सूरज उगते ही हिजाब पहने कुछ सोमाली लड़कियां मोगादिशु में एक फुटबॉल फील्ड पर पहुंच जाती हैं. वे टीम की किट खोलती हैं और मैदान पर उतरती हैं.
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मैदान के पास ही कुछ सोमाली नौजवान खड़े होकर लड़कियों को खेलते देख रहे हैं. कुछ लोगों को उनका इस तरह खेलना पसंद नहीं है. फिर भी वे उन्हें देख रहे हैं. दरअसल सोमालिया में लड़कियों का फुटबॉल खेलना बहुत ही अनोखी बात है. एक तो सोमाली समाज बेहद रुढ़िवादी है और दूसरा इन लड़कियों को कट्टर आतंकवादी संगठन अल शबाब का खतरा है. अल कायदा से जुड़ा अल शबाब अकसर सोमाली राजधानी मोगादिशु में हमले करता रहा है और वह फुटबॉल जैसे मनोरंजन के साधनों को बुरा समझता है और अगर महिलाएं ऐसे खेल खेलें तो उसकी नजर में वह और भी बुरा है.
मोगादिशु में फुटबॉल खेलने वाली 20 साल की एक खिलाड़ी हिबाक अब्दुकादिर का कहना है, "डर तो हमें लगा ही रहता है. हालांकि पिच तक पहुंचने से पहले हम अपनी टीशर्ट और निक्कर के ऊपर भारी भरकम कपड़े पहने रहते हैं. खेल वाले कपड़ों को पहनकर आम तौर पर यहां चलना बहुत ही मुश्किल है. हम कभी आम जिंदगी में स्पोर्ट्स वाले कपड़े नहीं पहनते."
हिबाक मोगादिशु की उन 60 लड़कियों में से एक हैं जो सोमालिया के पहले महिला फुटबॉल क्लब गोल्डन गर्ल के सेंटर में आकर ट्रेनिंग करती हैं.
28 साल के मोहम्मद अबु बकर अली इस सेंटर के सह संस्थापक हैं. उनका कहना है कि सोमालिया में महिला फुटबॉलर नहीं थीं और इसी बात ने उन्हें यह सेंटर शुरू करने के लिए प्रेरित किया. वह कहते हैं, "हम कोशिश कर रहे हैं कि ये लड़कियां सोमालिया की पहली पेशेवर फुटबॉल खिलाड़ी बनें," हालांकि यह काम आसान नहीं है. वह कहते हैं, "जब लड़कियों को ट्रेनिंग करनी होती है तो हम उन्हें उनके घरों से यहां लाते हैं और बाद में वापस घर भी छोड़ते हैं क्योंकि वे लड़कियां हैं और हमें उनकी सुरक्षा के बारे में सोचना पड़ता है."
अली कहते हैं कि सुरक्षा से लेकर संसाधनों तक, उनके समाने कई चुनौतियां हैं लेकिन वह सोमालिया में महिला फुटबॉल क्लब स्थापित करने के अपने इरादे से पीछे हटने वाले नहीं हैं. उनका कहना है, "हम समझते हैं कि यह सही समय है जब हमें अलग तरह से सोचने का साहस दिखाना चाहिए."
तालिबान की धमकियों से बेपरवाह अफगान जलपरी
अफगानिस्तान के रुढ़िवादी समाज में जहां महिलाएं बुनियादी अधिकारों को तरस रही हैं, वहीं 25 साल की एलेना सबूरी धमकियों से घबराए बिना अफगान महिलाओं को तैराकी के गुर सिखा रही हैं.
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अफगान जलपरी
एलेना सबूरी कई मामलों में दकियानूसी सोच रखने वाले अफगान समाज में महिलाओं के लिए संघर्ष कर रही हैं. वह वीमन स्विमिंग कमेटी की प्रमुख और कोच हैं. वह ऐसी महिला तैराकों को तैयार करने में जुटी हैं जो टोक्यो ओलंपिक के लिए अपनी दावेदारी पेश कर सकें.
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मुश्किल तैराकी
अफगानिस्तान में सिर्फ 30 ही स्वीमिंग पूल हैं जिनमें से सिर्फ एक में महिलाओं को आने की अनुमति है. लेकिन चरमपंथियों की तरफ से इस पूल को लगातार धमकियां मिल रही हैं. लेकिन सबूरी इन बातों की ज्यादा फिक्र नहीं करतीं.
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जोखिम
सबूरी कहती हैं कि उन्होंने तैराकी ज्यादातर इंटरनेट से सीखी और काबुल एक पूल में प्रैक्टिस की. अब उन्होंने दूसरी लड़कियों को यह हुनर सिखाने का बीड़ा उठाया है. वह कहती हैं, “मैं जानती हूं कि मैंने एक वर्जित क्षेत्र में कदम रखा है. इस टीम को बनाकर मैंने बड़ा जोखिम उठाया है.” (फोटो सांकेतिक)
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बाधाएं
सबसे बड़ा खतरा तालिबान चरमपंथी ही हैं जबकि इस्लामिक स्टेट जैसे गुट भी वहां मजबूत हो रहे हैं. इसके अलावा पुरूष प्रधान अफगान समाज में महिलाओं पर कई तरह की पाबंदियां भी सबूरी के रास्ते को रोड़े हैं. सबूरी और उनकी टीम अपनी कमर, बाहें और जांघों को ढके बिना नहीं तैर सकतीं.
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खास स्विमिंग सूट
सबूरी की टीम के लिए ब्राजील की एक कंपनी से खास स्विमसूट बनवाने की बात चल रही है. अफगान फेडरेशन ऑफ स्विमिंग के युवा अध्यक्ष सैयद अहसान ताहिरी कहते हैं, “हमारे स्विमर्स के लिए सबसे बड़ी बाधा सुरक्षा ही है.”
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लक्ष्य है टोक्यो
ताहिरी एलेना सबूरी की तारीफ करते हुए कहते हैं, “हमारा लक्ष्य है कि 2020 के टोक्यो ओलंपिक में हम कम से दो पुरूष और एक महिला तैराक के साथ मौजूद रहें.” अगर ऐसा हुआ तो ओलंपिक में पहली बार कोई अफगान महिला तैराक पहुंचेगी.
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गलतफहमी
ताहिरी कतर, ईरान और सऊदी अरब का हवाला देते हुए कहते हैं कि अफगानिस्तान को छोड़ कर सभी मुस्लिम देशों की महिला टीमें हैं. वह कहते हैं कि अफगानिस्तान में कुछ यह गलतफहमी भी है कि इस्लाम में महिलाओं के खेलने पर पाबंदी है.
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फंडिंग के प्रयास
ताहिरी की फेडरेशन काबुल में कम से कम चार पूलों को फिर से खड़ा करने में जुटी है. इनमें 1970 के दशक में सोवियत अधिकारियों का बनाया एक पूल भी शामिल है. ताहिरी को सरकारी मदद का इंतजार तो है ही, उन्होंने फंडिंग के लिए एक वेबसाइट भी शुरू की है.
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हिम्मत नहीं हारेंगे..
सबूरी का कहना है कि वह हिम्मत हारने वाली नहीं है. लगभग एक दर्जन महिलाएं उनके साथ आई हैं. वह कहती हैं, “उन्होंने मुझसे संपर्क किया. मैंने उन्हें झटपट अपने साथ जोड़ लिया. मैं उन्हें ऐसे ही नहीं जाने दे सकती हूं.”
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गोल्डन गर्ल सेंटर में ट्रेनिंग करने वाली बहुत लड़कियों का कहना है कि वे हमेशा से फुटबॉल खेलना चाहती थीं, लेकिन उन्हें कभी मौका नहीं मिला था. 19 साल की सोहद मोहम्मद कहती है, "मैं सात महीने से फुटबॉल खेल रही हूं, लेकिन मेरे परिवार को सिर्फ दो ही महीने से इस बात की जानकारी है. मैं अपनी मां को बताती नहीं थी कि कहां जा रही हूं, वरना वह मुझे नहीं जाने देती. लेकिन अब कम से कम मेरी मां को इससे कोई समस्या नहीं है. हालांकि परिवार के बाकी लोग अब भी खुश नहीं है."
सोमालिया में महिलाओं को सार्वजनिक जगहों पर छोटे कपड़े पहनने की अनुमति नहीं है. इस्लामी विद्वान कहते हैं कि निक्कर, टी शर्ट और चुस्त ट्राउजर इस्लामी पोशाकों के अनुरूप नहीं हैं. ट्रेनिंग फील्ड के पास रहने वाले यूसुफ अब्दीरहमान का कहना है, "मैं यहां आकर उन्हें ट्रेनिंग करते हुए देखता हूं. लेकिन ईमानदारी से कहूं तो मैं कभी नहीं चाहूंगा कि मेरी बहन इस तरह से खेले. यह समाज की नजर में अच्छा नहीं है क्योंकि वे छोटे कपड़ों में नंगी दिखती हैं."
वहीं पास ही में खड़े मोहम्मद याह्या को महिलाओं के फुटबॉल खेलने पर कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन उनके कपड़ों को लेकर वह भी सहज नहीं हैं. उनका कहना है, "मैं समझता हूं कि महिलाओं के फुटबॉल खेलने में कोई बुराई नहीं है. लेकिन उन्हें अपना ड्रेस कोड बदलना चाहिए. वह कुछ ऐसा पहनें जो स्लिम फिटिंग का ना हो. लेकिन जब तक उनके शरीर का कोई हिस्सा नहीं दिखता, वह इस्लामी ड्रेस कोड के हिसाब से ठीक है." लेकिन गोल्डन गर्ल्स को इन सब बातों से ज्यादा फर्क नहीं पड़ता. हिकाब अब्दुकादिर कहती हैं, "मेरी महत्वाकांक्षा इतनी ऊंची है कि बार्सिलोना के लिए खेलने वाली महिला फुटबॉलरों के जितनी तरक्की करूं."
एके/एमजे (एएफपी)
खतरे उठाकर सुरों को साधती ये अफगान लड़कियां
बेहद कट्टरपंथी समझे जाने वाले अफगान समाज में कुछ लड़कियों ने सुरों के सहारे बदलाव का बीड़ा उठाया है. उन्होंने अफगानिस्तान का पहला महिला ऑर्केस्ट्रा बनाया है जिसे दुनिया भर में प्यार और सराहना मिल रही है.
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क्यों अहम है जोहरा
अफगानिस्तान में संगीत को अच्छा नहीं समझा जाता और खासकर महिलाओं के लिए तो बिल्कुल नहीं. इसलिए कुछ लड़कियों का एक साथ मिल कर जोहरा नाम से ऑर्केस्ट्रा बनाना बहुत अहमियत रखता है. ये सभी लड़कियां अफगानिस्तान नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ म्यूजिक में पढ़ती हैं.
तस्वीर: G.Beadle/WEF
संगीत के लिए टूटे रिश्ते
इस सिम्फनी की दो कंडक्टरों में से एक नेगिन के पिता तो उनका साथ देते हैं. लेकिन उनके अलावा पूरा परिवार संगीत सीखने और ऑर्केस्ट्रा में शामिल होने के खिलाफ था. वह बताती हैं कि उनके कई रिश्तेदारों ने इसी वजह से उनके पिता से अपने संबंध तक तोड़ लिए.
तस्वीर: picture-alliance/dpa/M. Jawad
अहम संस्थान
अफगानिस्तान नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ म्यूजिक देश के उन चंद संस्थानों में से एक है जहां लड़के लड़कियां एक साथ पढ़ते हैं. नेगिन ने यहीं पियानो और ड्रम बजाना सीखा और वे जोहरा की कंडक्टर बन गईं.
तस्वीर: picture-alliance/dpa/M. Jawad
संगीत की महक
जोहरा ने अपनी पहली विदेशी परफॉर्मेंस स्विट्जरलैंड के दावोस में विश्व आर्थिक फोरम के दौरान दी. इसके बाद स्विट्जरलैंड और जर्मनी के चार अन्य शहरों में भी उन्होंने अपने संगीत का जादू बिखेरा. पारंपरिक पोशाकों में सजी इन लड़कियों के संगीत की महक धीरे धीरे दुनिया में फैल रही है.
तस्वीर: A. Sarmast
संगीत की देवी
जोहरा में 12 साल से 20 साल तक की उम्र की 30 से ज्यादा लड़कियां हैं. ऑर्केस्ट्रा का नाम फारसी साहित्य में संगीत की देवी कही जाने वाले जोहरा के नाम पर रखा है. यह ऑर्केस्ट्रा पारंपरिक अफगान और पश्चिमी शास्त्रीय संगीत बजाता है.
सरमस्त ने इसके लिए जोखिम भी बहुत उठाए हैं. 2014 में एक कंसर्ट के दौरान एक तालिबान आत्मघाती हमलावर ने खुद को उड़ा लिया था. इस घटना में खुद सरमस्त घायल हो गए थे जबकि दर्शकों में शामिल एक जर्मन व्यक्ति की जान चली गई थी.
तस्वीर: ANIM
मकसद
अफगानिस्तान नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ म्यूजिक के संस्थापक और निदेशक अहमद नासिर सरमस्त कहते हैं कि इस ऑर्केस्ट्रा को बनाने का मकसद यही है कि लोगों के बीच एक सकारात्मक संदेश जाए और वे बच्चे और लड़कियों को संगीत सीखने और उसमें योगदान देने के लिए प्रेरित करें.
तस्वीर: ANIM
कहां गई मीना?
इस ऑर्केस्ट्रा की शुरुआत 2014 में हुई जब सातवीं में पढ़ने वाली एक लड़की मीना ने सरमस्त के सामने ऑर्केस्ट्रा बनाने का सुझाव रखा. ऑर्केस्ट्रा तो बन गया, लेकिन पूर्वी नंगरहार प्रांत में अपनी बहन की शादी में शामिल होने गई मीना फिर कभी संस्थान में नहीं लौट पाई.
तस्वीर: Save The Children
मुश्किलें
नेगिन की तरह ऑर्केस्ट्रा की दूसरी कंडक्टर जरीफा आबिदा को भी परिवार की तरफ से विरोध झेलना पड़ा. 2014 में जब उन्होंने म्यूजिक इंस्टीट्यूट में दाखिला लिया तो सिर्फ अपनी मां और सौतेले पिता को बताया, अपने चार भाइयों और अन्य रिश्तेदारों को नहीं, क्योंकि वे कभी इसकी इजाजत नहीं देते.
तस्वीर: DW/A. Behrad
बदलाव होगा
अब हालात कुछ बेहतर हुए हैं. जरीफा के दो भाइयों को छोड़कर परिवार के सभी सदस्य उनके साथ हैं. जरीफा को उम्मीद है कि वे दोनों भी जल्दी मान जाएंगे. वह कहती हैं कि धीरे धीरे ही सही, लेकिन अफगानिस्तान भी बदलेगा जरूर.