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समाज

क्यों है मध्यप्रदेश शिशु मृत्यु दर में देश में नंबर एक

विवेक शर्मा
१७ जुलाई २०२०

राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के आंकड़ों के अनुसार मध्य प्रदेश में शिशुओं की मृत्यु दर भारत में सबसे ज्यादा है. सबसे अच्छी हालत केरल की है जहां दर प्रति हजार सिर्फ 7 है. क्या मध्य प्रदेश की आर्थिक हालत इसके लिए जिम्मेदार है?

बहुत से बच्चे कुपोषण के शिकार हैंतस्वीर: DW/R. Chakraborty

पिछले दिनों भारत के महारजिस्ट्रार एवं जनगणना आयुक्त के कार्यालय ने जब सैम्पल रजिस्ट्रेशन सर्वे (एसआरएस) की रिपोर्ट जारी की तो सबसे बुरी खबर मध्य प्रदेश के लिए थी. मध्यप्रदेश के लिए एक बार फिर निराशाजनक आंकड़े सामने आए. साल 2018 की रिपोर्ट के आधार पर जारी किए गए डाटा में मध्यप्रदेश में शिशु मृत्युदर 48 रही जो कि देश में सबसे ज्यादा है. इसका मतलब ये है कि प्रदेश में साल भर में 1000 जीवित जन्मे बच्चों में 48 बच्चों की मृत्यु हो जाती है, यानी ये शिशु अपना पहला जन्मदिन भी नहीं मना पाते हैं. ये आंकड़ें इसलिए भी चिंताजनक हैं क्योंकि लगातार पिछले 16 वर्षों से मध्यप्रदेश की शिशु मृत्युदर पूरे देश में सबसे ज्यादा रही है. देश में औसत शिशु मृत्युदर का आंकड़ा 32 है, वहीं केरल में ये आंकड़ा सबसे कम 7 का रहा यानी साल 2018 में प्रति 1000 जीवित जन्मे बच्चों में से वहां सिर्फ 7 बच्चों की ही मौत हुई.

दिल्ली के अंबेडकर विश्वविद्यालय की प्रोफेसर दीपा सिन्हा बताती हैं, "गरीबी, साक्षरता, शादी की उम्र और बच्चों की संख्या, ये सभी बातें सीधे तौर पर महिलाओं के स्वास्थ्य और उनके पोषण पर निर्भर हैं. दक्षिण भारत के राज्यों में स्वास्थ्य से संबंधित सरकारी सुविधाएं, मध्य प्रदेश, बिहार और यूपी से बेहतर हैं.” इसके अलावा बच्चों की मौतें रोकने में सांस्थानिक प्रसव एक महत्वपूर्ण कदम हो सकता है क्योंकि "बहुत सारे बच्चों की मौत पहले दो दिन में या पहले हफ्ते में ही हो जाती है तो अगर डिलेवरी सांस्थानिक (इंस्टिट्यूशनल) होती है तो टिटनस और अर्ली निमोनिया जैसी बीमारियों की देखभाल कर सकते हैं.”

समस्या के सामाजिक कारण

स्वास्थ्य से जुड़े कारणों के अलावा इस समस्या के सामाजिक कारण भी हैं. सामाजिक कार्यकर्ता चिन्मय मिश्र इन कारणों की तरफ इशारा करते हुए बताते हैं, "सरकार की पोषण योजनाएं भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गईं और पोषण आहार के वितरण में भ्रष्टाचार की वजह से जरूरतमंद लोगों को फायदा नहीं मिल पाया, पूरी प्रणाली को विकेन्द्रित करने की जगह केन्द्रित कर दिया गया है और स्थानीय भोजन भी खत्म हो गया.”

मध्यप्रदेश में अनुसूचित जनजाति की आबादी प्रदेश की कुल आबादी का 20.3 फीसदी है. जनसंख्या एवं विकास विशेषज्ञ डॉ. आलोक रंजन चौरसिया बताते हैं, "मध्यप्रदेश में जनजातीय जनसंख्या बहुत बड़ी है और साथ ही ग्रामीण इलाकों की हालत खराब है. इसके लिए चाइल्ड सर्वाइवल टास्कफोर्स बनाया जाना चाहिए क्योंकि हमें यही नहीं पता है कि जिले वार शिशु मृत्यु दर के आंकड़े क्या हैं. 2011 के जनगणना वाले आंकड़े मौजूदा स्थिति को जानने के लिए काफी नहीं हैं.” विशेषज्ञों के मुताबिक गर्भावस्था में मां के पोषण में कमी, दो बच्चों के बीच कम अंतराल, शादी की कम उम्र और उचित स्वास्थ्य सुविधाओं का अभाव भी शिशु मृत्यु दर के मुख्य कारण हैं. इसके अलावा आधिकारिक आंकड़े बताते हैं कि शिशु अगर लड़का है तो उसके मौत की संभावना अधिक होती है.

देहातों में स्वास्थ्य सुविधाओं का भी अभावतस्वीर: DW/D. Vaid

स्वास्थ्य संबंधी और सामाजिक कारणों के अलावा स्वास्थ्य सुविधाओं के अर्थतंत्र की भी भूमिका महत्वपूर्ण है. इंदौर के देवी अहिल्या विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र की प्रोफेसर डॉ. रेखा आचार्य के मुताबिक "मध्यप्रदेश के सकल घरेलू उत्पाद (जीएसडीपी) का स्वास्थ्य सुविधाओं पर खर्च मात्र 2.8 प्रतिशत है, जो कि भारत के 18 राज्यों में सबसे कम है. लोगों के जीवनयापन का स्तर, पोषण आहार का परिवार के अन्य सदस्यों में बंट जाना और गर्भवती महिला की कम कमाई तीनों एक दूसरे से संबंधित हैं.” पब्लिक हेल्थ एक्सपर्ट डॉ. दीपक सक्सेना बताते हैं, "जन्म लेने के 28 दिनों में 70 फीसदी नवजात शिशुओं की मौत हो जाती है और 28 दिन से एक साल तक के बच्चे मुख्य रुप से निमोनिया से मरते हैं. मां में कुपोषण एक बड़ी परेशानी है और गर्भावस्था के दौरान की गई देखभाल, टिटनेस का टीका, आयरन और फालिक एसिड की गोलियां मिलना बहुत जरूरी होता है.”

बेहतरी के ये सब हैं उपाय

स्वास्थ्य विशेषज्ञ बताते हैं कि शिशु मृत्युदर की समस्या के समाधान में स्वास्थ्य से जुड़ी योजनाओं का विकेन्द्रीकरण, सोशल ऑडिट, निष्पक्ष सर्वे, सांस्थानिक प्रसव और आशा कार्यकर्ताओं को कायदे का वेतन मिलना जैसी बातें बहुत अहमियत रखती हैं. साथ ही आंगनवाड़ी के माध्यम से पोषण की उपलब्धता, टीकाकरण की सुनिश्चितता और साफ-सफाई का विशेष ध्यान भी शामिल हैं. केरल और तमिलनाडु में यदि हालात अच्छे हैं तो उसकी भी कुछ खास वजहें हैं, जैसे महिलाओं की शिक्षा को प्रोत्साहन देना, शादी की उम्र को बढ़ाया जाना और मां के पोषण का ख्याल रखना. साथ ही माताएं काम पर ना जाए उसके लिए मातृत्व भत्ते की व्यवस्था भी आवश्यक बताई गई है.

शिशुओं की मौत की समस्या के समाधान के लिए मौजूदा प्रणाली में बदलाव के साथ ही स्वास्थ्य सेवाओं के प्रशासनिक ढांचे में भी परिवर्तन किए जाने की जरूरत है. भारतीय जन स्वास्थ्य संस्थान (आईआईपीएच) गांधीनगर के निदेशक प्रोफेसर दिलीप मावलंकर कहते हैं, "हर राज्य में जन्म लेने और मरने वाले प्रत्येक बच्चे का पंजीकरण और आकलन करना चाहिए, साथ ही जिलेवार आंकड़े एकत्रित होना चाहिए ताकि जिलों को टारगेट करके समस्या का समाधान कर सकें.” साथ ही प्रोफेसर मावलंकर सुझाते हैं कि "सभी प्रमुख स्वास्थ्य कार्यक्रमों जैसे टीकाकरण कार्यक्रम, शिशु और मां के स्वास्थ्य से संबंधित कार्यक्रमों के लिए अलग-अलग निदेशक होना चाहिए, साथ ही ऐसे अधिकारी जिला स्तर पर भी होने चाहिए जिससे हरेक कार्यक्रम की निगरानी अच्छी तरह से हो सके.” वहीं प्रोफेसर रेखा आचार्य कहती हैं, "महिलाओं की शादी के समय ही उनका पंजीकरण हो जाना चाहिए. ताकि 18 महीनों में इम्यून सिस्टम मजबूत हो जाए. इसके अलावा ग्राम सभा के स्तर पर मोहल्ला क्लिनिक भी सुनिश्चित किए जाएं और उसकी निगरानी भी अच्छी तरह से हो.”

बाल विवाह भी बड़ी समस्यातस्वीर: picture alliance/AP Photo/P. Hatvalne

शहरों से खराब हाल गांवों का

मध्यप्रदेश के ग्रामीण इलाकों की तुलना में शहरी इलाकों में हालात अच्छे हैं. ग्रामीण इलाकों में शिशु मृत्युदर का आंकड़ा 52 और शहरी क्षेत्र में 36 है. इंदौर के मुख्य चिकित्सा एवं स्वास्थ्य अधिकारी डॉ. प्रवीण जड़िया बताते हैं, "मध्यप्रदेश में इंदौर सबसे बेहतर स्थिति में है, उसका मुख्य कारण है कि सभी योजनाओं का परिपालन पूर्ण रुप से किया गया है. खासतौर पर हम टीकाकरण में काफी बेहतर रहे हैं जो कि एक बहुत बड़ा कारण होता है. इंदौर में आईएमआर का डेटा 32 के आसपास है.”

देश भर में केरल ऐसा राज्य है जहां शिशु मृत्यु दर सबसे कम 7 है. इसकी वजह पर रोशनी डालते हुए प्रोफेसर दीपा सिन्हा बताती हैं, "केरल में सोशल पॉलिसी की बहुत लंबी हिस्ट्री है, प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र विकेन्द्रीकृत हैं और पंचायत के नीचे आते हैं जिससे लोग भी जवाबदेही मांग सकते हैं. साथ ही केरल में महिलाओं को समाज में बेहतर दर्जा दिया गया है.”

हालांकि पूरे देश में औसत शिशु मृत्युदर के आंकड़े पिछले 10 -15 साल से सुधर रहे हैं लेकिन अब भी इस क्षेत्र में काफी कुछ किए जाने की जरुरत है. मौजूदा आंकड़ों के मुताबिक भारत की जीडीपी का सिर्फ 1.2 प्रतिशत ही स्वास्थ्य सुविधाओं पर खर्च हो रहा है. ज्यादा से ज्यादा बच्चे अपना पहला जन्मदिन खुशी से मना सकें इसके लिए सरकार की ओर से निवेश बढ़ाने की जरूरत है ताकि बच्चों का भविष्य सुरक्षित और खुशहाल हो सके.

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