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गरीब तबके की नकदी का अपहरण है नोटबंदी

शिवप्रसाद जोशी
२२ नवम्बर २०१६

बहरहाल नोटबंदी से राजनैतिक नफा नुकसान की बात नहीं है, बात ये भी नहीं है कि कालाधन के खिलाफ कोई एक्शन नहीं लेना चाहिए. लेकिन नोटबंदी से यह मकसद पूरा होगा इसका क्या आधार है, पूछ रहे हैं शिवप्रसाद जोशी.

Indien Ansturm auf Banken Umtausch von rupien scheinen
तस्वीर: picture-alliance/AP Photo/Altaf Qadri

नोटबंदी को लेकर पूरे भारत में भय, असमंजस, चिंता और आक्रोश का अजीबोगरीब माहौल है. दावा तो सरकार ने यही किया था कि जनता धैयपूर्वक ब्लैकमनी को जड़ से उखाड़ने के "महायज्ञ” में डटी रहेगी. लेकिन करीब दो सप्ताह से जैसी उथलपुथल देश में, खासकर कस्बों देहातों और शहरों में मची हुई है, उससे ये अंदाजा लगाना कठिन नहीं कि हालात मुश्किलों भरे हैं. नोटबंदी फायदे कम, तात्कालिक और दूरगामी नुकसान अधिक लेकर आई है. उत्पादन और निर्माण सेक्टर से लेकर कृषि सेक्टर तक, हर जगह गाज गिर रही है और सबसे ज्यादा चपेट में आ रहे हैं गरीब, वंचित और असहाय लोग. आखिरकार सवाल यही है कि भारत को वाकई इस समय विमुद्रीकरण की जरूरत थी भी या नहीं.

जब नोटबंदी का ये हाहाकारी अभियान पूरा हो जाएगा और प्रचलन में रही 86 फीसदी 500 और 1,000 रुपये की करेंसी पूरी तरह मिट जाएगी तब क्या होगा. क्या चीजें वापस अपनी सहजता में आ पाएंगी, क्या कालाधन-लॉबी निष्क्रिय होकर विलुप्त हो जाएगी, क्या कालाधन ही मिट जाएगा, लोगों का सुख चैन लौटेगा या उनके अपनों की जिंदगियां लौट पाएंगी जो इधर इन कुछ दिनों में किसी न किसी रूप में नोटबंदी के बाद चली गई थीं. 55 लोग इस दौरान मारे गए. कुछ ने लाइन में लगे दम तोड़ा, किसी ने आत्महत्या की, कोई घर लौटते हुए दुर्घटना में मारा गया. बेशक नोटबंदी कोई जहर न था जिससे वे मरे लेकिन अपने पुराने नोटों को बदलवाने लाइन में लगे, घरों से निकले, दिहाड़ी डुबोकर गंवाकर आए, कैंसर और न जाने कौन कौन सी बीमारियों के पीड़ित लाचार लोगों की अगर मौत हुई तो इस प्रक्रिया को उनकी मौत से बिल्कुल अलग कर देना कैसे मुमकिन हो सकता है.

सुबह बैंक से नोट बदलवाने के लिए दिल्ली के एक बैंक के बाहर ही रात गुजारते आम जन.तस्वीर: Reuters/A. Abidi

आलम ये है कि देश दुनिया के जानेमाने अर्थशास्त्री, पोलिटिकल इकॉनमी के जानकार, बिजनेस और शेयर जगत के धुरंधर भी विमुद्रीकरण की कार्रवाई से होने वाले कथित लाभ पर बंटे हुए हैं. कोई भी ठीक ठीक या डंके की चोट पर ये नहीं कह रहा है कि हां नोटबंदी कालाधन के मर्ज का सर्वथा उपयुक्त इलाज था. सरकार में भी गिनीचुनी भावनात्मक या तेवरात्मक दलीलों को छोड़ दें, तो सारे लोग एक सुर में नोटबंदी के पक्ष में नहीं आते दिखे. सत्तारूढ़ दल और सहयोगी दलों के नेताओं में भी अपनी अपनी बेचैनियां हैं. बहरहाल नोटबंदी से राजनैतिक नफा नुकसान की बात नहीं है, बात ये भी नहीं है कि कालाधन के खिलाफ कोई एक्शन नहीं लेना चाहिए. बात सिर्फ इतनी सी है कि आखिर सरकार को ये इल्हाम कैसे और कब और क्योंकर हुआ कि नोटबंदी से और वो भी उच्च करेंसी की नोटबंदी से वो कालेधन को उखाड़ फेंकेगी, चोरों का पर्दाफाश कर देगी. क्योंकि देखने में तो यही आ रहा है कि चुनिंदा मामलों में व्यापारी, कर्मचारी, ठेकेदार वर्ग को छोड़े दें तो आम लोग ही इस फैसले से तबाह हो रहे हैं. अपने ही पैसे को हासिल करने वे लाचार, बेशुमार कातर कतारों में खड़े हैं और एक खातापीता तबका अपने रोजमर्रा के आनंद में मगन ही है. वहां तो कोई खलल नहीं पड़ा. फिर ये कौन हैं जिन्हें बरबाद कर देने की बात प्रधानमंत्री कर रहे हैं. वे तो ये लोग नहीं है. क्या नोटबंदी से वे और कहीं भीतर छिप गए हैं या रूप बदलकर सामने आ गए हैं.

इलाहाबाद के एक बैंक के बाहर लंबी कतारों में खड़े लोग. तस्वीर: Reuters/J. Prakash

देश की कुल नकदी का सिर्फ छह फीसद कालाधन की श्रेणी में रखा जा सकता है. बाकी कालाधन, चल अचल संपत्तियों, सोने गहने जेवरात और अन्य विलासिताओं में छिपा है. वो तो जस का तस ही है. फिर ये नोटबंदी तो गरीब की नकदी के अपहरण जैसी ही लगती है. एक तरह से संविधान द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकारों की खुलेआम अनदेखी भी ये कही जा सकती है. देश की जनता को रातोंरात वंचित और लाचार बना देने की ऐसी मिसाल समकालीन दुनिया में कहीं और नहीं मिलती. 

लघु और मझौले सेक्टरों के व्यापार में नकदी गिर रही है. इन्हीं सेक्टरों से 75 फीसदी रोजगार और देश की 40 फीसदी जीडीपी आती है. नोटबंदी ने उनके उत्पादन चक्र को तोड़ दिया है. लिहाजा उत्पादन घटाया जा रहा है, छंटनी या तो शुरू हो गई है या उसकी नौबत बन आई है. निर्माण सेक्टर में मजदूरों पर गाज गिरी है. उनके काम छिन गए हैं. उनके खाते खुलवा दिए गए हैं और वहां ऐसा पैसा जमा हो रहा है जिसके बारे में उन्हें भी ठीक ठीक नहीं पता कि ये दिहाड़ी है या दुस्वप्न.

सीमेंट और इस्पात जैसी निर्माण सामग्रियों पर असर पड़ा है. व्यापार और उत्पादन संस्थानों में आर्थिक गतिविधि शिथिल हो गई है. ग्रामीण आय बिखर गई है. रबी की फसल का मौका बेकार जा रहा है. जाहिर है फसल इस बार किसानों को और तोड़ेगी. मांग और आपूर्ति के संतुलन गड़बड़ाएंगें. कुल मिलाकर देश का सकल घरेलू उत्पाद, जीडीपी ऋणात्मक ग्रोथ के इशारे कर रहा है. जीडीपी की दर दशमलव पांच फीसदी गिर सकती है और ये दशमलव की गिरावट देश के समूचे विकास पैटर्न को हिला देने के लिए काफी है. नोटबंदी अपने ही विकास की तालाबंदी लगती है. 

 

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