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गुम हुई असम की आवाज

५ नवम्बर २०११

ब्रह्मपुत्र की लहरों का शोर पूर्वोत्तर भारत के कोने कोने में एक ही आवाज में गूंजा करता है, असम से निकल कर पूरे भारत के दिल तक पहुंचने वाली मद्धम, गहरी, गरजती भूपेन दा की वह मर्दाना आवाज शनिवार शाम हमेशा के लिए चुप हो गई.

तस्वीर: AP

डॉ. भूपेन हजारिका ने मुंबई के कोकिलाबेन धीरूभाई अंबानी अस्पताल में शनिवार शाम 4 बज कर 23 मिनट पर अंतिम सांस ली. 86 साल के भूपेन दा पिछले कई महीनों से खराब स्वास्थ्य से जूझ रहे थे और इसी साल जून में उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया.

भूपेन दा के नाम दर्जनों फिल्में, डॉक्यूमेंट्री, गीत और संगीत के टाइटल हैं. एक साथ शिक्षा, लेखन, संगीत, गायन, पत्रकारिता और फिल्म निर्देशन में दखल रखने वाले भूपेन दा के रचे रुदाली के संगीत को पहली बार किसी अंतरराष्ट्रीय मंच पर जगह बनाने का गौरव हासिल है.

तस्वीर: AP

असमी भाषा की दूसरी बोलती फिल्म इंद्रामालती में महज 12 साल की उम्र में भूपेन दा ने अपनी आवाज दी और इसके साथ ही वह उस सफर पर निकल चले जिसने ताउम्र उन्हें रुकने नहीं दिया. यह 1939 की बात है. उनकी आखिरी फिल्म चिंगारी थी. 2006 में आई इस फिल्म में उन्होंने प्लेबैक सिंगर और लेखन की जिम्मेदारी निभाई है. इसके अलावा क्यों, दमन, गज गामिनी, साज, दरमियां, दो राहें, रूदाली जैसी फिल्मों में दिए संगीत ने उन्हें हिंदी दर्शकों के बीच लोकप्रिय बनाया.

छोटी उम्र में फिल्मों से जुड़ने के बाद भी भूपेन दा ने पढ़ाई पर इसका कोई असर नहीं होने दिया. गुवाहाटी से 1942 में इंटरमीडिएट की पढ़ाई पूरी करने के बाद वह बीए करने बनारस चले गए. यहीं फिर एमए भी किया और आगे की पढ़ाई के लिए न्यूयॉर्क गए. मास कम्युनिकेशन में कोलंबिया यूनिवर्सिटी से उन्होंने डॉक्टरेट की डिग्री हासिल की और शिकागो यूनिवर्सिटी से फेलोशिप मिलने पर शिक्षा के प्रचार प्रसार में सिनेमा का उपयोग का अध्ययन किया.

हालांकि इतना सब कुछ पढ़ने के बाद उन्होंने फिल्मों और संगीत को ही अपना मुख्य पेशा बनाया. असम, बांग्ला और हिंदी फिल्मों के लिए रचे उनके संगीत ने उन्हें भारत भर में लोकप्रिय बनाया. खासतौर से असम फिल्म इंडस्ट्री के लिए तो वह सबसे बड़ी हस्तियों में एक हैं. बाल कलाकार के रूप में असम फिल्मों के साथ शुरू हुई उनकी पारी फिल्म निर्देशक तक पहुंची. इसके अलावा असमी फिल्मों के विकास में उनके योगदान को भुलाया नहीं जा सकता. गुवाहाटी में पहला फिल्म स्टूडियो उनकी ही देन है.

राजस्थान की रुदालियों के दर्द से लेकर ब्रम्हपुत्र की धाराओं के आवेग और गंगा के विस्तार की थाह भूपेन दा की आवाज में लोगों तक पहुंची है. वह आवाज जो नदियों की धार जैसी मद्धम, चाय जैसी कड़क, घाटियों जैसी गहरी है और जिसमें जज्बातों को टटोलने की हिम्मत है. असम संस्कृति के इस वीर योद्धा ने फिल्मों और संगीत के जरिए भारत और पूरी दुनिया को असम से रूबरू कराया है. अब जब उन्होंने अपनी आंखें मूंद ली हैं. तब सिर्फ पूर्वोत्तर की घाटियों में ही नहीं भारत के कोने कोने में एक गरजती आवाज की खामोशी को महसूस किया जा सकता है.

रिपोर्टः निखिल रंजन

संपादनः वी कुमार

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