ऑस्ट्रिया की अदालत ने एक किसान को हजारों यूरो का जुर्माना भरने का आदेश दिया क्योंकि उसकी गाय ने एक सैलानी पर हमला कर उसे मार दिया. अब गायों और किसान सुरक्षा को लेकर सरकार नई नीतियों पर विचार कर रही है.
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ऑस्ट्रिया अब किसानों की सुरक्षा के लिए नई नीतियों पर विचार कर रहा है. 2014 में एक किसान की गाय ने ऑस्ट्रिया के आल्प पहाड़ों को घूमने आई एक जर्मन सैलानी को मार दिया था, जिसके बाद अदालत ने किसान को मृत जर्मन महिला के परिवार को मुआवजा देने का आदेश दिया था.
अदालत के इस निर्णय से किसानों में अंसतुष्टि थी. मामला इतना बढ़ा कि अब सरकार को भी कहना पड़ा है कि आल्प देखने वाले हाइकर्स को "कोड ऑफ कंडक्ट" मतलब तय दिशानिर्देशों का पालन करना होगा. ऑस्ट्रिया के चांसलर कुर्त्स सेबास्टियान ने मीडिया से बातचीत में कहा, "इन दिशानिर्देशों में स्पष्ट रूप से बताया जाएगा कि हम उन लोगों से क्या उम्मीद करते हैं जो पहाड़ी चरागाहों का इस्तेमाल करते हैं."
जर्मन आल्प का खूबसूरत इलाका
आल्प की पहाड़ियां एवरेस्ट जितनी ऊंची तो नहीं, लेकिन खूबसूरत और अपेक्षाकृत सुगम्य जरूर हैं. आल्प के जर्मन हिस्से की खूबसूरती का ये हाल है कि स्थानीय कहावत है कि यहां वही लाए जाते हैं जिन्हें भगवान प्यार करता है.
तस्वीर: DW/L. Hofmann
शाही नजारा
अगस्त 2018 से एक केबल कार लोगों को 1800 मीटर की ऊंचाई पर स्थित येनर पहाड़ों तक ले जाएगी. चोटी तक का छोटा रास्ता तय करने वालों को बैर्ष्टेसगाडेन नेशनल पार्क का खुला नजारा दिखेगा. 1978 में इसकी सथापना इसलिए की गई थी कि इलाके में प्रकृति बिना किसी बाधा के फलती फूलती रहे.
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बैर्ष्टेसगाडेन
बैर्ष्टेसगाडेन का इतिहास ऑगुस्टीन ऐबी के अतीत से जुड़ा है जिसकी स्थापना संभवतः 1102 में हुई थी. स्थानीय नमक और खानों से निकले धातुओं के कारोबार की वजह से बस्ती बढ़ती गई. 1810 में ऑगुस्टीन ऐबी बवेरिया के शासन में आया और अभी भी यहां बवेरिया के शाही परिवार का निवास है.
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पहाड़ों पर ध्यान
नेशनल पार्क सेंटर हाउस डेय बैर्गे में पार्क को हर पहलू से देखा जा सकता है. वहां जंगल के शोर को सिमुलेट किया गया है, प्राकृतिक गतिविधियों को समझाया गया है और नकली जानवरों को देखा और महसूस किया जा सकता है. वहां संदेश लिखा है, प्रकृति की सुंदरता देखिए, उसका संरक्षण कीजिए, उसे बचाइए.
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वात्समन पहाड़
वात्समन पहाड़ इस इलाके का लैंडमार्क है. 2700 मीटर ऊंचा पहाड़ अपने अस्वाभाविक आकार के लिए जाना जाता है. किंवदंती है कि इलाके के बदमाश राजा वात्से को सजा देने के लिए भगवान ने उसे, उसकी पत्नी और बच्चों को पहाड़ बना दिया. ऊंची चोटी वात्से की है और बाकी उसके परिवार वालों की.
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कोएनिगजे झील
ये प्राकृतिक झील बैर्ष्टेसगाडेन नेशनल पार्क की भव्य पहाड़ी दीवारों के बीच स्थित है. फ्योर्द जैसी ये झील 8 किलोमीटर लंबी और 200 मीटर गहरी है. इसकी वजह से ये गर्मियों में भी बहुत ठंडी रहती है. यहां आने वाले पर्यटकों को पर्यावरण सम्मत इलेक्ट्रिक बोट एक पार से दूसरे पार ले जाती है.
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झील की गूंज
झील में आधी दूरी पार करने के बाद कैप्टेन बोट को रोक देता है और एक तुरही निकालकर उसे बजाता है. पहाड़ी दीवारों से टकराती आवाज प्रतिगूंज पैदा करती है. ये गूंज पहाड़ से बार बार टकराती है और नई गूंज पैदा करती है. पहले कभी कभी गोले भी छोड़े जाते थे, लेकिन आग के डर से अब उसे बंद कर दिया गया है.
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तीर्थ वाला गिरजा
आधे घंटे के सफर के बाद इलेक्ट्रिक बोट हिर्शाउ पहुंचती है जो वात्समन के पूर्वी किनारे पर स्थित है. ये जगह 17वीं सदी में बने बार्थोलोमेव चर्च के लिए जानी जाती है, जो ईसाईयों का तीर्थस्थान है. चर्च के पास पुराना शाही लॉज है जहां शाही परिवार शिकार के लिए जाता था. अब वहां रेस्तरां और बीयर गार्डन है.
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विमबाख घाटी
झील का पानी तेज आवाज करता रामजाउ के निकट संकड़ी विमबाख घाटी से गुजरता है. इस घाटी में बने पुल और रास्ते लोगों को 200 मीटर गहरी चट्टानों तक ले जाते हैं. पानी पर गिरकर टूटते सूरज की किरणों से बना विल्डबाख का गहरा नीला रंग खास तौर पर सुंदर लगता है. यहां से कुछ दूरी पर विमबाख कासल है.
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क्लाउसबाखताल का पुल
51 मीटर लंबा सस्पेंशन ब्रिज क्लाउसबाख नदी के दोनों ओर स्थित घाटी को जोड़ता है. बैर्ष्टेसगाडेन नेशनल पार्क में हाइकिंग का लोकप्रिय ठिकाना उकाबों की घाटी के रूप में भी जाना जाता है. अगर समय ठीक ठाक हो तो पर्यटक यहां सुनहरे उकाबों को चीखते चिल्लाते भी देख सकते हैं.
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पहाड़ी हरियाली
क्लाउसबाखताल घाटी में कई सुंदर वादियां हैं और चरागाह भी. बिंजाल्म में पैदल चतकर या एडवेंटर बस पर पहुंचा जा सकता है. ये इलाका संरक्षित है, इसलिए कारों को यहां आने की इजाजत नहीं है. चरागाहों का इस्तेमाल परंपरागत रूप से होता है. यहां सिर्फ गर्मियों में मवेशियों को चरते देखा जा सकता है.
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पहाड़ी मवेशी
बिंडाल्म में पिंसगाऊ की गायें मिलती हैं. ये बहुत ही दुर्लभ प्रजाति है जो खतरे में पड़े मवेशियों की लाल सूची में रजिस्टर्ड है. रात में उन्हें पहाड़ी चरागाहों में छोड़ दिया जाता है और दिन होते ही वापस तबेलों में बांध दिया जाता है. किसान उनके दूध से चीज बनाते हैं जिसे वे इलाके में आने वाले पर्यटकों को बेचते हैं.
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टायरॉल शहर की इस घटना में पहाड़ी चरागाह में रहने वाली एक गाय ने वहां घूमने आई जर्मन महिला पर उसके कुत्ते से डर कर हमला कर दिया था. इस हमले में महिला की जान चली गई थी. अदालत ने इस मामले में गाय मालिक किसान को उसे बाड़ के अंदर न रखने का दोषी पाया था.
मादा गाय को डर रहता है कि कहीं कुत्ते उसके बछड़ों पर हमला न कर दें, इसलिए वह कुत्ते से अपने बच्चों को बचोने की कोशिश में रहती है. ऑस्ट्रिया की पर्यटन मंत्री एलिजाबेथ कोएस्टिंगर ने कहा, "हम नहीं चाहते कि पहाड़ों के चरागाह बंद किए जाएं. इसलिए हमें यहां आने वाले लोगों को जंगली और खेतों में रहने वाले जानवरों के व्यवहार के बारे में बताना होगा." आमतौर पर पहाड़ों में टहलने आने वालों को अपने कुत्ते छोड़ने की सलाह दी जाती है. जर्मन महिला के मामले में कुत्ता उसकी कमर से कसकर बंधा था.
वहीं ऑस्ट्रियाई चांसलर ने अब तक यह तो नहीं बताया है कि सरकार इस दिशा में क्या कदम उठाएगी. हालांकि ये जरूर कहा है कि नई नीतियों में हाइकर्स और उनके साथ आने वाले कुत्तों पर भी विचार किया जाएगा. कुर्त्स ने कहा, "हम उम्मीद करते हैं कि अगर लोग तय दिशानिर्देशों का पालन करेंगे तो ऐसी कोई भी घटना नहीं होगी. वहीं अगर कोई नियमों का पालन नहीं करता और तब कोई दुर्घटना होती है, वह किसी भी तरह का दावा नहीं कर सकेगा."
गाय से मशहूर हुआ गांव
बनारस एयरपोर्ट से लगभग 3 किलोमीटर की दूरी पर बसा रामेश्वर गांव आजकल चर्चा में है. वैसे तो गाय की वजह से भारत में तमाम विवाद हो रहे हैं लेकिन रामेश्वर गांव "काउ टूरिज्म" के लिए मशहूर हो रहा है.
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गाय और गौशालाएं
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय (बीएचयू) के छात्र दिव्यांशु उपाध्याय और कुछ दूसरे छात्र साथियों की मेहनत ने इस गांव को देश के पहले "काउ विलेज" की तरह विकसित किया है. गांव में सौ साल से अधिक पुरानी चार गौशालाएं हैं जिनकी स्थापना बीएचयू के संस्थापक भारत रत्न महामना मदन मोहन मालवीय जी ने की थी. दिव्यांशु और उनके दोस्तों ने इन्हीं गौशालाओं का रूपरंग बदल दिया है.
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गौशालाओं की बदली तस्वीर
गौशालाओं में एक हजार से ज्यादा गाय हैं. दिव्यांशु को इस काम की प्रेरणा एक विदेशी जोड़े ने दी जिसने एक भारतीय गांव में घूमने की इच्छा जाहिर की थी. दिव्यांशु खुद एलएलबी के छात्र हैं. उन्होंन मेहनत कर के इस गांव की सफाई की, गौशाला को खूबसूरत बनाया.
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विदेशी सैलानी
आज इस गांव में विदेशी पर्यटक भी आते हैं. वो गाय के साथ समय बिताते हैं, सेल्फी लेते हैं. इस गांव में करीब 11 धर्मशालाएं हैं जहां रुक कर छुट्टियां मनाई जा सकती है और साथ ही साथ होम स्टे की व्यवस्था भी है. आमतौर पर इस गांव में आने वाले एक रात यहां जरूर बिताते हैं. काशी में विख्यात पंचकोशी यात्रा का तीसरा पड़ाव भी इसी गांव में पड़ता है.
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गांव की दीवारों पर गाय ही गाय
छात्रों ने सफाई के बाद दीवारों पर खूबसूरत पेंटिंग की है. बीएचयू के फाइन आर्ट्स के छात्रों ने अपनी कला इन दीवारों पर बिखेरी है. गांव में लगभग दो किलोमीटर लंबी दीवारों पर गाय के कई चित्र बनाए गए हैं. जिसमें गाय के शरीर में देवताओं का वास और गाय को कामधेनु की तरह प्रदर्शित किया गया है. हर तरफ इस गांव में आपको मंदिर, गाय और उसके चित्र ही दिखेंगे.
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गाय का दूध
इस गांव में अतिथियों का स्वागत दूध से बनी चीजें परोस कर किया जाता है. गांव की गौशाला के अलावा भी यहां लगभग सभी के घर गाय हैं और लोग बहुत खुशी से इनकी सेवा करते हैं. गाय का दूध इनके लिए कमाई का जरिया भी है.
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सेल्फी विद काउ
अब इस "काउ विलेज" में आपको कई आकर्षण मिल जाएंगे, सेल्फी विद काउ, वॉक विद काउ जिसमें आप गाय के साथ घूमेंगे, फीड द काउ, जिसमें आप गाय को चारा खिलाएंगे. आपको खाने में दूध, पेड़ा जो ठेठ गवईं तरीके से गाय के दूध से बना होगा, दिया जाएगा. गांव को पर्यटन विभाग अपने स्तर पर प्रमोट करे इसके लिए दिव्यांशु ने पत्र लिखा है.