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गांधी से दूर हटता गांधी का देश

४ मई २००९

भारत में चुनावों को पृष्ठभूमि में रखते हुए जर्मन समाचार पत्रों ने यह आंकने का प्रयास किया कि भारत के शासक अपने वादों और सिद्धांतों पर कहां तक खरे उतरे हैं.

86 वर्ष की एक बुज़ुर्ग मतदातातस्वीर: UNI

स्विट्ज़रलैंड के नोए त्स्युइरिशर त्साइटुंग का कहना है कि सत्तारूढ़ कांग्रेस ने ग़रीबी निवारण योजनाओं के लिए गत पांच वर्षों में अरबों रूपये ख़र्च किये, लेकिन ग़रीबों और किसानों की हालत कुछ ख़ास बदली नहीं हैः

"इसलिए लगभग सभी पार्टियां किसानों के लिए सहायता कार्यक्रमों के वादे कर रही हैं. लेकिन, यह देखते हुए कि देश का बजटघाटा सकल घरेलू उत्पाद के 10 प्रतिशत से भी अधिक हो गया है, इस में शक ही है कि वे अपने लोकलुभावन वादे निभा भी पायेंगी. अब तक की महत्वाकांक्षी योजनाओं का अधिकतर पैसा नौकरशाहों और भ्रष्टाचारियों की ज़ेबों में ही जाता रहा है."

महात्मा गांधी के हिंद स्वराज वाले राजनैतिक घोषणापत्र को प्रकाशित हुए सौ वर्ष हो गये. बर्लिन के टागेसत्साइटुंग का कहना है कि स्वतंत्रता पाने के बाद से भारत सामाजिक न्याय और स्त्री-पुरुष समानता के गांधी के सपने से लगातार दूर ही होता गया हैः

"भारत की राजनीति आज अपनी सत्ता के विस्तार की राजनीति है. वह चाहता है कि उसे केवल क्षेत्रीय शक्ति के तौर पर ही नहीं, आज की बहुध्रुवीय दुनिया में एक 'ग्लोबल प्लेयर' के तौर पर देखा जाये. दूसरी ओर, भारतीय अर्थव्यवस्था तेज़ी से बढ़ रही है और उसी तेज़ी से सामाजिक असमानता भी बढ़ रही है."

चुनाव है वादों कातस्वीर: UNI

भारत के पड़ोसी पाकिस्तान के सुरक्षा बलों ने तालिबान मिलिशिया के विरुद्ध एक अभियान छेड़ा है. लेकिन, दैनिक ज़्युइडडोएचे त्साइटुंग को पाकिस्तान की गंभीरता बहुत विश्सनीय नहीं लगतीः

"इस अभियान के बहाने से पाकिस्तानी सेना इस आरोप का जवाब देना चाहती है कि वह तालिबान से लोहा लेने की या तो इच्छुक नहीं है या सक्षम ही नहीं है. आम तौर पर तो वह इन अतिवादियों से लड़ने के लिए कहीं कम वेतनों और अस्त्रों-शस्त्रों वाले अर्धसैनिक सीमा सुरक्षा बलों को ही भेजा करती थी. सरकार अब यही गुहार लगा रही है कि उसने अमेरिका के दबाव में आकर नहीं, अपनी मन-मर्ज़ी से यह अभियान तेज़ कर दिया है."

यही है वह 'सवाल का निशान' जिसे आप तलाश रहे हैं. इसकी तारीख़05/05 और कोड 4523 हमें भेज दीजिए ईमेल के ज़रिए hindi@dw-world.de पर या फिर एसएमएस करें 0091 9967354007 पर.तस्वीर: DW-TV

फ़ाइनैंशियल टाइम्स डोएचलांड का मत है कि यह बत समझ से परे है कि दुनिया की एक सबसे बड़ी सेना कुछ-एक हज़ार तालिबान लड़ाकों से भिड़ने से बिदकती क्यों रही हैः

"बहुत से प्रक्षकों को संदेह है कि सेना का एक हिस्सा और ये विद्रोही एक ही थैली के चट्टे-बट्टे बन गये हैं. पाकिस्तानी सेना के अधिकारी कुछ-एक उग्र इस्लामवादी गिरोहों को खुले आम लंबे समय तक शह दे रहे थे, ताकि वे भारत के विरुद्ध, और इससे पहले, अफ़ग़ानिस्तान में सोवियत सैनिकों के विरुद्ध लड़ते. उनकी इन हथियारबंद इस्लामवादियों के साथ मिलीभगत है."

संकलन- अना लेमान / राम यादव

संपादन- महेश झा

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