किसानों की आठ राज्यों में हड़ताल जारी है. फल-सब्जी, दूध, दाल आदि की कीमतें बढ़ रही हैं, तो उधर मंत्रियों और नेताओं के अटपट और असंवेदनशील बयान भी. किसानों को रह रह कर आंदोलनों के लिए क्यों विवश होना पड़ रहा है?
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पिछले एक डेढ़ साल के दरम्यान देश में अभूतपूर्व किसान एकजुटता देखने को मिली है. दिल्ली के जंतरमंतर पर तमिलनाडु के किसानों का धरना प्रदर्शन हो, या मध्यप्रदेश के मंदसौर में किसानों का आंदोलन और उन पर हुई गोलीबारी, राजस्थान के किसानों का उग्र प्रदर्शन हो या महाराष्ट्र के किसानों का लॉन्ग मार्च- किसान संघर्ष के ऐसे निराले दृश्य इससे पहले इतने बड़े पैमाने पर आजाद भारत में नहीं दिखे थे. आखिर कोई तो वजह होगी कि किसान अब सड़कों पर उतर रहे हैं, मुखर हो रहे हैं, अपने अधिकारों के प्रति सजग और लड़ाई के लिए प्रतिबद्ध नजर आ रहे हैं. हालांकि इस आंदोलनधर्मिता के साए में नहीं भूलना चाहिए कि किसानों की मौतों की दुखद दास्तानें भी हैं, चाहे वो पुलिस की हिंसा हो या भीषण विवशता में फांसी लगा लेने या जहर खा लेने या कुएं में गिर कर जान दे देने जैसी दिल दहलाने वाली घटनाएं.
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के मुताबिक 2014 से 2015 के बीच किसानों की आत्महत्या के मामले 40 फीसदी बढ़ गए. 2014 में 5650 तो 2015 में ये आंकड़ा 8000 को पार कर गया. सबसे ज्यादा मौतें क्रमशः महाराष्ट्र, कर्नाटक, तेलंगाना और मध्यप्रदेश में दर्ज की गईं. महाराष्ट्र के मराठवाड़ा इलाके की दास्तान तो हिला देने वाली है, जहां 2016 में पहले चार महीनों में ही 400 से ज्यादा किसानों ने फसल की बरबादी, सूखे और कर्ज की बेइंताही में मौत को गले लगा लिया. 80 फीसदी आत्महत्या के मामले कर्जे न चुका पाने से जुड़े थे. ज़्यादातर किसान बैंकों के कर्जदार थे. और ये सिलसिला पिछले दो या तीन साल का नहीं है. 2012 में 13,754, 2011 में 14,207 और 2010 में 15,963 किसानों ने आत्महत्याएं की. 1993 से 2013 की अवधि में करीब तीन लाख किसानों ने अपनी जान ली. रही हिंसा की बात, तो इन्हीं दिनों पिछले साल मध्य प्रदेश के मंदसौर में छह किसान पुलिस गोलीबारी में मारे गए थे.
ये हैं भारतीय किसानों की मूल समस्याएं
भारत की पहचान एक कृषि प्रधान देश के रूप में रही है लेकिन देश के बहुत से किसान बेहाल हैं. इसी के चलते पिछले कुछ समय में देश में कई बार किसान आंदोलनों ने जोर पकड़ा है. एक नजर किसानों की मूल समस्याओं पर.
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भूमि पर अधिकार
देश में कृषि भूमि के मालिकाना हक को लेकर विवाद सबसे बड़ा है. असमान भूमि वितरण के खिलाफ किसान कई बार आवाज उठाते रहे हैं. जमीनों का एक बड़ा हिस्सा बड़े किसानों, महाजनों और साहूकारों के पास है जिस पर छोटे किसान काम करते हैं. ऐसे में अगर फसल अच्छी नहीं होती तो छोटे किसान कर्ज में डूब जाते हैं.
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फसल पर सही मूल्य
किसानों की एक बड़ी समस्या यह भी है कि उन्हें फसल पर सही मूल्य नहीं मिलता. वहीं किसानों को अपना माल बेचने के तमाम कागजी कार्यवाही भी पूरी करनी पड़ती है. मसलन कोई किसान सरकारी केंद्र पर किसी उत्पाद को बेचना चाहे तो उसे गांव के अधिकारी से एक कागज चाहिए होगा.ऐसे में कई बार कम पढ़े-लिखे किसान औने-पौने दामों पर अपना माल बेचने के लिए मजबूर हो जाते हैं.
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अच्छे बीज
अच्छी फसल के लिए अच्छे बीजों का होना बेहद जरूरी है. लेकिन सही वितरण तंत्र न होने के चलते छोटे किसानों की पहुंच में ये महंगे और अच्छे बीज नहीं होते हैं. इसके चलते इन्हें कोई लाभ नहीं मिलता और फसल की गुणवत्ता प्रभावित होती है.
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सिंचाई व्यवस्था
भारत में मॉनसून की सटीक भविष्यवाणी नहीं की जा सकती. इसके बावजूद देश के तमाम हिस्सों में सिंचाई व्यवस्था की उन्नत तकनीकों का प्रसार नहीं हो सका है. उदाहरण के लिए पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के क्षेत्र में सिंचाई के अच्छे इंतजाम है लेकिन देश का एक बड़ा हिस्सा ऐसा भी है जहां कृषि, मॉनसून पर निर्भर है. इसके इतर भूमिगत जल के गिरते स्तर ने भी लोगों की समस्याओं में इजाफा किया है.
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मिट्टी का क्षरण
तमाम मानवीय कारणों से इतर कुछ प्राकृतिक कारण भी किसानों और कृषि क्षेत्र की परेशानी को बढ़ा देते हैं. दरअसल उपजाऊ जमीन के बड़े इलाकों पर हवा और पानी के चलते मिट्टी का क्षरण होता है. इसके चलते मिट्टी अपनी मूल क्षमता को खो देती है और इसका असर फसल पर पड़ता है.
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मशीनीकरण का अभाव
कृषि क्षेत्र में अब मशीनों का प्रयोग होने लगा है लेकिन अब भी कुछ इलाके ऐसे हैं जहां एक बड़ा काम अब भी किसान स्वयं करते हैं. वे कृषि में पारंपरिक तरीकों का इस्तेमाल करते हैं. खासकर ऐसे मामले छोटे और सीमांत किसानों के साथ अधिक देखने को मिलते हैं. इसका असर भी कृषि उत्पादों की गुणवत्ता और लागत पर साफ नजर आता है.
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भंडारण सुविधाओं का अभाव
भारत के ग्रामीण इलाकों में अच्छे भंडारण की सुविधाओं की कमी है. ऐसे में किसानों पर जल्द से जल्द फसल का सौदा करने का दबाव होता है और कई बार किसान औने-पौने दामों में फसल का सौदा कर लेते हैं. भंडारण सुविधाओं को लेकर न्यायालय ने भी कई बार केंद्र और राज्य सरकारों को फटकार भी लगाई है लेकिन जमीनी हालात अब तक बहुत नहीं बदले हैं.
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परिवहन भी एक बाधा
भारतीय कृषि की तरक्की में एक बड़ी बाधा अच्छी परिवहन व्यवस्था की कमी भी है. आज भी देश के कई गांव और केंद्र ऐसे हैं जो बाजारों और शहरों से नहीं जुड़े हैं. वहीं कुछ सड़कों पर मौसम का भी खासा प्रभाव पड़ता है. ऐसे में, किसान स्थानीय बाजारों में ही कम मूल्य पर सामान बेच देते हैं. कृषि क्षेत्र को इस समस्या से उबारने के लिए बड़ी धनराशि के साथ-साथ मजबूत राजनीतिक प्रतिबद्धता भी चाहिए.
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पूंजी की कमी
सभी क्षेत्रों की तरह कृषि को भी पनपने के लिए पूंजी की आवश्यकता है. तकनीकी विस्तार ने पूंजी की इस आवश्यकता को और बढ़ा दिया है. लेकिन इस क्षेत्र में पूंजी की कमी बनी हुई है. छोटे किसान महाजनों, व्यापारियों से ऊंची दरों पर कर्ज लेते हैं. लेकिन पिछले कुछ सालों में किसानों ने बैंकों से भी कर्ज लेना शुरू किया है. लेेकिन हालात बहुत नहीं बदले हैं.
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मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, पंजाब, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, कर्नाटक, हरियाणा और छत्तीसगढ़ के किसानों की ताजा हड़ताल यूं तो दस दिन के लिए है लेकिन पहले चार दिनों में ही उत्तर और मध्य भारत में कीमतों और कमी का हाहाकार मच गया है. फल-सब्जियों और दूध की किल्लत होने लगी है. हड़ताल की अगुवाई इस बार राष्ट्रीय किसान महासंघ कर रहा है, जिसका दावा है कि उसे 130 किसान संगठनों का समर्थन हासिल है और ये आंदोलन सिर्फ आठ राज्यों तक सीमित नहीं, बल्कि देश के कई राज्यों में फैल चुका है. दस जून को आधे दिन का भारत बंद करने का ऐलान भी किया जा चुका है. वैसे, ये भी सच है कि आरएसएस समर्थित भारतीय किसान संघ इस हड़ताल से अलग है. वाम दलों के समर्थन वाली अखिल भारतीय किसान संघर्ष समिति भी इस आंदोलन में शामिल नहीं है लेकिन उसने नैतिक समर्थन कहा है.
कृषि की बदहाली का ठीकरा सिर्फ और सिर्फ खराब मौसम स्थितियों पर फोड़ा गया है. अब हालत ये है कि आर्थिक वृद्धि और अर्थव्यवस्था में संरचनात्मक बदलावों के चलते कृषि और सहयोगी सेक्टरो का जीडीपी में योगदान 2004-05 में 19 फीसदी से घटकर 2013-14 में 14 फीसदी रह गया. और इसमें भी अगर फॉरेस्ट्री और फिशरी को हटा दें, तो कृषि का राष्ट्रीय जीडीपी में करीब 12 फीसदी का योगदान ही रह गया है. दिलचस्प बात ये भी है कि 13 राज्यों में कृषि का जीडीपी योगदान 20 फीसदी से ज्यादा का है. जानेमाने कृषि वैज्ञानिक एमएस स्वामीनाथन की अगुवाई में 2004 में बने आयोग ने 2006 में अपनी पांचवी और आखिरी रिपोर्ट में किसानों के लिए फसल का न्यूनतम समर्थन मूल्य, आंकी गई उत्पादन की औसत लागत से कम से कम 50 फीसदी ज्यादा के स्तर पर तय करने की सिफारिश की थी. मजे की बात है कि 2014 में बीजेपी ने इसे अपने चुनावी घोषणापत्र में जगह भी दी थी लेकिन ये समर्थन मूल्य अब भी दूर की कौड़ी बना हुआ है. जबकि आयोग ने कहा था कि किसानों के पास उतनी टेकहोम राशि आनी चाहिए जितना किसी सिविल सर्वेंट को मिलती है.
औद्योगिकीकरण, शहरीकरण, सेवा क्षेत्र का विस्तार आदि बेशक नई आर्थिकी की अनिवार्यताएं बनती जा रही हैं लेकिन उस बड़ी वर्कफोर्स का क्या होगा जो कृषि में लगी है? गरीबी दूर करने के लिए किसानी छुड़ाने के विकल्प से पहले वर्ल्ड डेवलेपमेंट रिपोर्ट के उस आंकड़े को भी देख लेना चाहिए जो कहता है कि कृषि में एक प्रतिशत की वृद्धि भी गरीबी मिटाने में, गैर कृषि सेक्टरों में समान वृद्धि से कम से कम दो या तीन गुना ज़्यादा असरदार है. अगर सरकार आठ फीसदी ग्रोथ वाली जीडीपी में कम से कम चार फीसदी की ग्रोथ कृषि सेक्टर में नहीं बनाए रख सकती तो कुल वृद्धि बेमानी है. यानी सार्वजनिक नीति में कहीं कोई गड़बड़ है. वो किसान केंद्रित होने से परहेज कर रही है. आप खराब मौसम, बेतहाशा मॉनसून को ही कब तक जिम्मेदार ठहराते रहेंगे? सिंचाई के उन्नत साधनों, जल प्रबंधन, कृषि बीमा, कृषि बाजार, फसल का बेहतर मूल्य, गांवों मे सड़क और बिजली आदि की समुचित व्यवस्था, कृषि तकनीक का विकास, बेहतर उर्वरक और ऋण सुविधा और अदायगी की आसान शर्तें, ये सब बातें एक प्रभावी नीति के लिए जरूरी हैं.
मूर्ख किसान मोटा आलू ही उगायेगा...
रोजाना भोजन में इस्तेमाल होने वाले आलू की खेती किसी दौर में सेनाओं के संरक्षण में हुआ करती थी. भारत की ही तरह आलू जर्मन लोगों के खाने में अहम जगह रखते हैं. एक नजर आलू से जुड़े अजब-गजब तथ्यों पर.
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आलू है मुख्य आहार
आलू जर्मन लोगों का मुख्य आहार है. कभी सूप में, कभी तल कर, कभी फ्रेंच फ्राइज में तो कभी चिप्स में, जर्मन लोगों को आलू बहुत भाते हैं. जर्मनी में प्रति व्यक्ति सालाना तकरीबन 60-65 किलोग्राम आलू की खपत है.
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सेना के संरक्षण में थे आलू
जर्मनी में सन 1630 में आए. कहते हैं कि प्रशिया के राजा फ्रेडरिक द्वितीय आलू के आर्थिक और पोषक फायदों को मानते थे. उन्होंने किसानों से आलू की खेती करवाने के लिये चालबाजियां की और आलू के खेतों की देख-रेख के लिये सेना नियुक्त की.
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बनावट है अहम
आज आलू के तकरीबन 5 हजार प्रकार उपलब्ध हैं. इसलिये डिश के हिसाब से सही आलू चुनना जरूरी होता है. रूप-रंग मसला नहीं है बल्कि बनाने के तरीके पर स्वाद निर्भर करता है. कुछ आलू, सलाद बनाने के लिये उपयुक्त होते हैं तो कुछ बेकिंग और मैश करने के लिये इस्तेमाल होते हैं.
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आलू का सलाद
आलू का इस्तेमाल सलाद बनाने में भी किया जाता है. लेकिन इसे तैयार करने के तरीके अलग-अलग हैं. कुछ लोग आलू के पतले-पतले टुकड़े कर इन्हें गर्म तेल में तलते हैं, वहीं कुछ लोग इसे मायोनीज और अचार के साथ भी खाना पसंद करते हैं.
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पोटैटो डंपलिंग
जर्मन लोग उबले आलू को भी अपने खाने में पसंद करते हैं और ये अलग-अलग तरीकों से तैयार होते हैं. उबले आलू की पकौड़ी (पोटैटो डंपलिंग) को भुने हुये पोर्क के साथ खाना जर्मन लोग बहुत पसंद करते हैं.
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जर्मन स्टाइल चिप्स
एक जर्मन सालाना औसतन 60 किलो आलू के चिप्स खा लेता है. चिप्स की खोज जर्मनी में नहीं हुईं थी लेकिन कुछ फ्लेवर यहीं बने. शिमला मिर्च और नमक वाले चिप्स जर्मनी के थे. अब तो यहां करी, मायोनीज सभी स्वाद उपलब्ध हैं.
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भोजन में फ्रेंच फ्राइज
जर्मनी में पॉमेस नाम से मशहूर इन फ्रेंच फाइज को अक्सर करी या किसी साइड डिश के साथ सर्व किया जाता है. गली-नुक्कड़ों की कई छोटी दुकानों में इसे कई तरह के सॉस के साथ भी देते हैं. ये तरीका पड़ोसी देशों में भी लोकप्रिय है.
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शाकाहारियों की पहली पसंद
आलू को जर्मन किचन का सबसे लजीज और बुनियादी पकवान माना जाता है. आलू को इसके छिलके समेत ही बेक किया जाता है और एल्यूमिनियम फॉइल में लिपटे इन आलुओं को किसी साइड डिश या सलाद के साथ सर्व किया जाता है.
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क्रिसमस मार्केट के राइबेकुखन
कसे हुए आलू, प्याज और कई तरह की चीजें मिलाकर चपटी टिक्की की तरह तल कर बनायी जाने वाली डिश 'राइबेकुखन' कई तरह के सॉस के साथ खाई जाती है. जर्मन क्रिसमस मार्केटों में लोग इसे खूब पसंद करते हैं, खासकर बच्चे.
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जर्मन भाषा में आलू
जर्मन भाषा में आलू पर कई मुहावरे हैं. अंग्रेजी कहावत "फॉरच्यून फेवर फूल्स" (भाग्य मूर्खों का साथ देता है) की तरह, जर्मन में कहते हैं "मूर्ख किसान मोटा आलू ही उगायेगा". जर्मन लोगों को आलू खाना ही नहीं बल्कि इसकी बातें करना भी पसंद है. (कॉर्टनी टेंस, डाग्मार ब्राइटेनबाख/एए)
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किसानों की मांगों को विनम्रतापूर्वक सुलझाने के बजाय हम सरकारों का क्या रवैया देख रहे हैं? उनके मंत्री और नेता भड़काऊ और विवादास्पद बयान दे रहे हैं. किसानों के आंदोलन और हड़ताल को नकली कहा जा रहा है. उन्हें भ्रमित और किसी के हाथ का खिलौना बताया जा रहा है और जब कुछ नहीं सूझा तो उन्हें प्रचार का भूखा करार दिया गया है कि वे मीडिया का ध्यान खींचना चाहते हैं. सोचिए खेतों को सींचने वाले किसानों की लड़ाई क्या ध्यान खींचने तक सीमित है? उन्हें कहा जा रहा है कि वे अपने खेतों और घरों को लौट जाएं और अपनी सब्जी, फल, दूध बरबाद न करें, गांव बंदी न करें यानी शहरों को जाने वाला उत्पादन न रोकें. लेकिन अगर वे "गांव बंद" न करें, जैसा कि इस आंदोलन को नाम दिया गया है, तो कैसे अपनी उपस्थिति और अपने आक्रोश का अहसास तमाम राज्य सरकारों और केंद्र सरकार को कराएं? अपने मानवाधिकारों की हिफाजत के लिए इससे बेहतर उनके पास भला क्या रास्ता होता? क्योंकि बातचीत, समझौते, नियम कायदे, वादे दावे सब हो गए,- किसानों के हाथ कुछ नहीं आया. वे ठगा महसूस कर रहे हैं और इसलिए बार बार आंदोलन की एक कठिन और कभी खत्म न होने वाली डगर पर उतर रहे हैं.
हड़ताल से किसान भारी नुकसान उठा रहे हैं. दूध विक्रेता और डेयरी किसानों को हड़ताल के पहले तीन दिन में दो से ढाई करोड़ रुपये का नुकसान हुआ है. जाहिर है किसान डटे हुए हैं, बेशक वे टूटे नहीं हैं लेकिन वे मरते दम तक यूं ही खड़े रहेंगे- ये कहना भी सच्चाई की अनदेखी करना होगा. ऐसे वक्त में जहां समर्थन और विरोध में पहले नफा नुकसान देख लिया जाता हो, वहां इस स्वतःस्फूर्त आंदोलन की दीर्घजीविता के बारे में क्या सोचना या कहना? हो सकता है कि वे हार मान लें या कुछ समझौते पर राजी हो जाएं या हताश लौट जाएं. लेकिन नैतिक तौर पर प्रखर और पॉलिटिक्ली मजबूत समुदाय के रूप में उन्होंने अपने निशान तो छोड़ ही दिए हैं. उन्हें नजरअंदाज करने की भूल सरकारें और राजनीतिक दल अपने अस्तित्व की कीमत पर करते रह सकते हैं.
दरअसल दूर फलक पर देखा जाए तो ये इस देश में कृषि बनाम कॉरपोरेट की दूरगामी लड़ाई भी है. कॉरपोरेट परस्त सरकारें, सारा अफसर अमला, सारे सरकारी बुद्धिजीवी और अर्थशास्त्री और विशाल जबड़े वाला निजी क्षेत्र एक तरफ और ये किसान अपनी अपनी विभिन्नताओं और अपने अपने संघर्षों में दूसरी तरफ. अगर आज की पीढ़ी और आने वाली पीढ़ियों को खेत विहीन, कृषि विहीन और कृषक विहीन देश चाहिए तो फिर किस्सा यहीं खत्म समझिए. लेकिन आंदोलन और प्रतिरोध की आवाज़ें ऐसे यथास्थितिवाद के सामने खनकती रहती हैं. इतिहास के सबक ये बताते हैं. किसानों की ताजा हड़ताल भी यही बताती है.
लीची वाले बिहार में अब स्ट्रॉबेरी की मिठास
लीची और आम के लिए विख्यात बिहार अब स्ट्रॉबेरी भी उगा रहा है. ठंडे इलाकों में उगने वाले इस फल के बिहार जैसे वातावरण में उगने की कल्पना नहीं की थी लेकिन वैज्ञानिकों की कोशिश और किसानों के हौसले ने इसे मुमकिन कर दिखाया है.
तस्वीर: Bihar Agriculture University
बिहार में स्ट्रॉबेरी
भारत में हिमाचल प्रदेश, महाराष्ट्र और कुछ दूसरे ठंडे इलाकों में स्ट्रॉबेरी की खेती हो रही थी. बिहार के किसानों और कृषि विश्वविद्यालय सबौर के वैज्ञानिकों ने इसे अपने इलाके उगा लिया है. यहां नवंबर से फरवरी तक का मौसम ठंडा रहता है और इसी मौसम में स्ट्रॉबेरी उगाई जा रही है.
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अक्टूबर में शुरुआत
अक्टूबर में इसके लिए पौधे लगाने के साथ काम शुरू होता है. दिसंबर तक पौधे तैयार होते हैं और फिर उनमें फूल आने शुरू हो जाते हैं. इसके बाद के दो तीन महीनों में इनसे फल निकलते हैं. गर्मी आने के साथ ही पौधे सूख जाते हैं इसलिए हर साल नए पौधे लगाने पड़ते हैं.
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हर साल नए पौधे
यूरोपीय देशों और दूसरे ठंडे इलाकों या फिर ग्रीनहाउस में हो रही खेती का यही लाभ है कि यहां हर साल नए पौधे लगाने की जरूरत नहीं होती. एक बार पौधा लगाइए तो कई कई साल तक स्ट्रॉबेरी पैदा होती रहती है. जर्मनी में स्ट्रॉबेरी की कुछ किस्मों से तो छह साल तक फल निकलने का दावा किया जाता है.
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स्वीट चार्ली, कामरोजा, विंटरडॉन, नबीला
बिहार कृषि विश्वविद्यालय में स्ट्रॉबेरी की विशेषज्ञ डॉ रूबी रानी ने बताया कि कई सालों तक 10-12 किस्मों पर प्रयोग किए और फिर देखा कि कुछ किस्में हैं जो यहां उगाई जा सकती हैं. बिहार में उपजाई जा रही स्ट्रॉबेरी की प्रमुख किस्मों में स्वीट चार्ली, कामरोजा विंटरडॉन, नबीला, फेस्टिवल शामिल हैं.
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गर्मी और बारिश का संकट
तमाम कोशिशों के बावजूद पौधों को अप्रैल के बाद जीवित रखने में काफी मुश्किल हो रही है. गर्मी और भारी बारिश के कारण पौधे नष्ट हो जाते हैं, इस वजह से किसानों को हर साल ठंडे इलाकों से पौधे मंगाने पड़ते हैं और फिर उन्हीं को दोबारा खेत में लगाया जाता है.
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पोषक तत्वों से भरपूर
दिल के आकार वाली खूबसूरत स्ट्रॉबेरी दिल के साथ ही ब्लड प्रेशर को नियंत्रित करने और कैंसर को दूर रखने में कारगर है. इसके अलावा कई पोषक तत्वों की मौजूदगी इसे बेहद फायदेमंद बनाती है. यही वजह है कि दुनिया भर में इसकी बड़ी मांग है.
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मुश्किलों से पार पाई
मुश्किलें कई थीं लेकिन वैज्ञानिकों की जुटाई जानकारी और किसानों की मेहनत के बलबूते यह संभव हुआ. फिलहाल भागलपुर, औरंगाबाद, और आसपास के कई इलाकों में करीब 25-30 एकड़ में स्ट्रॉबेरी कारोबारी तरीके से उगाई जा रही है. इसके अलावा छोटे स्तर पर भी कई इलाके में इसे उगाया जा रहा है.
तस्वीर: Bihar Agriculture University
आस पास के इलाकों में भारी मांग
बिहार में उपजी स्ट्रॉबेरी की आसपास के इलाकों में काफी मांग है. पटना, कोलकाता और बनारस के बाजारों में ही सारी पैदावर खप जाती है. यहां स्टोरेज की सुविधा भी नहीं है इसलिए ज्यादातर स्ट्रॉबेरी तुरंत ही बेच दी जाती है. वैज्ञानिक इन्हें प्रोसेसिंग के जरिए लंबे समय तक रखने की तकनीक पर भी काम कर रहे हैं.
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नगदी फसल
यहां किसानों को एक किलो स्ट्रॉबेरी के लिए 200 से 250 प्रति किलो की कीमत मिल रही है. नगदी फसल की भारी मांग को देख कर आसपास के इलाकों के किसान काफी उत्साहित हैं. स्ट्रॉबेरी की खेती में सफलता देख उत्तर प्रदेश के कुछ इलाकों से भी यहां लोग जानकारी के लिए आ रहे हैं.
तस्वीर: Bihar Agriculture University
लीची नहीं स्ट्रॉबेरी
बिहार बासमती धान और अच्छे गेहूं के साथ ही आम और लीची जैसे फलों के लिए विख्यात है हालांकि बदलते वक्त की मार इन पर भी पड़ी है और किसानों को तमाम दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है. स्ट्रॉबेरी ने लोगों को एक नयी फसल उगाने का रास्ता दिखा दिया है.