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खुद तय कर सकेंगे अपना लिंग

२५ जनवरी २०१४

लिंगभेद केवल भारत में ही नहीं, दुनिया भर में बड़ा मुद्दा है. लेकिन लिंग निर्धारण और लैंगिक रुझान के बीच फर्क समझना जरूरी है. कई बार तो मां बाप खुद भी नहीं जानते कि बच्चे का लिंग क्या है.

Intersexualität
आम तौर पर महिलाओं में एक्स-एक्स और पुरुषों में एक्स-वाय क्रोमोजोम का जोड़ा पाया जाता है.तस्वीर: Intersexuelle Menschen e.V./I. Krawinkel

बच्चा पैदा होता है तो डॉक्टर अकसर कहते हैं, "मुबारक हो, बेटी हुई है" या फिर "मुबारक हो बेटा हुआ है." लेकिन अगर बच्चे का लिंग निर्धारित न किया जा सके, तब क्या. दुनिया के अधिकतर देशों में कानूनी तौर पर ऐसे लोगों की कोई पहचान नहीं है. भारत में अधिकतर माता पिता ऐसे बच्चों को त्याग देते हैं और उन्हें हिजड़ों की बस्ती में भेज दिया जाता है.

जर्मनी में पिछले साल एक नया कानून बना. इसके तहत बच्चे के जन्म प्रमाणपत्र और अन्य आधिकारिक दस्तावेजों पर उसका लिंग लिखना अनिवार्य नहीं होगा. बच्चे बड़े होने के बाद अपना लिंग खुद ही तय कर सकेंगे हालांकि फॉर्म में स्त्री, पुरुष के अलावा एक तीसरे विकल्प की संभावना अब भी नहीं है.

जननग्रंथियों का विकास किस तरह से हो रहा है, इसके अनुसार लिंग निर्धारित किया जाता है. लेकिन कई बार यह विकास ठीक से नहीं हो पाता. इसे डीएसडी यानि डिसऑर्डर ऑफ सेक्सुअल डेवेलपमेंट कहा जाता है. आम भाषा में 'इंटरसेक्स.'

जन्म के समय

अधिकतर मामलों में तो जन्म के समय ही डॉक्टर इस बारे में बता देते हैं. लेकिन कई बार जन्म के वक्त यह तय करना आसान नहीं होता कि बच्चा इंटरसेक्स है. माता पिता उन्हें बेटे या बेटी के रूप में ही पालते हैं. बेटियों के मामले में जब काफी उम्र हो जाने के बाद भी मासिक धर्म नहीं आता तब लोग डॉक्टर के पास जाते हैं और समस्या का पता चलता है.

ऐसे ही एक बच्चे की मां रेने ब्लोमेंडाल बताती हैं, "वह एक लड़का था, डॉक्टर ने भी कहा था कि वह बिलकुल परफेक्ट है." पर जब बच्चा थोड़ा बड़ा हुआ और स्कूल जाने लगा तब रेने को लगा कि कहीं कुछ ठीक नहीं है. लेकिन वह समझ नहीं पा रही थीं कि समस्या क्या है, "मैंने कभी इंटरसेक्स के बारे में नहीं सुना था. कभी किसी ने इस बारे में कोई बात ही नहीं की. या लड़के होते हैं या लड़कियां और इसके अलावा तो और किसी भी तरह के लोगों के बारे में मुझे नहीं पता."

माया इंटरसेक्सुअल हैं, ट्रांससेक्सुअल नहीं.तस्वीर: eric brinkhorst

आज उनका बच्चा 30 साल का हो चुका है और एक लड़की के रूप में अपनी पहचान बना चुका है. अपना नाम उसने माया चुना है. माया का कहना है कि बचपन में उसे समझ नहीं आया कि वह खुद से नाखुश क्यों है, "मैं कभी एक लड़के के रूप में विकसित नहीं हो पाई. मानसिक रूप से देखा जाए तो मैं उन प्राकृतिक अवस्थाओं से भी नहीं गुजरी जिससे व्यक्ति शारीरिक रूप से परिपक्व होता है. मैं खुद को कभी लड़के के रूप में देख ही नहीं पाई." आखिरकार 21 साल की उम्र में समझ आया कि दिक्कत क्या है.

इंटरसेक्स या ट्रांससेक्स

यहां यह समझना जरूरी है कि माया इंटरसेक्सुअल हैं, ट्रांससेक्सुअल नहीं. पिछले कुछ सालों से चल रहे 'एलजीबीटी' आंदोलन में कुछ नए शब्दों पर चर्चा हो रही है. लेकिन अक्सर यह समझना मुश्किल हो जाता है कि इनमें फर्क क्या है. लिंग निर्धारण और लैंगिक रुझान के बीच भी फर्क ही नहीं किया जाता. एलजीबीटी यानी लेस्बियन गे, बायसेक्सुअल और ट्रांसजेंडर.

ट्रांससेक्सुअल या फिर ट्रांसजेंडर वे लोग हैं जिनका शारीरिक विकास बिलकुल सामान्य रूप से पुरुष या स्त्री की तरह होता है लेकिन मानसिक तौर पर पुरुष होते हुए भी वह खुद को स्त्री या स्त्री होते हुए खुद को पुरुष जैसा महसूस करते हैं. इंटरसेक्सुअल लोगों के साथ ऐसा नहीं है. उनके शरीर में स्त्री और पुरुष दोनों के हार्मोन होते हैं और शारीरिक रूप से उनमें दोनों के कुछ कुछ गुण आते हैं. उनका आनुवांशिक ढांचा अलग होता है. कई जानवरों में भी ऐसा देखने को मिलता है, खास कर मछलियों और स्नेल यानि घोंघों में. इन्हें हेर्माफ्रोडाइट कहा जाता है.

भारत में माता पिता ऐसे बच्चों को त्याग देते हैं.तस्वीर: picture alliance/AP Photo

क्या है वजह

आम तौर पर महिलाओं में एक्स-एक्स और पुरुषों में एक्स-वाय क्रोमोजोम का जोड़ा पाया जाता है. लेकिन इस तरह के लोगों में दोनों ही प्रकार के क्रोमोजोम होते हैं, यानी एक्स-एक्स-वाय या एक्स-वाय-वाय. यही वजह है कि इनके शरीर में दोनों तरह के जननांगों का विकास होता है.

ऐसा कितने लोगों के साथ होता है, इसके सही आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं, लेकिन डॉक्टरों का अनुमान है कि अकेले जर्मनी में हर 2,000 में से एक व्यक्ति इंटरसेक्सुअल है. ऐसे लोग स्वस्थ होते हैं लेकिन बच्चे पैदा नहीं कर सकते. हालांकि मेडिकल साइंस की मदद से अब इसे बदला भी जा सकता है.

कई मामलों में देखा गया है कि माता पिता से मिलने वाले जीन इसका कारण होते हैं. यह कुछ वैसा ही है जैसे भूरी आंखों वाले माता पिता के बच्चों की नीली आंखें होने की संभावना ना के बराबर है. कई मामलों में अनजान कारणों से जीन में आए बदलाव इसकी वजह बन जाते हैं.

दुनिया में कुछ ही देश हैं जो इस तरह के लोगों की पहचान को स्वीकारते हैं. इनमें भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल के अलावा जर्मनी, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड शामिल हैं. ऐसे में डॉक्टरों का मानना है कि नए कानूनों के कारण लोगों में इंटरसेक्सुअल व्यक्तियों को लेकर जागरूकता फैली है जो उन्हें समाज में स्वीकृति दिलाने में मददगार साबित हो सकते हैं.

रिपोर्ट: डायना फौंग/ईशा भाटिया

संपादन: मानसी गोपालकृष्णन

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