गन्ने को भारत की मूल फसल माना जाता है लेकिन अच्छी फसल के बावजूद किसानों को इसका फायदा नहीं पहुंचता. आखिर क्यों?
विज्ञापन
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने बागपत में एक कार्यक्रम के दौरान किसानों से कह दिया कि वे गन्ना कम उगाएं और दूसरी फसलों पर ध्यान दें क्योंकि ज्यादा गन्ने का मतलब है ज्यादा चीनी, जिससे लोगों को डायबिटीज हो रहा है. योगी के बयान को विपक्ष ने मुद्दा बना दिया. सोशल मीडिया पर तरह तरह के कमेंट्स आने लगें. इसकी खूब चर्चा होनी लगी. लेकिन गन्ना और चीनी उत्पादन के चक्र पर किसी का ध्यान नहीं गया.
गन्ना किसानों के बकाया भुगतान को हमेशा ही राजनितिक दल मुद्दा बनाते रहे हैं. इस मुद्दे पर धरना प्रदर्शन और चुनाव तक होते हैं. लेकिन कभी इसका कोई हल नहीं निकला. गन्ना किसान आज भी संघर्ष कर रहा हैं और चीनी मिल मालिक अलग परेशान हैं. विपक्ष में चाहे जो भी दल हो, वह हमेशा हमलावर रहता और सत्ता पक्ष यही कहता है कि हमने ज्यादा भुगतान कराया.
चीनी का उत्तर प्रदेश में इतिहास
वैसे तो गन्ने को भारत की मूल फसल माना जाता है. भारत में चीनी उद्योग तब बढ़ना शुरू हुआ जब नील का व्यवसाय मंदा पड़ने लगा क्योंकि जर्मनी में रंग बनाने की नई तकनीक विकसित हो गई थी. साल1920 में भारत में इंडियन शुगर समिति की स्थापना हुई. उससे पहले ही उत्तर प्रदेश के देवरिया में प्रतापपुर में 1903 में चीनी मिल शुरू हो गयी थी.
ये हैं भारतीय किसानों की मूल समस्याएं
ये हैं भारतीय किसानों की मूल समस्याएं
भारत की पहचान एक कृषि प्रधान देश के रूप में रही है लेकिन देश के बहुत से किसान बेहाल हैं. इसी के चलते पिछले कुछ समय में देश में कई बार किसान आंदोलनों ने जोर पकड़ा है. एक नजर किसानों की मूल समस्याओं पर.
तस्वीर: picture-alliance/dpa/P. Adhikary
भूमि पर अधिकार
देश में कृषि भूमि के मालिकाना हक को लेकर विवाद सबसे बड़ा है. असमान भूमि वितरण के खिलाफ किसान कई बार आवाज उठाते रहे हैं. जमीनों का एक बड़ा हिस्सा बड़े किसानों, महाजनों और साहूकारों के पास है जिस पर छोटे किसान काम करते हैं. ऐसे में अगर फसल अच्छी नहीं होती तो छोटे किसान कर्ज में डूब जाते हैं.
तस्वीर: Getty Images/AFP/NJ. Kanojia
फसल पर सही मूल्य
किसानों की एक बड़ी समस्या यह भी है कि उन्हें फसल पर सही मूल्य नहीं मिलता. वहीं किसानों को अपना माल बेचने के तमाम कागजी कार्यवाही भी पूरी करनी पड़ती है. मसलन कोई किसान सरकारी केंद्र पर किसी उत्पाद को बेचना चाहे तो उसे गांव के अधिकारी से एक कागज चाहिए होगा.ऐसे में कई बार कम पढ़े-लिखे किसान औने-पौने दामों पर अपना माल बेचने के लिए मजबूर हो जाते हैं.
तस्वीर: DW/M. Krishnan
अच्छे बीज
अच्छी फसल के लिए अच्छे बीजों का होना बेहद जरूरी है. लेकिन सही वितरण तंत्र न होने के चलते छोटे किसानों की पहुंच में ये महंगे और अच्छे बीज नहीं होते हैं. इसके चलते इन्हें कोई लाभ नहीं मिलता और फसल की गुणवत्ता प्रभावित होती है.
तस्वीर: Getty Images/AFP/N. Seelam
सिंचाई व्यवस्था
भारत में मॉनसून की सटीक भविष्यवाणी नहीं की जा सकती. इसके बावजूद देश के तमाम हिस्सों में सिंचाई व्यवस्था की उन्नत तकनीकों का प्रसार नहीं हो सका है. उदाहरण के लिए पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के क्षेत्र में सिंचाई के अच्छे इंतजाम है लेकिन देश का एक बड़ा हिस्सा ऐसा भी है जहां कृषि, मॉनसून पर निर्भर है. इसके इतर भूमिगत जल के गिरते स्तर ने भी लोगों की समस्याओं में इजाफा किया है.
तस्वीर: picture alliance/NurPhoto/S. Nandy
मिट्टी का क्षरण
तमाम मानवीय कारणों से इतर कुछ प्राकृतिक कारण भी किसानों और कृषि क्षेत्र की परेशानी को बढ़ा देते हैं. दरअसल उपजाऊ जमीन के बड़े इलाकों पर हवा और पानी के चलते मिट्टी का क्षरण होता है. इसके चलते मिट्टी अपनी मूल क्षमता को खो देती है और इसका असर फसल पर पड़ता है.
तस्वीर: picture-alliance/AP Photo/M. Swarup
मशीनीकरण का अभाव
कृषि क्षेत्र में अब मशीनों का प्रयोग होने लगा है लेकिन अब भी कुछ इलाके ऐसे हैं जहां एक बड़ा काम अब भी किसान स्वयं करते हैं. वे कृषि में पारंपरिक तरीकों का इस्तेमाल करते हैं. खासकर ऐसे मामले छोटे और सीमांत किसानों के साथ अधिक देखने को मिलते हैं. इसका असर भी कृषि उत्पादों की गुणवत्ता और लागत पर साफ नजर आता है.
तस्वीर: DW/P. Mani Tewari
भंडारण सुविधाओं का अभाव
भारत के ग्रामीण इलाकों में अच्छे भंडारण की सुविधाओं की कमी है. ऐसे में किसानों पर जल्द से जल्द फसल का सौदा करने का दबाव होता है और कई बार किसान औने-पौने दामों में फसल का सौदा कर लेते हैं. भंडारण सुविधाओं को लेकर न्यायालय ने भी कई बार केंद्र और राज्य सरकारों को फटकार भी लगाई है लेकिन जमीनी हालात अब तक बहुत नहीं बदले हैं.
तस्वीर: Anu Anand
परिवहन भी एक बाधा
भारतीय कृषि की तरक्की में एक बड़ी बाधा अच्छी परिवहन व्यवस्था की कमी भी है. आज भी देश के कई गांव और केंद्र ऐसे हैं जो बाजारों और शहरों से नहीं जुड़े हैं. वहीं कुछ सड़कों पर मौसम का भी खासा प्रभाव पड़ता है. ऐसे में, किसान स्थानीय बाजारों में ही कम मूल्य पर सामान बेच देते हैं. कृषि क्षेत्र को इस समस्या से उबारने के लिए बड़ी धनराशि के साथ-साथ मजबूत राजनीतिक प्रतिबद्धता भी चाहिए.
तस्वीर: DW/P. Mani Tewari
पूंजी की कमी
सभी क्षेत्रों की तरह कृषि को भी पनपने के लिए पूंजी की आवश्यकता है. तकनीकी विस्तार ने पूंजी की इस आवश्यकता को और बढ़ा दिया है. लेकिन इस क्षेत्र में पूंजी की कमी बनी हुई है. छोटे किसान महाजनों, व्यापारियों से ऊंची दरों पर कर्ज लेते हैं. लेकिन पिछले कुछ सालों में किसानों ने बैंकों से भी कर्ज लेना शुरू किया है. लेेकिन हालात बहुत नहीं बदले हैं.
तस्वीर: Aditi Mukerji
9 तस्वीरें1 | 9
द शुगरकेन एक्ट 1934 द्वरा प्रदेश सरकार को गन्ने का न्यूनतम मूल्य निर्धारित करने का अधिकार मिल गया. उत्तर प्रदेश में 1935 में गन्ना विकास विभाग बनाया गया. आज उत्तर प्रदेश पूरे भारत में सबसे ज्यादा चीनी पैदा करता है. प्रदेश में 2013 में गन्ना नीति भी लागू कर दी गई है. उत्तर प्रदेश में वर्तमान में निजी क्षेत्र में 94, सहकारी क्षेत्र में 24 और शुगर कॉरपोरेशन के अधीन एक चीनी मिल में गन्ने की पेराई हो रही है.
गर्व से हम भले कह लें कि उत्तर प्रदेश पूरे भारत में सबसे ज्यादा चीनी का उत्पादन करता है लेकिन इसकी जमीनी हकीकत कुछ और है. तीनो पक्ष यानी गन्ना किसान, चीनी मिल मालिक और राजनितिक दल इसमें अपनी अपनी बात कह रहे हैं.
ज्यादा गन्ना बना मुसीबत
14 सितंबर 2018 की शाम तक के सरकारी आंकड़े अगर देखें, तो उत्तर प्रदेश में गन्ना किसानों का कुल भुगतान 35,428.28 करोड़ रुपये बनता है, जिसमें से 9,817.59 करोड़ अभी बकाया है. इसमें निजी क्षेत्र की चीनी मिल के सबसे ज्यादा 8,634.22 करोड़ रुपये शामिल हैं. अब मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने एलान कर दिया है कि 15 अक्टूबर तक सब बकाया क्लियर किया जाए. फिलहाल भुगतान धीमी गति से चल रहा है.
उत्तर प्रदेश शुगर मिलर्स एसोसिएशन के जनरल सेक्रेटरी दीपक गुप्तारा के अनुसार 10-20 करोड़ के भुगतान से स्थिति नहीं सुधरेगी. समस्या का मूल क्या है, ये देखना होगा. एक अक्टूबर से नया गन्ना सीजन शुरू होगा और 31 अक्टूबर तक नया गन्ना क्रशिंग के लिए आ जाएगा. फिर उसके भुगतान का मीटर शुरू हो जाएगा. सरकार अपने स्तर से कार्यवाही करती है. डिफॉल्टर मिल मालिको पर एफआईआर तक दर्ज होती है. लेकिन दीपक गुप्तारा कहते हैं, "पैसे का भुगतान पैसे से ही होगा. आप फांसी चढ़ा दीजिए लेकिन जब पैसा ही नहीं है, तब कैसे करे कोई भुगतान?"
यूं चलता है बाजार
आखिर पैसा क्यों नहीं है? बाज़ार को समझने की कोशिश करते हैं. निजी क्षेत्र की मिलों के मुताबिक एक किलो चीनी के उत्पादन पर 36 रुपये की लागत आती है, जिसमें गन्ने का भुगतान शामिल है. बाजार में 30-31 रुपये प्रति किलो की कीमत मिलती है यानी एक किलो चीनी पर शुद्ध 5-6 रुपये का नुकसान. अगर विदेश आयात करेंगे, तो केवल 21-22 रुपये प्रति किलो मिलेंगे.
मूर्ख किसान मोटा आलू ही उगायेगा...
मूर्ख किसान मोटा आलू ही उगायेगा...
रोजाना भोजन में इस्तेमाल होने वाले आलू की खेती किसी दौर में सेनाओं के संरक्षण में हुआ करती थी. भारत की ही तरह आलू जर्मन लोगों के खाने में अहम जगह रखते हैं. एक नजर आलू से जुड़े अजब-गजब तथ्यों पर.
तस्वीर: Igor Kovalchuk - Fotolia.com
आलू है मुख्य आहार
आलू जर्मन लोगों का मुख्य आहार है. कभी सूप में, कभी तल कर, कभी फ्रेंच फ्राइज में तो कभी चिप्स में, जर्मन लोगों को आलू बहुत भाते हैं. जर्मनी में प्रति व्यक्ति सालाना तकरीबन 60-65 किलोग्राम आलू की खपत है.
तस्वीर: Colourbox
सेना के संरक्षण में थे आलू
जर्मनी में सन 1630 में आए. कहते हैं कि प्रशिया के राजा फ्रेडरिक द्वितीय आलू के आर्थिक और पोषक फायदों को मानते थे. उन्होंने किसानों से आलू की खेती करवाने के लिये चालबाजियां की और आलू के खेतों की देख-रेख के लिये सेना नियुक्त की.
तस्वीर: picture-alliance/akg
बनावट है अहम
आज आलू के तकरीबन 5 हजार प्रकार उपलब्ध हैं. इसलिये डिश के हिसाब से सही आलू चुनना जरूरी होता है. रूप-रंग मसला नहीं है बल्कि बनाने के तरीके पर स्वाद निर्भर करता है. कुछ आलू, सलाद बनाने के लिये उपयुक्त होते हैं तो कुछ बेकिंग और मैश करने के लिये इस्तेमाल होते हैं.
तस्वीर: picture-alliance/dpa/H. Hollemann
आलू का सलाद
आलू का इस्तेमाल सलाद बनाने में भी किया जाता है. लेकिन इसे तैयार करने के तरीके अलग-अलग हैं. कुछ लोग आलू के पतले-पतले टुकड़े कर इन्हें गर्म तेल में तलते हैं, वहीं कुछ लोग इसे मायोनीज और अचार के साथ भी खाना पसंद करते हैं.
तस्वीर: Fotolia/Printemps
पोटैटो डंपलिंग
जर्मन लोग उबले आलू को भी अपने खाने में पसंद करते हैं और ये अलग-अलग तरीकों से तैयार होते हैं. उबले आलू की पकौड़ी (पोटैटो डंपलिंग) को भुने हुये पोर्क के साथ खाना जर्मन लोग बहुत पसंद करते हैं.
तस्वीर: Quade/Fotolia
जर्मन स्टाइल चिप्स
एक जर्मन सालाना औसतन 60 किलो आलू के चिप्स खा लेता है. चिप्स की खोज जर्मनी में नहीं हुईं थी लेकिन कुछ फ्लेवर यहीं बने. शिमला मिर्च और नमक वाले चिप्स जर्मनी के थे. अब तो यहां करी, मायोनीज सभी स्वाद उपलब्ध हैं.
तस्वीर: etiennevoss - Fotolia
भोजन में फ्रेंच फ्राइज
जर्मनी में पॉमेस नाम से मशहूर इन फ्रेंच फाइज को अक्सर करी या किसी साइड डिश के साथ सर्व किया जाता है. गली-नुक्कड़ों की कई छोटी दुकानों में इसे कई तरह के सॉस के साथ भी देते हैं. ये तरीका पड़ोसी देशों में भी लोकप्रिय है.
तस्वीर: picture-alliance/dpa/T. Kleinschmidt
शाकाहारियों की पहली पसंद
आलू को जर्मन किचन का सबसे लजीज और बुनियादी पकवान माना जाता है. आलू को इसके छिलके समेत ही बेक किया जाता है और एल्यूमिनियम फॉइल में लिपटे इन आलुओं को किसी साइड डिश या सलाद के साथ सर्व किया जाता है.
तस्वीर: picture-alliance/Lars Halbauer
क्रिसमस मार्केट के राइबेकुखन
कसे हुए आलू, प्याज और कई तरह की चीजें मिलाकर चपटी टिक्की की तरह तल कर बनायी जाने वाली डिश 'राइबेकुखन' कई तरह के सॉस के साथ खाई जाती है. जर्मन क्रिसमस मार्केटों में लोग इसे खूब पसंद करते हैं, खासकर बच्चे.
तस्वीर: picture-alliance/dpa/W. Thieme
जर्मन भाषा में आलू
जर्मन भाषा में आलू पर कई मुहावरे हैं. अंग्रेजी कहावत "फॉरच्यून फेवर फूल्स" (भाग्य मूर्खों का साथ देता है) की तरह, जर्मन में कहते हैं "मूर्ख किसान मोटा आलू ही उगायेगा". जर्मन लोगों को आलू खाना ही नहीं बल्कि इसकी बातें करना भी पसंद है. (कॉर्टनी टेंस, डाग्मार ब्राइटेनबाख/एए)
तस्वीर: Igor Kovalchuk - Fotolia.com
10 तस्वीरें1 | 10
अब जरा चीनी का उत्पादन देख लीजिए. उत्तर प्रदेश में 2015-16 में चीनी 68.40 लाख टन हुई, 2016-17 में 87.70 लाख टन, 2017-18 में 120.30 लाख टन और अब 2018-19 में 130 लाख टन से ज्यादा होना अनुमानित है. गन्ना बोने का क्षेत्रफल भी बढ़ता जा रहा है. साल 2015-16 में यह 20.50 लाख हेक्टेयर था, 2016-17 में भी इतना ही रहा लेकिन 2017-18 में यह बढ़ कर 23 लाख हेक्टेयर हो गया और 2018-19 में यह 26.73 लाख हेक्टेयर है. गन्ना बोने के बड़ते रकबे और बढ़ते चीनी उत्पादन से दाम गिर गए हैं. अब भुगतान की समस्या आ गई है.
इसी तरह गन्ने का न्यूनतम समर्थन मूल्य भी बढ़ता जा रहा है. साल 2016-17 में जहां ये 305 रुपये प्रति क्विंटल था, वहीं 2017-18 में ये 315 रुपये प्रति क्विंटल हो गया है. अब इस साल इसका बढ़ना संभावित है क्योंकि यब चुनावी वर्ष है. वैसे, सरकार ने मिलर्स को सॉफ्ट लोन देने की सुविधा रखी है लेकिन कौन अपनी बैलेंस शीट पर यह दर्शाना चाहेगा? मिलर्स का मानना है कि किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य पर ठीक ठाक रिटर्न मिल जाता है, वहीं मिलर्स को नहीं मिलता.
किसानों की बात
गन्ना किसानों की बात उनके सबसे बड़े अराजनीतिक संगठन भारतीय किसान यूनियन द्वारा उठाई जा रही है. यूनियन के राष्ट्रीय प्रवक्ता राकेश टिकैत के अनुसार, "अगर किसी को मुफ्त का पैसा मिल जाए, तो क्या बुराई है? यही करते हैं ये सब. किसानों के गन्ने का पेमेंट रोक लेते हैं. कानून है कि गन्ने का पेमेंट 14 दिन के अंदर करना चाहिए वरना 14 % ब्याज पड़ेगा. लेकिन ब्याज हर बार माफ हो जाता है और वे किसानों का पैसा दबाए रहते हैं." टिकैत के अनुसार इसके लिए कोई एक सरकार दोषी नहीं है, "दोष सिर्फ यह है कि हमारा इतना दबाव नहीं है. क्या कभी किसी मिल मालिक को सरकार ने जेल में डाला है? हम संघर्ष करते हैं और कर रहे हैं."
संघर्ष निरंतर हैं. पिछले शुक्रवार को सहारनपुर के बेहट क्षेत्र में 200 गांव के हज़ारो किसानों ने धरना दिया. उनकी मांग थी कि शाकंभरी चीनी मिल को चलाया जाए ताकि उनके खेतों का गन्ना क्रशिंग के लिए वहां जा सके. ये मिल पिछले चार साल से बंद है. किसानों की इस महापंचायत में गन्ना समिति के पूर्व चेयरमैन चौधरी मोहम्मद ताहिर ने पत्रकारों को बताया, "चीनी मिल बंद होने से किसान अपने खेतों में खड़े गन्ने को लेकर चिंतित हैं. इस बार उसी को वोट देने का फैसला हो रहा है, जो इस चीनी मिल को चलवाएगा."
समय गन्ना किसान के लिए भी महत्वपूर्ण होता है. ताजा गन्ना (खेत से काटने के 24 घंटे के अंदर) क्रशिंग करने पर 0.20% शुगर रिकवरी बढ़ जाती है. ऐसे में मिल अगर देर से शुरू हुई, तो चीनी का उत्पादन घट जाएगा. इसीलिए अगर गन्ने की बंपर पैदावार हो रही है, तो जरूरी नहीं है कि किसान तक उसकी मिठास पहुंचेगी.
लीची वाले बिहार में अब स्ट्रॉबेरी की मिठास
लीची वाले बिहार में अब स्ट्रॉबेरी की मिठास
लीची और आम के लिए विख्यात बिहार अब स्ट्रॉबेरी भी उगा रहा है. ठंडे इलाकों में उगने वाले इस फल के बिहार जैसे वातावरण में उगने की कल्पना नहीं की थी लेकिन वैज्ञानिकों की कोशिश और किसानों के हौसले ने इसे मुमकिन कर दिखाया है.
तस्वीर: Bihar Agriculture University
बिहार में स्ट्रॉबेरी
भारत में हिमाचल प्रदेश, महाराष्ट्र और कुछ दूसरे ठंडे इलाकों में स्ट्रॉबेरी की खेती हो रही थी. बिहार के किसानों और कृषि विश्वविद्यालय सबौर के वैज्ञानिकों ने इसे अपने इलाके उगा लिया है. यहां नवंबर से फरवरी तक का मौसम ठंडा रहता है और इसी मौसम में स्ट्रॉबेरी उगाई जा रही है.
तस्वीर: Bihar Agriculture University
अक्टूबर में शुरुआत
अक्टूबर में इसके लिए पौधे लगाने के साथ काम शुरू होता है. दिसंबर तक पौधे तैयार होते हैं और फिर उनमें फूल आने शुरू हो जाते हैं. इसके बाद के दो तीन महीनों में इनसे फल निकलते हैं. गर्मी आने के साथ ही पौधे सूख जाते हैं इसलिए हर साल नए पौधे लगाने पड़ते हैं.
तस्वीर: Bihar Agriculture University
हर साल नए पौधे
यूरोपीय देशों और दूसरे ठंडे इलाकों या फिर ग्रीनहाउस में हो रही खेती का यही लाभ है कि यहां हर साल नए पौधे लगाने की जरूरत नहीं होती. एक बार पौधा लगाइए तो कई कई साल तक स्ट्रॉबेरी पैदा होती रहती है. जर्मनी में स्ट्रॉबेरी की कुछ किस्मों से तो छह साल तक फल निकलने का दावा किया जाता है.
तस्वीर: Bihar Agriculture University
स्वीट चार्ली, कामरोजा, विंटरडॉन, नबीला
बिहार कृषि विश्वविद्यालय में स्ट्रॉबेरी की विशेषज्ञ डॉ रूबी रानी ने बताया कि कई सालों तक 10-12 किस्मों पर प्रयोग किए और फिर देखा कि कुछ किस्में हैं जो यहां उगाई जा सकती हैं. बिहार में उपजाई जा रही स्ट्रॉबेरी की प्रमुख किस्मों में स्वीट चार्ली, कामरोजा विंटरडॉन, नबीला, फेस्टिवल शामिल हैं.
तस्वीर: Bihar Agriculture University
गर्मी और बारिश का संकट
तमाम कोशिशों के बावजूद पौधों को अप्रैल के बाद जीवित रखने में काफी मुश्किल हो रही है. गर्मी और भारी बारिश के कारण पौधे नष्ट हो जाते हैं, इस वजह से किसानों को हर साल ठंडे इलाकों से पौधे मंगाने पड़ते हैं और फिर उन्हीं को दोबारा खेत में लगाया जाता है.
तस्वीर: Bihar Agriculture University
पोषक तत्वों से भरपूर
दिल के आकार वाली खूबसूरत स्ट्रॉबेरी दिल के साथ ही ब्लड प्रेशर को नियंत्रित करने और कैंसर को दूर रखने में कारगर है. इसके अलावा कई पोषक तत्वों की मौजूदगी इसे बेहद फायदेमंद बनाती है. यही वजह है कि दुनिया भर में इसकी बड़ी मांग है.
तस्वीर: Bihar Agriculture University
मुश्किलों से पार पाई
मुश्किलें कई थीं लेकिन वैज्ञानिकों की जुटाई जानकारी और किसानों की मेहनत के बलबूते यह संभव हुआ. फिलहाल भागलपुर, औरंगाबाद, और आसपास के कई इलाकों में करीब 25-30 एकड़ में स्ट्रॉबेरी कारोबारी तरीके से उगाई जा रही है. इसके अलावा छोटे स्तर पर भी कई इलाके में इसे उगाया जा रहा है.
तस्वीर: Bihar Agriculture University
आस पास के इलाकों में भारी मांग
बिहार में उपजी स्ट्रॉबेरी की आसपास के इलाकों में काफी मांग है. पटना, कोलकाता और बनारस के बाजारों में ही सारी पैदावर खप जाती है. यहां स्टोरेज की सुविधा भी नहीं है इसलिए ज्यादातर स्ट्रॉबेरी तुरंत ही बेच दी जाती है. वैज्ञानिक इन्हें प्रोसेसिंग के जरिए लंबे समय तक रखने की तकनीक पर भी काम कर रहे हैं.
तस्वीर: Bihar Agriculture University
नगदी फसल
यहां किसानों को एक किलो स्ट्रॉबेरी के लिए 200 से 250 प्रति किलो की कीमत मिल रही है. नगदी फसल की भारी मांग को देख कर आसपास के इलाकों के किसान काफी उत्साहित हैं. स्ट्रॉबेरी की खेती में सफलता देख उत्तर प्रदेश के कुछ इलाकों से भी यहां लोग जानकारी के लिए आ रहे हैं.
तस्वीर: Bihar Agriculture University
लीची नहीं स्ट्रॉबेरी
बिहार बासमती धान और अच्छे गेहूं के साथ ही आम और लीची जैसे फलों के लिए विख्यात है हालांकि बदलते वक्त की मार इन पर भी पड़ी है और किसानों को तमाम दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है. स्ट्रॉबेरी ने लोगों को एक नयी फसल उगाने का रास्ता दिखा दिया है.