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खूब लड़ीं वह और दुनिया ने देखा

२२ अक्टूबर २०१०

रुथ मनोरमा, दक्षिण भारत से निकला यह नाम दलित और उपेक्षित तबके की महिलाओं के अधिकारों के लिए दशकों से संघर्षरत है. इनके काम को मौन क्रांति का नाम मिला. मनोरमा ने डॉयचे वेले से साक्षात्कार में अपनी योजनाओं का खुलासा किया.

संघर्ष में लगी हैं रुथतस्वीर: picture-alliance/ dpa

दक्षिण भारत से शुरू हुई इनकी मौन क्रांति भारत से निकल कर एशिया और यूरोप में भी चर्चा का विषय बन रही है. मनोरमा के शांत और शालीन तरीके से काम करने की शैली के कारण उनके काम को मौन क्रांति का नाम दिया गया है.

उनके करिश्माई व्यक्तित्व और काम को देखते हुए 2006 में मनोरमा को समाज सेवा के क्षेत्र में दिया जाने वाले दुनिया के प्रतिष्ठित सम्मान राइट लाइवलीहुड अवॉर्ड से नवाजा गया. उनका जन्म 1952 में तमिलनाडु के मद्रास में हुआ था जिसे अब चेन्नई कहा जाता है. समाजसेवी पॉल धनराज और दोरथी धनराज के घर पैदा हुईं मनोरमा को समाज सेवा का गुण विरासत में मिला. दलित परिवार में जन्म लेने के बावजूद उनकी मां दोरथी धनराज महिला अधिकारों की पैरोकार थीं और उस जमाने में पढ़ लिखकर टीचर बन गई थीं जब ऊंची जातियों में भी महिलाओं की पढ़ाई लिखाई ना के बराबर होती थी.

तस्वीर: AP

दोरथी दक्षिण भारत में महिला अधिकारों के लिए अंग्रेजी हुकूमत से लड़ रहीं पंडित रमा बाई से काफी प्रभावित थीं और उन्हीं के नाम पर उन्होंने अपनी बेटी का नाम मनोरमा रखा. मनोरमा के पिता पॉल धनराज डाक विभाग में नौकरी करते थे और उन्होंने भी भूमिहीनों के लिए लंबी लड़ाई लड़ी.

मनोरमा के खून में मौजूद समाज सेवा के गुण को परिवार की ओर से शुरू से ही खूब बढ़ावा मिला. इसमें और ज्यादा निखार लाने के लिए उन्होंने 1975 में चेन्नई की यूनीवर्सिटी से सोशल वर्क में पोस्ट ग्रैजुएशन किया. पढ़ाई के बाद नौकरी करने के बजाए मनोरमा ने दलित और उपेक्षित तबकों की महिलाओं के अधिकार दिलाने के लिए काम शुरू किया.

इसके लिए उन्होंने 1985 में वुमेन्स वॉइस नाम का एनजीओ बनाया. संगठन के स्तर पर मनोरमा ने अपने काम का दायरा मद्रास से बाहर लाकर समूचे तमिलनाडु और कर्नाटक सहित दक्षिण भारत के अन्य राज्यों तक फैलाया. तकरीबन एक दशक के दौरान उन्होंने झुग्गीवासियों, घरेलू नौकर के रूप में काम करने वालों, असंगठित क्षेत्र के मजदूरों और दलित महिलाओं को उनके अधिकारों के प्रति जागरुक किया.

तस्वीर: UNI

1993 में उन्होंने दलित महिलाओं के प्रति हिंसा की शिकायतों को लेकर बंगलौर में जनसुनवाई कर दलित चेतना का एक बड़ा मंच तैयार कर दिया. इसकी चर्चा देश दुनिया में हुई. इस काम को आगे बढ़ाने के लिए मनोरमा ने नेशनल फेडरेशन ऑफ दलित वूमेन बनाया. जिसके माध्यम से उन्होंने देश के अन्य भागों में दलित महिलाओं को जन सुनवाई के जरिए अपनी परेशानियां सार्वजनिक रूप से दुनिया के सामने रखने का मौका दिया. इससे दलित उद्धार की राजनीति करने वाली सरकारों पर सच्चाई से मुंह न मोड़ने का प्रभावी दबाव बनाने में कामयाबी मिली.

इसी साल उन्हें अमेरिका में अफ्रीकी मूल के अश्वेतों और भारत में दलितों की स्थिति पर तुलनात्मक अध्ययन के लिए बुलाया गया. साथ ही वह एशियन वूमेन्स ह्यूमन राइट्स कांउसिल की सदस्य बनाई गईं. बीजिंग में महिला अधिकारों पर चौथा संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन 1995 में और डर्बन में 2001 में नस्लवाद विरोधी विश्व सम्मेलन मनोरमा की अगुवाई में ही हुए. इसके साथ ही अंतरराष्ट्रीय स्तर पर वह महिला अधिकारों की नेता के रूप में उभर कर सामने आईं. भारत में उनका संगठन नेशनल अलाएंस ऑफ वूमन इस काम को तेजी से आगे बढ़ा रहा है. मनोरमा को उड़ीसा के कंधमाल में 2007 में चर्च समेत कुछ ईसाइयों को जिंदा जला डालने के मामले की जांच के लिए गठित नेशनल पीपुल्स ट्रिब्यूनल का सदस्य बनाया गया. ट्रिब्यूनल द्वारा इस हादसे में राज्य सरकार की गैरजिम्मेदार भूमिका को तय करने में मनोरमा का अहम योगदान रहा.

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बदले समय की जरूरतों को देखते हुए वह सत्ता में महिलाओं की भागीदारी के लिए आरक्षण की मांग को लेकर आंदोलन चला रही हैं. इसके लिए हाल ही में मनोरमा ने दिल्ली में महिलाओं की समानांतर संसद चला कर महिला आरक्षण का विरोध करने वालों को करारा जवाब दिया. भारत में इस तरह की वैकल्पिक संसद चलाने का यह एकमात्र उदाहरण है.

महिला आरक्षण के मामले में सरकार पर दबाव बनाने के लिए अल्टर्नेट पार्लियामेंट चलाने जैसे अनोखे विचार के बारे में मनोरमा ने बताया कि महिलाओं के प्रगतिशील आंदोलन को सफल बनाने की यह पहली जरूरत है कि संसद में महिलाओं की प्रभावी भागीदारी हो. संसद की कम से कम एक तिहाई सीटों पर महिलाओं का होना जरूरी है. उन्होंने बताया ..यह मांग काफी पुरानी है और मुझे लगता है पिछले दस सालों से इस पर सिर्फ बहस हो पाती है कानून नहीं बन पाता. भारत को दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र बनाने में देश की आबादी में आधी हिस्सेदारी रखने वाली महिलाओं को नजरंदाज कैसे किया जा सकता है. इसलिए सत्ता से लेकर हर स्तर पर महिलाओं की भागीदारी तय करना देश के हित में एक जायज मांग है जो विधायिका में महिलाओं को आरक्षण देकर ही पूरी हो सकती है... वैसे भी नगर पालिकाओं और पंचायतों में जब आरक्षण देने के परिणाम अच्छे रहे तो फिर संसद और विधानसभाओं में आरक्षण देने में क्या हर्ज है. उन्होंने कहा जब संसद में बैठे नेता इस पर राजनीति करने से बाज नहीं आए तो हमने उन्हीं की नाक के नीचे दिल्ली में समानांतर संसद चलाने का फैसला किया.

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इस कवायद से अपनी मांग को सरकार और सभी दलों के सांसदों को समझाने में कामयाबी के सवाल पर मनोरमा ने कहा उनकी मांग को सरकार पूरी तरह से समझती है और संप्रग सरकार के एजेंडे में भी यह बात शामिल है. सिर्फ इसे कानूनी अमलीजामा पहनाते समय कुछ विपक्षी दल रोड़ा बनते हैं. उनकी मांग आरक्षण के भीतर आरक्षण देने की है. इस गतिरोध को संसद में हंगामा करने के बजाए एक बार मिल बैठ कर दूर किया जा सकता. लेकिन असल में उनकी मंशा इसे टालना और इस पर राजनीति करना है. इसीलिए नेताओं पर दबाव बनाने के लिए नेशनल अलाएंस ऑफ वूमेन ने वैकल्पिक संसद से आरक्षण संबंधी प्रस्ताव पारित किया.

वैकल्पिक संसद के सदस्यों की चयन प्रक्रिया को बड़ी ही रोचक बताते हुए मनोरमा ने बताया कि उनका संगठन 2008 से ही महिलाओं को संसद में भेजने के लिए तैयारी कर रहा है. इसके लिए देश के सभी 545 संसदीय क्षेत्रों में महिला संगठनों के माध्यम से महिलाओं को चुनाव लड़ने से लेकर समूची संसदीय प्रक्रिया के बारे में प्रशिक्षित किया जा रहा है. इस तरह देश भर में एक बड़ा नेटवर्क खड़ा कर दिया गया है. नवंबर 2009 में आयोजित की गई अल्टर्नेट पार्लियामेंट के लिए इन्हीं प्रशिक्षित महिलाओं में से 545 सांसदों का चुनाव करवाया. जिसमें दलित पिछड़ी और अल्पसंख्यक तबके की महिलाओं को बाकायदा आरक्षण दिया गया. उन्होंने बताया कि चार दिन तक चली इस संसद में शिक्षा, कृषि, और विकास सहित राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय महत्व के तमाम मुद्दों पर विस्तार से चर्चा कर बाकायदा सरकार के नाम प्रस्ताव भी पारित किए गए.

भारत में इस समय राष्ट्रपति और मुख्यमंत्री सहित तमाम बड़े पदों पर महिलाओं की मौजूदगी के बावजूद देश में महिला अधिकारों की लचर हालत होने के बारे में मनोरमा का कहना है कि यह एक बड़ी उपलब्धि तो है लेकिन यह संतोषजनक नहीं है. वह कहती हैं कि कुछ लोगों के बड़े पदों पर बैठने से यह नहीं कह सकते कि हालत सुधर गई. यह मकसद तभी पूरा होगा जब संसद से लेकर सरकार तक सभी स्तरों पर महिलाओं की भागीदारी हो और इसके लिए आरक्षण ही एकमात्र विकल्प है. महिलाओं की भागीदारी के बिना लोकतंत्र सही मायने में लोकतंत्र है ही नहीं.

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इसके पीछे उनकी दलील है कि पूरी दुनिया में महिला आरक्षण के पीछे सकारात्मक सोच है. जिसका मकसद सदियों से गैरबराबरी के शिकार लोगों को बराबरी के पायदान पर लाना है. इसी सोच के साथ संविधान में भी समानता के अधिकार को पूरा करने के लिए आरक्षण का प्रावधान है. संयुक्त राष्ट्र संघ भी इसे मानता है. इसके अलावा नगर पालिका और पंचायतें चला कर महिलाओं ने साबित कर दिया कि वे देश भी चला सकती हैं. आरक्षण की मांग सिर्फ भारत में ही नहीं है यूरोप में यह बहुत पहले से है. पाकिस्तान और बंगलादेश जैसे देशों भी दिया जा चुका है.

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अपने कामकाज का दायरा में आम तौर पर दलित महिलाओं पर ही केन्द्रित रखने के सवाल पर उनका कहना है कि वह नेशनल अलायंस ऑप वूमेन्स की अध्यक्ष हैं और यह संगठन हर तबके की महिलाओं के लिए काम कर रहे तमाम संगठनों का केन्द्र है. लेकिन वह ज्यादा ध्यान दलित महिलाओं पर ही केन्द्रित होने को भी सही मानती हैं. मनोरमा कहती हैं कि गरीबी के कारण दलित महिलाएं भेदभाव की ज्यादा शिकार होती हैं. छुआछूत और घरेलू हिंसा से लेकर सामाजिक भेदभाव तक सभी समस्याओं की शिकार दलित महिलाएं है. आज भी अपने हाथों से गंदगी साफ करने को मजबूर दलित महिलाएं देश के लिए शर्म की बात हैं. इसलिए समस्या की गंभीरता को देखते हुए दलित महिलाओं को ऊपर रखा.

रिपोर्टः निर्मल यादव

संपादनः ए कुमार

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