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गणतंत्र और धर्म के बीच झूलता फ्रांस

केर्स्टेन क्निप९ जनवरी २०१५

फ्रांस का इस्लामी देशों के साथ ऐतिहासिक रिश्ता है. उन्हीं पर मौजूदा समय के बंधन और तनाव आधारित हैं. शार्ली एब्दॉ पर हुए हमले का मकसद फ्रांस और इस्लाम के जटिल संबंधों को विफल बनाना है.

तस्वीर: CLAUDE PARIS/AP/dapd

किताब प्रकाशित भी नहीं हुई थी, लेकिन हंगामा मच गया. हर कहीं फ्रेंच लेखक मिशेल उलेबेक के नए उपन्यास पराधीनता पर बहस शुरू हो गई. कोई पत्रिका ऐसी नहीं है जिसने उस पर कुछ न लिखा हो. इस हफ्ते सोमवार को यह बहस फ्रांस के राष्ट्रपति भवन तक भी पहुंची. राष्ट्रपति फ्रांसोआ ओलांद ने कहा कि वे किताब पढ़ेंगे, क्योंकि लोग उसके बारे में बात कर रहे हैं. राष्ट्रपति ने मीडिया को बताया, "यह बताना मेरी जिम्मेदारी है कि हम परेशान माहौल में दिमाग नहीं खोएंगे." उन्होंने कहा कि हमें डर को अपने ऊपर अधिकार करने की इजाजात नहीं देनी चाहिए. फ्रांस कई बार कब्जाया गया है, वह इस अनुभव को जानता है.

राष्ट्रपति ओलांद उलेबेक की किताब पर बहस से पैदा हुई स्थिति को शांत करना चाहते थे, गरम हो चुकी बहस को ठंडा करना चाहते थे. उनके नए उपन्यास में बताया गया है कि उग्र दक्षिणपंथी मारीन ले पेन को रोकने के लिए एक मुस्लिम को फ्रांस का राष्ट्रपति चुना गया है. देश की प्रतिक्रिया, एक ने उन्हें चेतावनी देने वाला बताया तो दूसरे ने आप्रवासन की बहस की आग में तेल झोंकने वाला. खुद उलेबेक ने बीच का रास्ता चुना और कहा, "उन्हें नहीं मालूम कि उन्हें किससे ज्यादा डर है, अस्मिता पर जोर देने वाले फ्रांसीसियों से या मुसलमानों से." उनकी किताब उसी दिन बाजार में आई जिस दिन शार्ली एब्दॉ पर आतंकी हमला हुआ.

मिशेल उलेबेकतस्वीर: Miguel Medina/AFP/Getty Images

औपनिवेशिक अतीत

दोनों घटनाओं का एक ही दिन होना संयोग है क्या? या ऐसी योजना थी, व्यंग्य पत्रिका पर हमला उन पर हमला होना चाहिए जो हमलावर के नजरिए से इस्लाम पर नामुनासिब टिप्पणी करते हैं. तय है कि हमला ऐसे समय में हुआ है जब फ्रांस के लोग उत्तेजित होकर इस्लाम और फ्रांस में उसकी उपस्थिति के बारे में बहस कर रहे हैं. फ्रांस में विभिन्न मुस्लिम देशों के 40 से 60 लाख लोग रहते हैं. बहुत से फ्रांसीसियों को लगता है कि यह धर्मनिरपेक्ष देश की राजनीतिक, कानूनी और धार्मिक छवि को स्थायी रूप से बहल दे सकता है.

यह बहस बहुत पहले बीत चुकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में हो रही है. 1830 में फ्रांस ने अल्जीरिया को जीत लिया था. वहां उन्होंने औपनिवेशिक शासन की स्थापना की जो 130 सालों तक चला. 1962 में लंबी लड़ाई के बाद जिसमें दोनों ओर के काफी लोग मारे गए, अल्जीरिया फिर से आजाद हुआ. फ्रांस और अल्जीरिया में इन दिनों की अलग अलग यादें हैं. एक ओर फ्रांसीसी राष्ट्रवादी हैं जो आज भी अल्जीरिया से वापसी को स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं तो दूसरी ओर अल्जीरिया के राष्ट्रवादी औपनिवेशिक शासन को पराजित कर चुके हैं.

तस्वीर: picture-alliance/Godong/Robert Harding

सांस्कृतिक संघर्ष

लेकिन अल्जीरिया के हाल के इतिहास पर फ्रांस ने अपनी छाप छोड़ी है. 1990 के दशक में अल्जीरिया के गृहयुद्ध के दौरान जिहादियों ने फ्रांस में भी जानलेवा हमले किए थे. बहुसांस्कृतिक फ्रांस में लोगों के बीच तनावपूर्ण संबंधों के कारण 1985 में एसओएस नस्लवाद संगठन बना था. विभिन्न जातीय और धार्मिक गुटों के बीच शांतिपूर्ण जीवन के समर्थन में उसका नारा था, "मेरे साथी को मत छुओ." फिर भी समाज में मुस्लिम आप्रवासियों के समेकन पर बहस पूरी नहीं हुई है. 2005 में कई शहरों में युवा आप्रवासियों ने हिंसक प्रदर्शन किए.

समाज में सांस्कृतिक संघर्ष भी दिखता है. जुलाई 2014 में यूरोपीय मानवाधिकार अदालत ने फ्रांस में 2011 से लागू बुरका प्रतिबंध की पुष्टि कर दी थी. इस कानून में महिलाओं पर सार्वजनिक स्थलों पर बुरका पहनने पर रोक है. इसे नहीं मानने पर 150 यूरो की सजा है. मार्च 2012 में एक यहूदी स्कूल पर हुए हमले की भी आलोचना हुई थी. दूसरी ओर बहुत से मुसलमान फ्रांस में पूर्वाग्रहों और बदनामी की शिकायत करते हैं. 2010 में नेशनल फ्रंट की मारीन लेपेन ने खुले में मुसलमानों के नमाज पढ़ने को फ्रांसीसी धरती पर कब्जा बताया था. सीरिया और इराक में आईएस की करतूतें बहस को और बढ़ा रही हैं. संभवतः इसी पृष्ठभूमि में व्यंग्य पत्रिका शार्ली एब्दॉ पर आतंकी हमला हुआ है.

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