गहरी हैं राजनीतिक भ्रष्टाचार की जड़ें
२४ जून २०१५एक मामूली नगरपालिका पार्षद से लेकर देश के शीर्ष राजनीतिक पदों पर रहने वाले लोगों पर भी अक्सर भ्रष्टाचार के छींटे पड़ते रहे हैं. कांग्रेसी मिल्कियत वाले अखबार नेशनल हेराल्ड और इसके शेयरों के ट्रांसफर का मामला तो एक मिसाल भर है. इस अखबार के मालिकाने के रहस्यमय तरीके से बदलाव ने देश पर कोई छह दशकों तक राज करने वाले नेहरू परिवार को भी कटघरे में खड़ा कर दिया है.
मौजूदा हालात में कोई भी राजनीतिक दल भ्रष्टाचार से अछूता नहीं है. वह चाहे कांग्रेस के नेता, मंत्री और सांसद हों या फिर भाजपा या दूसरे राजनीतिक दलों के. भारत जैसे देश में यह आम धारणा बन गई है कि एक बार सांसद बन जाने पर कम से कम सात पुश्तों के खाने-पीने का इंतजाम हो जाता है. इसलिए इसमें कोई हैरत नहीं होनी चाहिए कि चुनाव आयोग की तमाम पाबंदियों और चुनावी आचार संहिता के बावजूद लोकसभा और राज्यसभा चुनावों में करोड़ों का खेल होता है. तमाम लोग इस भ्रष्टाचार के सभी पहलुओं से अवगत होने के बावजूद चुप्पी साधे बैठे हैं. असली राजनीतिक भ्रष्टाचार की शुरूआत तो यहीं से होती है. तमाम दलों पर मोटे पैसे के एवज में टिकट बेचने के आरोप भी अब आम हो गए हैं. अब जो व्यक्ति पहले मोटी रकम देकर टिकट खरीदेगा और फिर करोड़ों की रकम फूंक कर चुनाव जीतेगा, वह सत्ता में पहुंच कर तो अपनी रकम तो सूद समेत वसूल करने का प्रयास करेगा ही.
बड़े राजनीतिक दलों की बात छोड़ भी दें, तो छोटे और क्षेत्रीय दल भी कम से कम राजनीतिक भ्रष्टाचार के मामले में पीछे नहीं हैं. राष्ट्रीय जनता दल के प्रमुख और लंबे समय तक बिहार के मुख्यमंत्री रहे लालू प्रसाद तो चारा घोटाले में जेल की हवा तक खा चुके हैं. उत्तर प्रदेश में सपा और बसपा जैसी पार्टियों के नेता तो सिर से पांव तक इस भ्रष्टाचार में डूबे हैं. वहां मंत्री पर पत्रकार को जला कर मार देने का आरोप लगता है. लेकिन पैसों के बूते पर उसे भी मैनेज कर लिया जाता है. तमाम दलों में ऐसे नेता भरे पड़े हैं जिनके खिलाफ भ्रष्टाचार और अपराध के दर्जनों मामले लंबित हैं. कार्यपालिका की बात छोड़ दें तो अब न्यायपालिका के दामन पर भी भ्रष्टाचार के धब्बे नजर आने लगे हैं. इस आरोप में अब तक विभिन्न अदालतों के कई जज भी बर्खास्त किए जा चुके हैं.
पश्चिम बंगाल में करोड़ों का शारदा चिटफंड घोटाला किसी से छिपा नहीं है. इसे जिस तरह सत्तारुढ़ पार्टी के नेताओं और मंत्रियों का समर्थन मिला, वह जगजाहिर है. तृणमूल कांग्रेस के एक सांसद और एक मंत्री तो इस घपले में अब तक जेल में सड़ रहे हैं. दरअसल, राजनीति और भ्रष्टाचार के बीच इस दोस्ती की शुरूआत अस्सी के दशक में ही हो गई थी. लेकिन अब इनके आपसी रिश्ते इतने मजबूत हो चुके हैं कि इस बीमारी का कोई इलाज नहीं नजर आता. तो फिर क्या यह सब ऐसे ही चलता रहेगा? देश के विकास के हित में इस पर तुरंत अंकुश लगाना जरूरी है. लेकिन यहां फिर वही सवाल उभरता है कि आखिर इसे रोकेगा कौन? जिन लोगों पर इसे रोकने की जिम्मेदारी है वहीं तो गले तक भ्रष्टाचार के इस कीचड़ में डूबे हैं.
राजनीति और भ्रष्टाचार के इस रिश्ते को खत्म करने के लिए चुनाव संबंधी कानूनों में संशोधन जरूरी है ताकि आपराधिक मामलों वाले लोग चुनाव ही नहीं लड़ सकें. इन रिश्तों के उजागर होने के साथ ही एक बार फिर चुनावी खर्च की सरकारी फंडिंग का मुद्दा भी उठने लगा है. इस समय चुनाव आयोग ने चुनाव खर्च की सीमा जरूर तय कर दी है. लेकिन यह बात तो एक बच्चा भी जानता है कि इस रकम में तो नगरपालिका का चुनाव भी नहीं जीता जा सकता. जिस देश के प्रधानमंत्री से लेकर उसके कई मंत्रियों पर रिलायंस और अडानी से लेकर विभिन्न औद्योगिक घरानों को फायदा पहुंचाने के आरोप लगते रहे हों, वहां नीरा राडिया जैसे सैकड़ों मामले अभी परदे के पीछे छिपे हो सकते हैं. इस मामले में अंकुश लगाने के लिए चुनाव आयोग और संभवतः सुप्रीम कोर्ट को भी पहल करनी पड़ सकती है. हमारे राजनेता तो कम से इस मामले में पहल करने से रहे.
ब्लॉग: प्रभाकर