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क्योटो से कट गया कनाडा

१३ दिसम्बर २०११

कनाडा क्योटो संधि से अलग हुआ. उसके सामने साल भर के भीतर ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में भारी कटौती करने का दवाब था. कनाडा के मुताबिक ऐसा करने पर पूरा देश ठप पड़ जाता. कनाडा ने अमेरिका और चीन के रूख पर भी तीखे सवाल उठाए.

तस्वीर: picture-alliance/ dpa

डरबन में जलवायु परिवर्तन शिखर सम्मेलन खत्म होने के दो दिन बाद कनाडा ने अंतरराष्ट्रीय समुदाय को बड़ा झटका दे दिया. अंतरराष्ट्रीय बिरादरी का ताना सुनाते हुए कनाडा ने कहा कि क्योटो संधि जलवायु परिवर्तन के समस्या को रोकने में नाकाम है, इसीलिए वह इससे अलग हो रहा है. कनाडा के पर्यावरण मंत्री पीटरे केंट ने सोमवार को आधिकारिक रूप से क्योटो संधि से अलग होने का एलान कर दिया. केंट ने कहा कि क्योटो संधि कनाडा और दुनिया के लिए आगे का रास्ता तैयार नहीं कर रही है. ऐसे में इससे कानूनी रूप से अगल होना ही बेहतर है.

अमेरिका और चीन पर तंज

केंट ने कहा, "समझौते में दुनिया के दो सबसे बड़े उत्सर्जक देश अमेरिका और चीन नहीं हैं. इसलिए यह काम कर ही नहीं सकती. अब यह साफ हो चुका है कि जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए क्योटो वाला रास्ता वैश्विक समाधान नहीं है." कनाडा का यह भी कहना है कि आने वाले दिनों कई और देश क्योटो संधि से अलग हो सकते हैं. चीन कनाडा के फैसले पर निराशा जताई है.

क्योटो संधि पर जापान और रूस का भी यही रुख है. दोनों देश क्योटो संधि को आगे बढ़ाने से इनकार कर चुके हैं. लेकिन जापान और रूस आधिकारिक तौर पर क्योटो संधि से अलग नहीं हुए.

क्योटो संधि 1997 में जापानी शहर क्योटो में की गई. संधि का मकसद ग्लोबल वॉर्मिंग से निपटना था. 191 देशों की मानी गई यह संधि 2005 से लागू हुई. संधि के तहत 191 देशों को 2012 तक ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में 5.2 फीसदी की कमी करनी है. विकसित देशों को ज्यादा कटौती के लिए कहा गया है. अमेरिका ने संधि का अनुमोदन नहीं किया है, वहीं विकास के नाम पर चीन और भारत जैसे देशों की रियायत दी गई है.

कनाडा पर क्योटो का असर

क्योटो संधि पर कनाडा की पूर्व उदारवादी सरकार ने दस्तखत किए थे. देश इस बात के लिए तैयार था कि वह 2012 तक कॉर्बन डाई ऑक्साइड के उत्सर्जन में छह फीसदी कमी करेगा. हालांकि कनाडा ने क्योटो संधि के वादों को कभी गंभीरता से नहीं निभाया. इसके बावजूद देश संधि का हिस्सा बना रहा. केंट कह चुके हैं कि क्योटो संधि पर दस्तखत करना उनकी पूर्व सरकार की सबसे बड़ी गलती रही. अब कनाडा पहला ऐसा देश बन चुका है जो इससे अलग हुआ है.

तस्वीर: picture alliance / dpa

नियम के मुताबिक क्योटो संधि से बाहर निकलने के लिए हर देश को एक साल पहले नोटिस देना है. कनाडा का कहना है कि अभी से नोटिस देकर उसने 14 अरब डॉलर का जुर्माना बचा लिया है. केंट के मुताबिक, "क्योटो के तहत 2012 के लक्ष्यों को हासिल करने के लिए हमें हर कार, ट्रक, ट्रैक्टर, एंबुलेंस, पुलिस कार और हर तरह के वाहन को कनाडा की सड़कों से हटाना होगा, पूरे कृषि क्षेत्र को बंद करना होगा. कनाडा के हर घर, दफ्तर, अस्पताल और इमारत की हीटिंग बंद करनी होगी."

क्योटो संधि मानने से कनाडा के तेल उद्योग को भी नुकसान होता. कनाडा के पास दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा तेल भंडार है. इसकी क्षमता करीब 170 अरब बैरल है. कनाडा फिलहाल प्रतिदिन 15 लाख बैरल तेल निकालता है. 2025 तक उत्पादन 37 लाख बैरल प्रतिदिन होने का अनुमान है. विशेषज्ञों के मुताबिक तेल की निकालने और साफ करने की प्रक्रिया में अथाह ऊर्जा और पानी चाहिए. ऐसे में ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन बढ़ना तय है.

विकास का अंधापन

बीते हफ्ते डरबन में करीब 200 देशों के नेता जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए आयोजित वार्षिक शिखर सम्मलेन में पहुंचे. लेकिन नेता किसी भी ठोस समझौते तक पहुंचने में फिर से नाकाम रहे. यही वादा किया गया कि जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए 2015 में एक संधि की जाएगी जो 2020 से लागू होगी.

तस्वीर: AP

दरअसल तकरार इस बात को लेकर है कि कुछ देशों को 2012 से बाध्यकारी ढंग से ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन कम करना होगा. संधि से अलग अमेरिका उत्सर्जन में कमी नहीं करेगा. चीन और भारत विकास के नाम पर उत्सर्जन जारी रखेंगे. ऐसे में कई विकसित देशों को यह चिंता सता रही हैं कि अगर ग्रीनहाउस गैसें कम करने के चक्कर में उनका आर्थिक विकास प्रभावित होगा. दूसरी तरफ सबसे ज्यादा उत्सर्जन करने वाले अमेरिका, चीन और भारत बिना किसी दिक्कत से आर्थिक विकास करते रहेंगे.

दुनिया भर के नेताओं को यह बात समझ नहीं आ रही है कि फिलहाल जरूरत इंसान के अस्तित्व को बचाने की है. इंसान ही नहीं रहेगा तो आर्थिक विकास किस काम का. वैज्ञानिक कह चुके हैं कि धरती को बचाने का समय तेजी से खत्म होता जा रहा है. 2015 तक अगर क्रांतिकारी कदम नहीं उठाए गए तो नुकसान की भरपाई करना नामुमकिन हो जाएगा. मुश्किल यह है कि अमीर देश अपने तकनीक साझा करने के बजाए महंगे दामों पर बेचना चाहते हैं. अमीर बनने की राह पर बढ़ रहे देश विकसित देशों के व्यापारिक लालच का फायदा उठा रहे हैं. गरीब देश खामोशी से तमाशा देख रहे हैं.

रिपोर्ट: एएफपी, एपी/ओ सिंह

संपादन: ए जमाल

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