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गर्मी से राहत दिलाएगा ठंडा मॉलिक्यूल

१५ जनवरी २०१२

पृथ्वी को चारों ओर से ढंकने वाली हवा, बादल और गैसों की चादर अब पतली हो रही है. धरती गर्म हो रही है और हम जलवायु परिवर्तन के चंगुल में फंसते जा रहे हैं. इलाज है, एक नया मॉलिक्यूल.

तस्वीर: lassedesignen-Fotolia.com

मान लीजिए कि सर्दी के मौसम में ओस से बचने के लिए आपने एक चादर ओढ़ी हुई है. चादर में कुछ कुछ जगहों पर छेद हो गए हैं. ठंडी हवा से आप बच नहीं पाते. यही चादर गर्मी के दिनों में आपको सूरज की तेज किरणों से बचाती है. लेकिन छेद से सूरज की तेज किरणें आपकी त्वचा तक पहुंचती हैं. आप गर्मी से भी बच नहीं पाते.

कुछ ऐसी ही स्थिति पृथ्वी की है. फैक्ट्रियों, कारों और हमारी बढ़ती आबादी ने कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा इस कदर बढ़ा दी है कि पृथ्वी का अपना सुरक्षा कवच, यानी वायुमंडल बदल रहा है. सूरज की अल्ट्रावॉयलेट किरणों से बचाने वाली ओजोन परत पतली होती जा रही है, पृथ्वी गर्म हो रही है, मौसम बदल रहे हैं. कभी सर्दी के वक्त तापमान गिरते नहीं, तो कहीं बिन मौसम बारिश और यहां तक कि बाढ़ भी आ जाती है.

"क्रीजी" का कमाल

इस सुरक्षा कवच में वैज्ञानिकों ने एक खास मॉलिक्यूल यानी कण का पता लगाया है जो प्रदूषण बढाने वाले तत्व, जैसे नाइट्रोजन डाइऑक्साइड और सल्फर डाइऑक्साइड को कुछ ऐसे तत्वों में बदल देते हैं जो फिर बादल बन कर पृथ्वी के चारो तरफ वायुमंडल को और मजबूत करते हैं.

पिछली एक सदी में पृथ्वी का औसतन तापमान 0.8 डिग्री सेल्सियस से बढ़ा है. वैज्ञानिकों का मानना है कि तापमान में बढ़ोतरी को इस सदी में दो डिग्री से कम रखना होगा ताकि समुद्रों में पानी का स्तर बढ़े नहीं. हालांकि दोबारा इस्तेमाल होने वाली ऊर्जा और सामान्य ऊर्जा में बचत करने के बावजूद ऐसा होता दिख नहीं रहा है.

तस्वीर: DLR/Eumetsat

मैनचेस्टर विश्वविद्यालय के कार्ल पर्सिवाल ने इस प्रयोग में अमेरिका के सैंडिया नेशनल लेबोरेट्रीज के साथ काम किया. उनके मुताबिक नए मॉलिक्यूल का नाम क्रीजी बाइरैडिकल्स है. सूरज की रोशनी से 100 गुना ज्यादा तेज रोशनी के जरिए इनका पता लगाया गया है. पर्सिवाल का कहना है, "हमनें बाइरैडिकल्स पाए हैं जो सल्फर डाइऑक्साइड को ऑक्सिडाइज कर के उसे सल्फ्यूरिक एसिड बना देते हैं. इससे तापमान में गिरावट आती है."

फायदा होगा क्या?

लेकिन अब तक पता नहीं चल पाया है कि ऐसे कितने मॉलिक्यूल के होने से तापमान पर कोई बड़ा असर पड़ेगा. साथ ही इसके खतरों को भी देखना होगा और बादलों की बनावट में इनकी भूमिका को परखनी होगी. यह मॉलिक्यूल आम तौर पर एल्कीन नाम के कंपाउंड या पदार्थों के साथ पाए जाते हैं. एल्कीन्स पौधों से निकलते हैं.

पर्सिवाल कहते हैं, "पौधे इन तत्वों को रिलीज करते हैं, बाइरैडिकल के साथ मिल कर सल्फ्यूरिक एसिड बनता है और तापमान में गिरावट आ सकती है." पर्सिवाल का कहना है कि जहां एल्कीन्स और प्रदूषण बढ़ाने वाले तत्व, दोनों की मात्रा अधिक है, वहां इस तापमान में फर्क देखा जा सकेगा. जैसे कि हांगकांग और सिंगापुर में.

1991 में फिलिपींस के माउंड पीनातूबा में ज्वालामुखी के फटने से सल्फर डाइऑक्साइड निकला जो सल्फ्यूरिक एसिड बनकर आसपास के आसमान में छा गया. इससे सूरज की रोशनी में 10 प्रतिशत कमी आई और वैश्विक तापमान 0.5 डिग्री सेल्सियस से घटा. लेकिन इसमें खतरा यह है कि सल्फ्यूरिक एसिड की मात्रा ज्यादा होने से फेफड़ों की बीमारी हो सकती है, अम्लीय बारिश और ओजोन की परत को भी खतरा हो सकता है. पर्सिवाल का कहना है कि इसके अलावा वैज्ञानिक कृत्रिम ज्वालामुखियों के बारे में भी सोच रहे हैं. बादलों को और सफेद किया जा सकता है ताकि वे रोशनी को परावर्तित करें.

रिपोर्टः रॉयटर्स/एमजी

संपादनः एन रंजन

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