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खाद्य सुरक्षा के कुछ सवाल

१८ जून २०१३

कहा जा रहा है कि खाद्य सुरक्षा बिल यूपीए सरकार का सबसे महत्वाकांक्षी बिल है और सरकार चाहती है कि किसी तरह ये बिल संसद में पास होकर कानून बन जाए तो वो गंगा नहाए.

तस्वीर: dpa/DW

फिलहाल अध्यादेश लाने की योजना भी खटाई में पड़ गई है. बिल को कांग्रेस का चुनावी बेड़ा पार कराने में सबसे मजबूत पतवार माना जा रहा है और जब ऐसा हो तो जाहिर है इसकी सबसे ज्यादा चिंता सोनिया ही करेंगी. यहां तक तो सब ठीक है कि चुनावी हड़बड़ी है, तुरुप का पत्ता है आदि आदि लेकिन दो बातें हैं. पहली तो ये कि इस बिल में ऐसा क्या महान है और दूसरा ये कि आखिर जब ये इतना महान है तो इसमें देरी क्यों है, हंगामा और आलोचना क्यों है और अध्यादेश की नौबत क्यों आई.

बिल में आखिर क्या हैः देश की करीब 67 फीसदी आबादी को भोजन की गारंटी मिलेगी, इसमें से 75 फीसदी आबादी ग्रामीण और 50 फीसदी शहरी होगी. छह करोड़ 20 लाख टन अनाज और अनुमानित बजट तकरीबन एक लाख 25 हजार करोड़ रुपए. एपीएल, बीपीएल की जगह नई श्रेणियां बनेंगी. प्राथमिकता वाले परिवार और सामान्य परिवार. कान को सीधे न पकड़ कर घुमाकर पकड़ने की बात है. प्राथमिकता वाले वे परिवार जो गरीबी रेखा से नीचे बसर करते हैं और सामान्य यानी गरीबी रेखा से ऊपर के परिवार. इसके अलावा बिल की खास बात ये है कि गर्भवती महिलाओं, आठवीं कक्षा तक पढ़ने वाले बच्चों और बूढ़े लोगों को पका हुआ खाना मुहैया करवाया जाएगा. स्तनपान कराने वाली महिलाओं को महीने के 1,000 रुपये भी दिए जाएंगे.

बिल के तहत सरकार प्राथमिकता श्रेणी वाले प्रत्येक व्यक्ति को सात किलो चावल और गेहूं देगी, चावल तीन रुपये और गेहूं दो रुपये प्रति किलो के हिसाब से दिया जाएगा. जबकि सामान्य श्रेणी के लोगों को कम से कम तीन किलो अनाज न्यूनतम समर्थन मूल्य के आधे दाम पर दिया जाएगा. प्राकृतिक आपदा के कारण लोगों को खाद्य सुरक्षा नहीं मिल पाती है, तो योजना के लाभार्थियों को उसके बदले पैसा दिया जाएगा.

तस्वीर: AP

तो दिखने में आकर्षक है बिल. अब कुछ सवालः

पहला सवाल ये कि सामान्य और प्राथमिक कैटगरी के परिवार कैसे चिन्हित किए जाएंगे. ग्रामीण और शहरी में कैसे चिन्हित होंगे. जबकि अभी एपीएल और बीपीएल की सरकारी परिभाषाएं ही विवादों में हैं. दूसरी बात कौन देखेगा कि कौन अत्यंत गरीब है कौन कुछ गरीब और कौन कुछ कम गरीब. निर्धारण की क्या प्रक्रिया है. क्या नई होगी या पुरानी परिपाटी से ही काम होगा.

दूसरा सवाल राज्यों के लिए ये बाध्यकारी क्यों नहीं है. राज्य अपने हिसाब से तय करेंगे. क्या तय करेंगे. खाद्यान्न की मात्रा, सामान्य और प्राथमिक परिवारों का चुनाव या वितरण की प्रक्रिया. कुछ राज्य बिल के विरोध में हैं. तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश एक या दो रुपए किलो के हिसाब से सब्सिडी वाला अन्न तो पहले से दे रहे हैं.

तीसरा सवाल ये कि कैश अंगेस्ट फूड का क्या औचित्य है. भूकंप, बाढ़, भूस्खलन, भारी बारिश, आदि जैसे असाधारण हालात में खाद्यान्न पहुंचाना सरकारी एजेंसियों के लिए प्रभावित इलाकों मे दुष्कर होगा लिहाजा नकद राशि देंगे. अब उस नकद राशि से प्रभावित या विस्थापित परिवार का क्या काम चलेगा कैसे चलेगा क्या ये उपयुक्त या पर्याप्त है, ये सोचने की फुर्सत इस बिल में नहीं है.

साढ़े चार साल तक ये बिल यूपीए सरकार और सोनिया गांधी की अगुवाई वाली राष्ट्रीय विकास परिषद के बीच गेंद की तरह लुढ़कता रहा. बिल पर मंथन करने के लिए इस दौरान एक मंत्रीमंडलीय समूह भी बना और प्रधानमंत्री की देखरेख में गठित आर्थिक सलाहकार समिति के पास भी ये मामला आया. विपक्षी दलों और सहयोगी दलों के पास तो इसका मसविदा और आलोचना के गट्ठर थे ही. और तो क्या कहते, सबसे पहले पीएम की आर्थिक सलाहकार समिति ने ही बिल में ऐसे मीनमेख निकाले कि बिल की मूल भावना ही गायब हो गई.

चौथा सवाल ये है कि सार्वजनिक वितरण या राशन प्रणाली का क्या हाल है. उत्पादन और वितरण और भंडारण में कितना समन्वय है. अन्न की पैदावार, उसकी गुणवत्ता का सवाल ही नहीं उसके भंडारण का सवाल भी है. स्टोरेज का हाल तो अपने देश में छिपा नहीं है. टनों खाद्यान्न सड़ जाता है और किसी के कान मे जूं तक नही रेंगती. तो फिर भोजन के अधिकार का ढोल क्यों बजाया जा रहा है. (भारत में लाखों टन अनाज की बर्बादी)

पांचवां सवाल ये कि जो कृपा इस देश की भूखी जनता पर की जा रही है उसके तहत उसका भला हो पाएगा. क्या पांच किलो अनाज से गरीब का पेट भरता है. पोषण की बात तो छोड़ ही दीजिए. क्या ये मजाक है. राइट टू फूड कैम्पेन के तहत दर्जन से ज्यादा जन संगठन एकजुट हुए हैं और समवेत आवाज में उन्होंने सबके लिए भोजन के तहत सार्वभौम अधिकारों की मांग की है. वो बिल में है ही नहीं. सबके लिए भोजन के इस कैम्पैन के तहत सार्वभौम खाद्य सुरक्षा कानून की मांग की गई है जिसके केंद्र में खाने से ज्यादा जोर पोषण पर है. यानी कैम्पेन की मांग है कि सबको भोजन के बजाय होना ये चाहिए कि सबको पोषण हासिल हो. खाना भी पोषण का एक हिस्सा है. और पोषण में सिर्फ चावल गेंहू ही नहीं आता. दालें, फल, सब्जी, दूध आदि भी आते हैं.

यही है वह 'सवाल का निशान' जिसे आप तलाश रहे हैं. इसकी तारीख 18/06 और कोड 7345 हमें भेज दीजिए ईमेल के ज़रिए hindi@dw.de पर या फिर एसएमएस करें +91 9967354007 पर.तस्वीर: Fotolia/Stauke

कैम्पेन का मानना है कि पोषण के अभाव में खाने का ढोल पीटना भूख, गरीबी, बीमारी के शिकार लोगों के साथ क्रूर मजाक है. अधिकारों से यूं भी वंचित समाज को ये और असहाय करेगा. बच्चों और स्त्रियों को तो छोड़ ही दीजिए. विडंबनाओं और जघन्यताओं से वे पहले ही घिरे हुए तबके हैं.

ब्लॉगः शिवप्रसाद जोशी, देहरादून

संपादनः एन रंजन

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