डब्ल्यूएचओ की ताजा रिपोर्ट में कहा गया है कि पूरी दुनिया में कुष्ठ के मामले घटने के बावजूद बीते साल ऐसे दो लाख नए मामले सामने आए हैं. इनमें से लगभग आधे मामले भारत में ही हैं.
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आज से कुछ 13-14 साल पहले ही भारत के कुष्ठमुक्त होने का एलान कर दिया गया था. लेकिन विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूयूएचओ) के ताजा आंकड़े बताते हैं कि कुष्ठ रोग एक बार फिर भारत के लिए परेशानी का सबब बन रहा है. रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया भर में बीते साल कुष्ठ रोग के जो लगभग दो लाख मामले सामने आए थे उनमें से आधे भारत में ही हैं.
भारत में ऐसे मरीजों के साथ होने वाला सामाजिक भेदभाव, उनको कलंक मानने और उनके खिलाफ पूर्वाग्रह ही इस बीमारी को खत्म करने की राह में सबसे बड़ी बाधाएं हैं. देश में अब भी इन मरीजों की हालत बदतर है और उनको हेय दृष्टि से देखा जाता है. इस रोग के इलाजयोग्य होने के विशेषज्ञों के दावों के बावजूद 21वीं सदी में भी समाज की मानसिकता में कोई खास बदलाव नहीं आया है.
विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानक के मुताबिक किसी देश को कुष्ठमुक्त उसी समय घोषित किया जाता है जब प्रति दस हजार की आबादी में कुष्ठ के एक से भी कम मामले सामने आएं. लेकिन भारत के कई राज्यों में यह औसत ज्यादा है. मिसाल के तौर पर बिहार में यह 1.18 प्रतिशत है, तो ओडीशा व छत्तीसगढ़ में क्रमश: 1.38 और 2.25 प्रतिशत.
सरकारी दावों की पोल खुली
डब्ल्यूएचओ की दक्षिण एशिया की क्षेत्रीय निदेशक पूनम खेत्रपाल सिंह कहती हैं, "भारत में कुष्ठ के मरीजों की तादाद काफी बढ़ रही है. बीते साल ही यहां एक लाख से ज्यादा ऐसे मामले सामने आए थे. अभी कई ऐसे मामले सामने नहीं आ सके हैं. ऐसे में यह तादाद और ज्यादा हो सकती है." वह बताती हैं कि इस बीमारी से जुड़े मिथकों और भेदभाव की वजह से कई लोग शुरुआती दौर में इसका खुलासा नहीं करते. इसका पता लगने तक बीमारी एडवांस स्टेज में पहुंच जाती है. विशेषज्ञों का कहना है कि शुरुआती दौर में पता लगने पर इस बीमारी का पूरी तरह इलाज संभव है. लेकिन इसके साथ जुड़े पूर्वाग्रहों की वजह से लोग सामने नहीं आते.
केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के तहत काम करने वाले सेंट्रल लेप्रोसी डिवीजन ने बताया कि वर्ष 2017 में देश में 1.35 लाख नए मामले सामने आए थे. केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली ने एक फरवरी 2017 को संसद में अपने बजट भाषण में कहा था कि वर्ष 2018 में देश से कुष्ठ रोग का खात्मा हो जाएगा. लेकिन सामाजिक कार्यकर्ताओं ने उसी समय उनके इस दावे पर सवाल उठाए थे. अब डब्ल्यूएचओ की ताजा रिपार्ट ने इस बात की पुष्टि कर दी है कि सरकार के तमाम दावों के बावजूद देश में कुष्ठ के मरीज बढ़ते ही जा रहे हैं.
बीमारों के अंग काट देते हैं लोग
बीमारों के अंग काट देते हैं लोग
अल्बीनो होना कोई जानलेवा बीमारी नहीं, लेकिन तंजानिया में इसके कारण कई लोगों की जान जाती है. लोग अंधविश्वास के कारण अल्बीनो लोगों के अंग काट लेते हैं. ऐसी घटना के शिकार हुए कई बच्चे अमेरिका से नये अंग लेकर वापस लौटे हैं.
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लौटी मुस्कान
इमानुएल रुतेमा की मुस्कान नहीं रुक रही, जब से उसे नया कृत्रिम हाथ मिला है. रुतेमा उन चार तंजानियाई बच्चों में से एक है, जिन पर हमला कर लोगों ने उनके हाथ काट लिये थे.
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अमेरिकी मदद
फिलाडेल्फिया के श्राइनर्स हॉस्पिटल फॉर चिल्ड्रेन में इन बच्चों को मिले नये अंगों की मदद से वे फिर से अपने रोजमर्रा के काम दूसरे बच्चों की तरह करने की कोशिश करने लगे हैं.
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कैसे खोया अंग
17 साल के हो चुके रूतेमा को बोलने में तकलीफ है. वो बताता है कि उस पर हमला करने वाले ने उसका एक हाथ और दूसरे हाथ की एक उंगली काट ली और फिर उसकी जीभ और दांत भी निकालने लगा.
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अंधविश्वासियों में मांग
इनमें से ज्यादातर बच्चों पर हमला कर उनके हाथ काट लिये गये थे. पूर्वी अफ्रीका के तंजानिया में अल्बीनो लोग डर के साये में जीते हैं. हमलावर उनके अंग काट लेते हैं और जादू टोना मानने वालों को ऊंची कीमतों पर बेचते हैं.
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अज्ञानता है दुश्मन
तंजानिया में इस बीमारी को समझने के बजाय लोग बीमार लोगों को भूत या बदकिस्मती का प्रतीक मानते हैं. यह एक जन्मजात विकार है जिसमें त्वचा, बालों और आंखों में रंग देने वाले पिगमेंट नहीं पाये जाते.
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कहां होता है अल्बीनिज्म
दुनिया में हर 20,000 में से एक व्यक्ति इससे प्रभावित होता है. लेकिन उप-सहारा अफ्रीका में यह ज्यादा आम है. तंजानिया में तो हर 1,400 में एक व्यक्ति की त्वचा, बालों या आंखों में रंग गायब होता है.
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कैसे रहें सुरक्षित
न्यूयॉर्क की एक चैरिटी संस्था ग्लोबल मेडिकल रिलीफ फंड की मदद से इन बच्चों को अमेरिका से नये अंग मिले हैं. तंजानिया में वे सेफ हाउस में रखे जाते हैं. अंधविश्वास मिटा कर ही अल्बीनो लोगों को बचाया जा सकता है.
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हालात जस के तस
भारत ने इस बीमारी से जुड़े दो अहम कानूनों को रद्द कर दिया है. केंद्र ने वर्ष 2016 में ब्रिटिशकाल में बने लेप्रसीअधिनियम को रद्द कर दिया था. उसके तहत कुष्ठ के मरीजों के साथ भेदभाव होता था. अभी हाल में सरकार ने उस कानून को भी खत्म कर दिया है जिसमें कुष्ठ को तलाक की ठोस वजह माना जाता था.
डब्ल्यूएचओ और तमाम मानवाधिकार संगठनों ने सरकार के इन फैसलों को सराहनीय कदम बताया है. लेकिन बावजूद इसके लोगों की मानसिकता में कोई बदलाव नहीं आया है. मुंगेर की रहने वाली रचना देवी समाज की मानसिकता की एक बड़ी मिसाल हैं. उनकी शादी 18 की उम्र में हुई थी और 21 साल की उम्र तक उनके दो बच्चे भी हो गए. लेकिन उसके कुछ ही दिनों बाद उनको कुष्ठ रोग होने का पता चलते ही घर-परिवार की निगाहें बदल गईं. परिवार ने उन्हें घर से निकाल दिया.
एक अस्पताल में इलाज के बाद रचना ने अपना जीवन ऐसे मरीजों की सेवा के प्रति समर्पित कर दिया है. रचना कहती हैं, "मेरा सपना है कि पूरी दुनिया कुष्ठ से मुक्त हो जाए. मैं मरीजों से कहती हूं कि उनको अपनी बीमारी पर लज्जित होने की जरूरत नहीं है. सब लोग मिल कर काम करें तो इस बीमारी को जड़ से खत्म किया जा सकता है."
क्या है कोई उपाय?
एक अनुमान के मुताबिक भारत में इस बीमारी की वजह से अपने अंग खोने या विकृत होने वाले लोगों की तादाद लगभगा तीस लाख है. यह लोग अब भी समाज की मुख्यधारा से कटे हैं. विशेषज्ञों का कहना है कि कुष्ठ की बीमारी से जुड़ी भ्रांतियां, सामाजिक-सांस्कृतिक मान्यताएं और जागरूकता का अभाव ही इस बीमारी को जड़ से खत्म करने की राह में सबसे बड़ी बाधाएं हैं.
बिहार के सिवान जिले के मैरवा स्थित एक कुष्ठाश्रम में लंबे समय तक काम करने वाले डॉक्टर रामनरेश पाठक कहते हैं, "कुष्ठ के मरीजों के प्रति लोगों की मानसिकता अब तक नहीं बदली है. इस बीमारी की चपेट में आने पर लोग अपने सबसे प्रिय व्यक्ति को भी घर से दूर आश्रम में भेज देते हैं. इस मानसिकता में बदलाव जरूरी है."
होम्योपैथी: इलाज या अंधविश्वास
होम्योपैथी: इलाज या अंधविश्वास
होम्योपैथी को अक्सर इलाज का एक बेहतर तरीका बताया जाता है. लेकिन कुछ वैज्ञानिक इसे खारिज करते हैं. वो होम्योपैथी को फर्जी करार देते हैं.
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क्या है होम्योपैथी
होम्योपैथी इलाज का एक तरीका है, जिसे 200 साल पहले जर्मन डॉक्टर जामुऐल्स हानेमन खोजा. होम्योपैथी के डॉक्टर रोग के लक्षण खोजकर ऐसी दवा देते हैं जो वैसे ही लक्षण पैदा करे. लेकिन वह खुराक इतनी कम देते हैं कि शरीर में दवा का सुराग लगाना मुश्किल हो जाता है.
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खुराक के पीछे सोच
हानेमन को लगता था कि सक्रिय तत्वों से बनी खुराक शरीर में "ऊर्जा की तरह" असर करती है. बारीक करने के लिए तत्वों को पारंपरिक रूप से हिलाया भी जाता है. होम्योपैथी के डॉक्टरों के मुताबिक हिलाने से हुआ कंपन खुराक में समा जाता है. विज्ञान इसे नहीं मानता.
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छोटी छोटी बॉल
होम्योपैथी की खुराक कई तत्वों से बनती है. दवा बनाने के लिए अक्सर आर्सेनिक और प्लूटोनियम जैसे बेहद विषैले रसायन भी इस्तेमाल किये जाते हैं. पोटैशियम सायनाइड और मर्करी सायनाइड जैसे तत्व भी होम्योपैथी का हिस्सा है. होम्योपैथी दवाएं बनाने में जड़ी बूटियों, मक्खियों, जुओं, सांप के जहर, कुत्ते की लार या कैंसर कोशिकाओं का भी इस्तेमाल होता है.
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मरीज को कितनी जानकारी
मरीज को सूचना देना डॉक्टर का दायित्व है. लेकिन आम तौर पर ज्यादातर रोगियों को पता नहीं होता कि होम्योपैथ ने उन्हें क्या दिया है. मेडिकल स्टोर में तो दवा का सिर्फ लैटिन नाम होता है. जर्मनी में आलोचक होम्योपैथी की दवाओं की विस्तार से जानकारी देने की मांग कर रहे हैं.
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कैसे काम करती है गोली
होम्योपैथी दवा के केंद्र में क्रिस्टल शुगर होती है, जो उसे गोल आकार देती है. इसे ग्लोबुली भी कहा जाता है. तरल अवस्था में होम्योपैथी दवा में पानी और अल्कोहल से ज्यादा शायद ही कुछ होता है. हालांकि प्राकृतिक क्रियाओं का असर इस पर हो सकता है. ये गोलियां घातक नहीं होतीं.
होम्योपैथी का खतरा
बेअसर मानी जाने वाली होम्योपैथी के चक्कर में पड़कर लोग समय बर्बाद करते हैं. कैंसर जैसे मामलों में इलाज जितना जल्द शुरू हो, उतना फायदा होता है. बेहतर है कि जरूरी टेस्ट कराए जाएं और बीमारी का ठीक ठीक पता लगाकर असरदार इलाज शुरू किया जाए.
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होम्योपैथी का मनोविज्ञान
होम्योपैथ अक्सर अपने मरीज से कई घंटे तक लंबी बातचीत करते हैं. वे रोगी का मनोविज्ञान समझ लेते हैं और फिर मनोचिकित्सक की तरह काम करते हैं. वे रोगी को भरोसा दिला देते हैं कि वह ठीक हो जाएगा. कई मामलों में ऐसा होता भी है. मानसिक ताकत रोगमुक्त बना देती है. लेकिन कैंसर, हार्ट प्रॉब्लम, शुगर या चोट जैसी स्थिति में होम्योपैथी बेअसर है.