15 साल पहले क्योटो प्रोटोकॉल के तहत ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को सीमित करने के लिए लक्ष्य तय किए गए. औद्योगिक देशों ने CO2 उत्सर्जन को कम करने का वादा किया. लेकिन पर्यावरण को बचाने के लिए अब यह नाकाफी साबित हो रहा है.
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जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए रात भर चली उस बैठक को याद करते हुए पर्यावरण वैज्ञानिक हेरमन ऑट कहते हैं, "आखिरी पल तक हम कांप रहे थे कि कहीं यह विफल तो नहीं हो जाएगा." इस बैठक का जो नतीजा निकला उसने आठ साल बाद क्योटो प्रोटोकॉल की शक्ल ली. अंतरराष्ट्रीय कानून के तहत यह पहली ऐसी संधि थी जो ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने के मकसद से बनाई गई और जो अंतरराष्ट्रीय पर्यावरण नीति में एक मील का पत्थर साबित होने वाली थी. इंटरनेशनल सेंटर फॉर क्लाइमेट चेंज एंड डेवलपमेंट के निदेशक सलीमुल हक का कहना है कि इस एक संधि ने भविष्य में होने वाले पर्यावरण से जुड़े सभी फैसलों के लिए एक नींव रख दी थी.
शुरुआत हुई 1992 में रियो दे जनेरो में संयुक्त राष्ट्र की एजेंसी यूएनएफसीसीसी की बैठक से. यहां अमीर देशों ने ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन पर अपनी जिम्मेदारी मानी. क्योटो प्रोटोकॉल ने निर्धारित किया कि ये बड़े उत्सर्जक किस तरह से जलवायु परिवर्तन की प्रक्रिया को धीमा करने के लिए कदम उठा सकते हैं. संधि के अनुसार 38 औद्योगिक देशों को 2012 तक पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाली गैसों के उत्सर्जन को औसतन 5.2 फीसदी तक घटाना था और उत्सर्जन के स्तर को 1990 वाले स्तर से भी नीचे लाना था. संधि पर हस्ताक्षर करने वालों में अमेरिका और यूरोपीय संघ शामिल थे. ईयू को उन दिनों यूरोपीय कमिटी के नाम से जाना जाता था. सलीमुल हक उस दौरान विकासशील देशों के लिए बातचीत कर रहे थे. वे बताते हैं, "पहली बार अंतरराष्ट्रीय कानून के तहत कुछ ऐसा हो रहा था जो बाध्यकारी था. यह एक बड़ी सफलता थी."
ऐतिहासिक रूप से CO2 उत्सर्जन के सबसे बड़े हिस्से की जिम्मेदारी अमेरिका की थी. लेकिन 2011 में वह समझौते से बाहर हो गया. अमेरिका के बाद जब कनाडा ने भी ऐसा ही किया तब लगने लगा कि क्योटो प्रोटोकॉल विफल हो गया. यूरोपीय संघ ने उत्सर्जन को 19 फीसदी घटाया. जर्मनी ने तो 23 फीसदी की कमी दर्ज की लेकिन वैश्विक स्तर पर उत्सर्जन 38 फीसदी बढ़ चुका था. वर्ल्ड रिसोर्सेस इंस्टीट्यूट के एंड्र्यू लाइट का कहना है कि यह समझौता लंबे समय तक जलवायु परिवर्तन के असर को कम करने के लिए काफी नहीं है क्योंकि यह सिर्फ उन देशों पर केंद्रित है जो वैश्निक उत्सर्जन के सिर्फ एक चौथाई हिस्से के लिए ही जिम्मेदार हैं. लाइट का कहना है, "यह समस्या से निपटने के लिए बिलकुल भी काफी नहीं हैं. आपको ऐसे समझौते की जरूरत है जिसमें और भी हिस्सेदार हों."
ईको फ्रेंडली के चक्कर में पर्यावरण को नुकसान पहुंचा रहे हैं आप
कहीं पर्यावरण को बचाने के चक्कर में हम उसे और नुकसान तो नहीं पहुंचा रहे? क्या ईको फ्रेंडली दिखने और कहे जाने वाला हर विकल्प वकाई में पूरी तरह ईको फ्रेंडली होता है या आधी तस्वीर देख कर ही हम फैसला कर लेते हैं?
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जागरूकता के लिए यात्रा
दुनिया में ऐसी कई जगहें हैं जिन पर नष्ट हो जाने का खतरा मंडरा रहा है. इनके बारे में जागरूकता फैलाने के लिए कई लोग इनका रुख कर रहे हैं. वहीं कुछ को लग रहा है कि जितनी जल्दी हो सके इन्हें एक आखिरी बार देख लिया जाए, कल क्या पता मालदीव जैसी खूबसूरत जगह रहें या ना रहें. लेकिन यहां तक पहुंचने के लिए वे जो फ्लाइट लेते हैं, उनसे इतना कार्बन उत्सर्जन होता है कि वही इन्हें इनके अंत के और करीब ले जा रही हैं.
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हर वक्त इंटरनेट
अगर आप यह भी तय कर लें कि कहीं नहीं जाएंगे, घर पर ही रहेंगे और इंटरनेट पर ही इन जगहों की तस्वीरें देख लेंगे या फिर नेटफ्लिक्स पर इनके बारे में कोई डॉक्यूमेंट्री देख लेंगे, तो भी आप पर्यावरण को नुकसान पहुंचा रहे हैं. डाटा भेजने और रिसीव करने में खूब ऊर्जा खर्च होती है. हाई स्पीड इंटरनेट के जमाने में जब करोड़ों लोग अपने स्मार्टफोन और स्मार्ट टीवी पर लगे हों, तो नुकसान कितना होगा, आप खुद ही सोच लीजिए.
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ईको फ्रेंडली खाना
पर्यावरण को ध्यान में रखते हुए अब बहुत लोग शाकाहारी और वीगन हो गए हैं. कई शाकाहारी चीजों को अब सुपरफूड के नाम से बेचा जाता है. लेकिन सुपरफूड की मांग पूरी करने के लिए पूरे के पूरे जंगल काटे जा रहे हैं. मिसाल के तौर पर आवोकाडो. मेक्सिको में इसके चलते जंगलों को भारी नुकसान उठाना पड़ा है. दूध के विकल्प के रूप में इस्तेमाल होने वाले "आलमंड मिल्क" के लिए भी बादाम के खेती में टनों पानी बर्बाद हो रहा है.
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इलेक्ट्रिक कारें
पिछले कुछ सालों से लगातार कहा जा रहा है कि सड़कों से प्रदूषण को कम करने का, कार्बन उत्सर्जन को घटाने का एकमात्र तरीका है ई-कारों का इस्तेमाल. पर क्या वाकई ये उतनी ईको फ्रेंडली हैं जितना हम सोचते हैं? इन्हें बनाने में और खास कर इनकी बैटरी पर जिस तरह से संसाधन खर्च होते हैं, उन्हें देखते हुए तो ऐसा नहीं लगता. इसके अलावा बैटरी के कूड़े का निपटारा करने का भी अब तक कोई ठोस तरीका नहीं मिला है.
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ईको फ्रेंडली शॉपिंग
कम से कम पश्चिमी देशों में लोग पर्यावरण को ले कर अब इतने जागरूक हो गए हैं कि ज्यादा दाम दे कर ईको फ्रेंडली सामान खरीदने लगे हैं. लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या इतना सामन खरीदना जरूरी है? आप जो भी खरीदें, भले वो ईको फ्रेंडली हो या ना हो लेकिन संसाधन तो दोनों ही तरह के सामान में खर्च हो रहे हैं. तो क्यों ना खरीदारी की आदत पर ही लगाम लगाई जाए?
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ठंडी हवा की कीमत
जलवायु परिवर्तन के चलते जैसे जैसे गर्मी बढ़ रही है एसी पर हमारी निर्भरता भी बढ़ती जा रही है. पर कितनी अजीब बात है कि गर्मी से राहत देने वाले एसी से ही इतनी गर्मी निकलती है कि ये जलवायु परिवर्तन को और बढ़ावा दे रहे हैं. क्या बिना बिजली का इस्तेमाल किए, बिना पर्यावरण को नुकसान पहुंचाए ठंडी हवा नहीं मिल सकती? वैज्ञानिक फिलहाल इसी सवाल में उलझे हुए हैं.
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साफ पानी का मोल
बढ़ती आबादी के साथ साथ जाहिर है कि साफ पानी की मांग भी बढ़ रही है. ऐसे में पानी को साफ करने वाले डिसैलिनेशन प्लांट भी बढ़ रहे हैं. यहां पानी से नमक और अन्य चीजों को अलग किया जाता है. लेकिन अगर इसका ठीक से निपटारा ना किया जाए तो ये पर्यावरण को भारी नुकसान पहुंचा सकता है. बेहतर तकनीक के चलते ये प्लांट पहले के मुकाबले सुधरे जरूर हैं लेकिन पूरी तरह "ईको-फ्रेंडली" नहीं बने हैं.
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इस समझौते ने सिर्फ उत्सर्जन को कम करने की ही बात नहीं की थी, बल्कि "क्लीन डेवलपमेंट मेकेनिज्म" की भी शुरुआत की. इसके तहत कार्बन प्वॉइंट को खरीदना और बेचना मुमकिन हो सका. यानी जो देश ज्यादा उत्सर्जन कर रहा हो, वह ऐसे देश से कार्बन प्वॉइंट खरीद सकता है जिसका उत्सर्जन कम रहा हो. इसे एमिशन ट्रेडिंग भी कहा जाता है. इस एमिशन ट्रेडिंग से होने वाली कमाई का एक फीसदी हिस्सा जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए होने वाली पहलकदमियों के लिए दिया गया. इसमें नए मैंग्रोव के जंगल लगाना, बांध बनाना और पहाड़ी इलाकों में जमीन के कटाव को रोकने के लिए उठाए गए कदम शामिल हैं. वर्ल्ड बैंक के अनुसार इन सब पर अब तक दस अरब डॉलर खर्च किए जा चुके हैं.
सलीमुल हक का कहना है कि एमिशन ट्रेडिंग का उतना फायदा नहीं हुआ जितना बातचीत के दौरान सोचा गया था. इस कदम के साथ साथ पहली बार CO2 की कीमत लगाई गई थी. अब दुनिया भर में सरकारें CO2 पर टैक्स लगाने के बारे में विचार कर रही हैं. कई जगह तो ऐसा शुरू भी हो चुका है. स्वीडन इसमें सबसे आगे है. वहां एक टन जैविक ईंधन के लिए 114 यूरो की कीमत चुकानी पड़ती है. जर्मन इंस्टीट्यूट फॉर इकनॉमिक रिसर्च के पर्यावरण नीति के अध्यक्ष कार्स्टन नॉयहोफ क्योटो प्रोटोकॉल को "गेम चेंजर" मानते हैं. उनका कहना है, "2007 में हर किसी का कहना था कि ऐसा हो ही नहीं सकता कि 2020 तक यूरोप में ऊर्जा का 20 फीसदी हिस्सा अक्षय ऊर्जा का हो. लेकिन आज यह हकीकत बन चुका है. क्योटो सिर्फ ऊर्जा क्षेत्र में निवेश के रूप से महत्वपूर्ण नहीं है, बल्कि यह एक बड़ा प्रोत्साहन था."
जानकारों का कहना है कि क्योटो प्रोटोकॉल की सबसे बड़ी कमजोरी यह रही कि विकासशील देशों ने तय किए गए लक्ष्यों का आदर ही नहीं किया. चीन, भारत और इंडोनेशिया जैसे देशों की अर्थव्यवस्था बहुत तेजी से बढ़ी. इसी के साथ इनका ग्रीनहाउस उत्सर्जन भी बढ़ता गया. आज वैश्विक उत्सर्जन का करीब पचास फीसदी हिस्सा विकासशील देशों से ही आ रहा है. सलीमुल हक कहते हैं, "हम वैश्विक स्तर पर इस समस्या से निपटने के लिए कुछ नहीं कर रहे. हम सब को एकजुट हो कर कुछ करना होगा."
सैद्धांतिक रूप से आज भी क्योटो प्रोटोकॉल के तहत औद्योगिक देशों की कुछ जिम्मेदारियां हैं. लेकिन 2015 में तय हुआ पेरिस समझौता उस पर हावी हो गया है. पेरिस समझौते के अनुसार दुनिया भर के देशों ने वादा किया कि धरती के बढ़ते तापमान को औद्योगिकीकरण से पहले के तापमान के मुकाबले दो डिग्री सेल्सियस से ज्यादा नहीं बढ़ने देना है. हस्ताक्षर करने वाले सभी पक्षों ने खुद ही CO2 उत्सर्जन को कम करने के लक्ष्य तय किए और उन्हें पूरा करने का वादा भी किया. लेकिन अब तक शायद ही कोई देश अपने तय किए लक्ष्यों को पूरा कर पाया है.
1990 की तुलना में ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में 41 प्रतिशत की बढ़ोतरी दर्ज की गई है और यह स्तर लगातार बढ़ रहा है. अगर ऐसा ही चलता रहा तो इस सदी के अंत तक धरती का तापमान तीन डिग्री सेल्सियस बढ़ चुका होगा. हेरमन ऑट का इस बारे में कहना है, "जीवाश्म ईंधन इस्तेमाल करने वाले देश जैसे कि सऊदी अरब, अमेरिका, रूस और ऑस्ट्रेलिया कोई भी ठोस कदम उठाने में अड़चनें पैदा कर रहे हैं. इसलिए अब एक नए समझौते की जरूरत है ताकि जिन देशों की वाकई पर्यावरण को बचाने में रुचि है उनकी हिस्सेदारी बढ़ सके."
इलेक्ट्रिक बसें चलाने से लेकर प्रदूषण को सोखने वाले अर्बन गार्डनों तक, दुनिया भर के शहर जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए काफी कुछ कर रहे हैं. जानिए ऐसे सात शहर जो इस मामले में दुनिया के लिए मिसाल हो सकते हैं.
तस्वीर: picture-alliance/dpa/H. Kielwasser
मेडेलिन, कोलंबिया
लातिन अमेरिकी देश कोलंबिया का दूसरा सबसे बड़ा शहर मेडेलिन 2016 से 30 ग्रीन कोरिडोर बनाने में जुटा है. इसके लिए शहर भर में नौ हजार पेड़ लगाए गए हैं जिन पर 1.6 करोड़ डॉलर खर्च हुए. प्रदूषक तत्वों को सोखने के अलावा इन पेड़ों ने शहर के औसत तापमान को दो डिग्री सेल्सियस कम किया है. इससे शहर में जैवविविधता भी बढ़ी है और वन्यजीवों को बसेरे मिल रहे हैं.
तस्वीर: DW/D. O'Donnell
अकरा, घाना
पश्चिमी अफ्रीकी देश घाना की राजधानी अकरा का प्रशासन वर्ष 2016 से अनौपचारिक तौर पर कचरा उठाने वाले 600 लोगों के साथ काम कर रहा है. ये लोग पहले कचरा जमा करते थे और उसे जला देते थे, जिससे प्रदूषण होता था. अब पहले से ज्यादा कचरा जमा हो रहा है, उसे रिसाइकिल किया जा रहा है और सुरक्षित तरीके से ठिकाने लगाया जा रहा है.
तस्वीर: picture-alliance/dpa/C. Thompson
कोलकाता, भारत
कोलकाता 2030 तक ऐसी पांच हजार बसें खरीदने की योजना बना रहा है जो बिजली से चलेंगी. गंगा में बिजली से चलाने वाली नौकाएं लाने की भी तैयारी हो रही है. अभी तक ऐसी 80 बसें खरीदी जा चुकी हैं और अगले साल ऐसी 100 बसें और खरीदी जानी हैं.
तस्वीर: Getty Images/AFP/D. Sarkar
लंदन, ब्रिटेन
लंदन ने 2019 में दुनिया का सबसे पहला अल्ट्रा लो एमिशन जोन बनाया. इसके तहत सिटी सेंटर में आने वाले सभी वाहनों को सख्त उत्सर्जन मानकों को पूरा करना होगा, वरना भारी जुर्माना देना होगा. चंद महीनों में ही प्रदूषण फैलाने वाले वाहनों की संख्या घटकर एक तिहाई रह गई. लोग पैदल, साइकिल या फिर सार्वजनिक परिवहन से चलने लगे.
सैन फ्रांसिस्को के क्लीनपावरएसएफ कार्यक्रम के तहत लोगों को उचित दामों पर अक्षय ऊर्जा स्रोतों से बनने वाली बिजली मुहैया कराई गई. शहर प्रशासन को उम्मीद है कि वे 2025 तक ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में 40 प्रतिशत कटौती के अपने लक्ष्य को हासिल कर पाएंगे.
तस्वीर: Getty Images/J. Revillard
गुआंगजू, चीन
शहर प्रशासन ने 2.1 अरब डॉलर की रकम खर्च कर शहर की सभी 11,200 बसों को इलेक्ट्रिक बसों में तब्दील कर दिया और उनके लिए चार हजार चार्जिंग स्टेशन भी बनाए. इससे ना सिर्फ शहर में वायु प्रदूषण घटा है, बल्कि ध्वनि प्रदूषण भी कम हुआ है. यही नहीं, बसों को चलाने पर लागत भी कम हुई है.
तस्वीर: CC/Karl Fjellstorm, itdp-china
सियोल, दक्षिण कोरिया
दक्षिण कोरिया की राजधानी में दस लाख घरों की बालकनी और छत पर सोलर पैनल लगाने के लिए सब्सिडी दी गई है. स्कूल और पार्किंग सेंटर जैसी जगहों पर ऐसे पैनल लगाए जा रहे हैं. शहर को उम्मीद है कि वह 2022 तक एक गीगावॉट सोलर बिजली पैदा कर पाएगा. इतनी ही बिजली परमाणु रिएक्टर से वहां पैदा हो रही है.