिए काफी हद तक अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं से मदद भी लेते हैं. इसके चलते कई बार ये संगठन शक के दायरे में आ जाते हैं. घरेलू स्तर पर इनके लिए पैसा जुटाना आसान नहीं होता, क्योंकि कोई भी कंपनी अपना ही विरोध करने के लिए इन संगठनों को पैसा नहीं देना चाहेगी. सरकार और कंपनियो की सांठगांठ को भी जानकार इसका एक कारण मानते हैं.

तस्वीर: dapd

सिन्हा बताते हैं कि घरेलू स्तर पर फंड जुटाने के लिए कई बार भारत के भीतर कोशिशें की गईं हैं, लेकिन ये असफल रहीं. उन्होंने बताया, "क्राई जैसी संस्था ने फंड जुटाने के लिए कार्ड्स बनाए, ऑडियो कैसेट तक बेची लेकिन जब सीएसआर का हिस्सा बढ़ा तब बड़े कॉरपोरेट घरानों का इनकी तरफ सहयोग कम हो गया." आकार पटेल कहते हैं, "जब भारत में आर्थिक विकास के लिए विदेशी निवेश को प्रोत्साहित किया जा रहा है, तो फिर क्यों गरीबों और पिछड़े समुदायों के लिए काम करने वाले संस्थानों को परेशान किया जाता है."

आकार पटेल एफसीआरए कानून में बदलाव या इसे खत्म करने की पैरवी करते हैं. हालांकि ग्रीनपीस इंडिया जैसे कुछ एनजीओ ऐसे भी हैं जो विदेशी मदद से साफ मना करते है. ग्रीनपीस इंडिया ने डीडब्ल्यू से बातचीत में संस्था ने कहा, "संगठन अपने अभियान के लिए कोई भी विदेशी मदद नहीं लेता है. 2016 में एफसीआरए लाइसेंस को रद्द किए जाने के बाद संस्था भारत में पर्यावरण मुद्दों पर काम करने के लिए भारतीयों से ही पैसा जुटाती है."

कितनी वाजिब सरकारी कार्रवाई

2014 में मोदी सरकार के सत्ता संभालने के बाद से अब तक करीब 20 हजार से ज्यादा गैरसरकारी संगठनों के लाइसेंस रद्द कर दिए गए हैं. कुछ हद तक ये कार्रवाई ठीक भी हैं क्योंकि इनमें से कई ऐसे संगठन भी थे जो ठीक से काम नहीं कर रहे थे या कुछ के पास फंडिंग ही नहीं थी. सिन्हा कहते हैं, "ऐसी संस्थाओं की पहचान होना जरूरी भी था और उन्हें बंद किया जाना ठीक भी है." हालांकि इसी दौर में सरकार के नीतिगत मसलों पर सवाल उठाने वाले बहुत से एनजीओ को इसी वक्त "देश विरोधी" और "राष्ट्र विरोधी" कहते हुए परेशान भी किया गया और कई मामले अदालत में हैं. पटेल मानते हैं, "जो संगठन सामाजिक जागरुकता और विकास के क्षेत्र में अच्छा काम कर रहे हैं, उन्हें राष्ट्रहित और जनहित जैसे शब्दों की आड़ में भारत सरकार दबाने की कोशिश कर रही है, जो मूल अधिकारों का हनन है."

आकार पटेलतस्वीर: Getty Images/AFP/M. Sharma

कहां तक जाएगी ये तकरार

ऐसा भी नहीं है कि ये संस्थाएं आज या कल में स्थापित हुईं हैं, बल्कि ये तो समाज बनने के वक्त से ही इसका हिस्सा रहीं हैं. 19वीं शताब्दी के सामाजिक सुधार आंदोलनों हों या इनके परिणामस्वरूप बनी आर्य समाज, ब्रह्म समाज या रामकृष्ण मिशन जैसी संस्थाएं, ऐसी ही गैर सरकारी संस्थाओं का उदाहरण पेश करती हैं. ऐसे में सवाल है कि आज पैदा हुई ये तकरार कहां तक जाएगी?

दरअसल ये पूरी बहस विकास के मुद्दे से जुड़ी है. कुछ संस्थाएं मानती हैं कि अगर स्थानीय समुदायों को मजबूत बना दिया जाएगा तो उनका विकास अपने आप हो जाएगा. वहीं सरकार की नजर में विकास के मायने कुछ और हैं. सिन्हा कहते हैं, "सरकारें जब ये मानने लगे कि विकास की प्रक्रिया वही है जिसे वह सुझा रही है तो स्थिति बिगड़ने लगती हैं." ऐसी ही स्थिति विदेशों में भी देखने को मिली है. सारी बहस के बाद फिलहाल यह कहा जा सकता है कि गैर सरकारी संस्थानों और सरकारों के बीच हालात जल्दी से सामान्य होते नहीं दिख रहे हैं.

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