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क्योटो के वादे पूरे करता ईयू

२५ अक्टूबर २०१२

2012 तक यूरोपीय संघ के देश ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को काबू में ला सकेंगे. क्योटो प्रोटोकॉल में तय किए गए लक्ष्यों को यूरोपीय देश हासिल करने की राह पर हैं, लेकिन इसमें कुछ परेशानियां आ रही हैं.

तस्वीर: AP

1997 के क्योटो संधि के मुताबिक यूरोपीय संघ के 15 सदस्य देशों ने वादा किया था कि वे 2008 से लेकर 2012 तक कार्बनडायोक्साइड सहित बाकी ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करेंगे. इसके लिए 1990 के उत्सर्जन को आधार बनाया गया था. लेकिन ईयू के ही 10 देश अब भी उत्सर्जन कम नहीं कर पा रहे हैं. इटली और स्पेन सहित कई और देश अपने उत्सर्जन लक्ष्यों को कम नहीं कर सके हैं. इनमें से नौ देशों ने 2.89 अरब यूरो की राशि के कार्बन क्रेडिट खरीदना तय किया है. इन पैसों को वे अपने देश या विदेशों में पेड़ों को उगाने, हरित ऊर्जा और उत्पादन में लगा सकेंगे.

संयुक्त राष्ट्र की इस रिपोर्ट में कहा गया है कि 27 यूरोपीय संघ देशों ने 2011 के अंत तक 2.5 प्रतिशत कम उत्सर्जन किया. पिछले साल सर्दियों में बहुत ज्यादा ठंड नहीं हुई और उस वजह से भी उत्सर्जन में कमी आई. 15 ईयू देशों ने 2011 में कुल 13.8 प्रतिशत कम उत्सर्जन किया.

यूरोपीय पर्यावरण एजेंसी ईईए की निदेशक जैकलीन मैकग्लेड का कहना है कि यूरोपीय संघ क्योटो लक्ष्य को हासिल कर लेगा. "दो महीने बाद हम क्योटो संधि में अपने पहले चरण के लक्ष्य तक पहुंच चुके होंगे. 1997 से काफी प्रगति हो चुकी है लेकिन सारे सदस्य देशों को अपने लक्ष्य हासिल करने होंगे." कोपेनहेगन में ईईए ने कहा कि 15 में से 10 ईयू देश क्योटो के "फ्लेक्सिबल मेकैनिज्म" का इस्तेमाल करना शुरू करेंगे. इसका मतलब है कि यह देश कार्बन क्रेडिट खरीद सकते हैं. कार्बन क्रेडिट खरीदना यानी कोई भी देश कार्बनडायोक्साइड उत्सर्जन करने का हक खरीदता है. यह टैक्स की तरह है और इसके लिए कई कंपनियां सर्टिफिकेट देती हैं. एक सर्टिफिकेट को खरीदने से कोई भी देश एक मैट्रिक टन कार्बनडायोक्साइड का उत्सर्जन कर सकता है. नीदरलैंड्स, डेनमार्क, ऑस्ट्रिया, बेल्जियम, फिनलैंड, आयरलैंड, इटली, लक्सेंबर्ग, स्पेन और इटली इस योजना का फायदा उठाना चाहते हैं. 2020 तक यूरोपीय संघ को अपने उत्सर्जन 1990 के मुकाबले 20 प्रतिशत कम करना होगा.

क्योटो संधि के लक्ष्य विकासशील देशों और विकसित देशों के बीच विवाद का मुद्दा बन गए हैं. विकसित देशों का कहना है कि उसके लक्ष्यों से भारत और चीन जैसे देशों को कोई फर्क नहीं पड़ रहा और वे अपने लक्ष्यों तक भी नहीं पहुंच पा रहे. वहीं, भारत, चीन और ब्राजील जैसे देशों का कहना है कि उनके देशों में विकास की गति को देखते हुए उत्सर्जनों के लक्ष्यों की तरफ प्रतिबद्धता दिखाना इस वक्त मुमकिन नहीं है.

एमजी/एम (एपी, एएफपी)

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