गुरुत्वहीनता में तेजी से खत्म होती हैं कैंसर कोशिकाएं
२ सितम्बर २०१९
ऑस्ट्रेलिया के वैज्ञानिक कैंसर कोशिकाओं को अंतरिक्ष में भेजने की तैयारी कर रहे हैं. पृथ्वी पर हुई रिसर्च के दौरान पता चला कि बहुत ही कम गुरुत्व बल की स्थिति में कैंसर कोशिकाएं तेजी से मरने लगती हैं.
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तकरीबन शून्य गुरुत्व बल की स्थिति में जब कैंसर कोशिकाओं को एक दिन रखा गया तो हैरान करने वाले परिणाम सामने आए. 24 घंटे के भीतर 80 फीसदी कैंसर कोशिकाएं मर गईं. यह प्रयोग यूनिवर्सिटी ऑफ टेक्नोलॉजी सिडनी (यूटीएस) में किया गया. इससे पहले जर्मनी में भी वैज्ञानिक ऐसा ही प्रयोग कर चुके हैं. उस प्रयोग के दौरान अलग किस्म की कैंसर कोशिकाएं ली गई थीं. तब भी नतीजे ऐसे ही मिले थे.
यूटीएस के बायोमेडिकल इंजीनियरिंग के रिसर्चर जोशुआ चोउ ने डीडब्ल्यू से बातचीत करते हुए कहा, "मेरे इर्द गिर्द कई लोगों को कैंसर होने लगा, और इसी ने मुझे कैंसर कोशिकाओं की जांच करने के लिए प्रेरित किया." जोशुआ ने यह जानने की कोशिश की कि भारहीनता की स्थिति में कैंसर कोशिकाएं कैसा व्यवहार करती हैं. इससे पहले जोशुआ अंतरिक्ष में हड्डियों के क्षरण को रोकने वाली रिसर्च कर चुके हैं.
जोशुआ कहते हैं, "ऐसा कोई तरीका नहीं है जिसके जरिए हम कैंसर के इलाज के लिए कोई जादुई दवा खोज सकें क्योंकि हर किसी का कैंसर अलग होता है और उनके शरीर की प्रतिक्रिया भी अलग होती है. लेकिन मैं यह जानना चाहता था कि क्या तमाम तरह के कैंसरों में कोई चीज एक जैसी भी है? इसीलिए मैं उन्हें माइक्रोग्रैविटी डिवाइस में डाला."
अंतरिक्ष में कैंसर कोशिकाएं
जोशुआ के शुरुआती परिणाम क्रांतिकारी बताए जा रहे हैं, "हमने शरीर के अलग अलग हिस्सों से चार भिन्न भिन्न प्रकार की कैंसर कोशिकाओं को चुना- स्तन, अंडाशय, फेफेड़े और नाक की कोशिकाएं. हमने उन्हें माइक्रोग्रैविटी परिस्थितियों में डाला. और 24 घंटे के अंदर हमने पाया कि 80 से 90 फीसदी कैंसर कोशिकाएं मर चुकी हैं."
अपने एक छात्र एंथनी किरोलस के साथ मिलकर जोशुआ अब कैंसर कोशिकाओं को अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन में भेजना चाहते हैं. लक्ष्य 2020 का रखा गया है. जोशुआ कहते हैं, "हम देखना चाहते हैं कि क्या माइक्रोग्रैविटी का वाकई में इन कोशिकाओं पर कोई असर होता है या फिर अंतरिक्ष में कुछ और हो सकता है, जैसे सौर विकिरण संबंधी असर."
2017 में जर्मनी की माग्देबुर्ग यूनिवर्सिटी की प्रोफेसर डानिएला ग्रिम ने भी ऐसे नतीजे पाए थे. ग्रिम ने अंतरिक्ष में थाइरॉयड कैंसर कोशिकाओं के व्यवहार की जांच की. एक टिन के डिब्बे में चीनी अंतरिक्ष यान स्पेसएक्स ड्रैगन के जरिए ये कोशिकाएं अंतरिक्ष में भेजी गईं. तब भी ऐसे ही नतीजे सामने आए थे.
स्वस्थ्य शरीर में कोशिकाओं का जन्म, विभाजन और मृत्यु लगातार होती रहती है. क्षतिग्रस्त या बूढ़ी कोशिकाएं खुद मर जाती हैं. इस प्रक्रिया को कोशिकाओं की बायोलॉजिकल आत्महत्या भी कहा जाता है. लेकिन कैंसर के मामले में ऐसा नहीं होता. कैंसर में बीमार, क्षतिग्रस्त या उम्रदराज कोशिकाएं मरती नहीं हैं, वे जीवित रहती हैं और कोशिकीय विभाजन के जरिए अपनी संख्या बढ़ाती रहती हैं.
(कैसे घटित होती है शरीर की मृत्यु)
मृत्यु का विज्ञान
मृत्यु क्या है और इंसान क्यों मरता है, मनुष्य इन सवाल का जवाब हजारों साल से खोज रहा है. चलिये देखते हैं आखिर विज्ञान मृत्यु और उसकी प्रक्रिया के बारे में क्या कहता है.
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विकास से विघटन तक
30 की उम्र में इंसानी शरीर में ठहराव आने लगता है. 35 साल के आस पास लोगों को लगने लगता है कि शरीर अब कुछ गड़बड़ करने लगा है. 30 साल के बाद हर दशक में हड्डियों का द्रव्यमान एक फीसदी कम होने लगता है.
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भीतर खत्म होता जीवन
30 से 80 साल की उम्र के बीच इंसान का शरीर 40 फीसदी मांसपेशियां खो देता है. जो मांसपेशियां बचती हैं वे भी कमजोर होती जाती है. शरीर में लचक कम होती चली जाती है.
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कोशिकाओं का बदलता संसार
जीवित प्राणियों में कोशिकाएं हर वक्त विभाजित होकर नई कोशिकाएं बनाती रहती हैं. यही वजह है कि बचपन से लेकर जवानी तक शरीर विकास करता है. लेकिन उम्र बढ़ने के साथ कोशिकाओं के विभाजन में गड़बड़ी होने लगती है. उनके भीतर का डीएनए क्षतिग्रस्त हो जाता है और नई कमजोर या बीमार कोशिकाएं पैदा होती हैं.
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बीमारियों का जन्म
गड़बड़ डीएनए वाली कोशिकाएं कैंसर या दूसरी बीमारियां पैदा होती हैं. हमारे रोग प्रतिरोधी तंत्र को इसका पता नहीं चल पाता है, क्योंकि वो इस विकास को प्राकृतिक मानता है. धीरे धीरे यही गड़बड़ियां प्राणघातक साबित होती हैं.
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लापरवाही से बढ़ता खतरा
आराम भरी जीवनशैली के चलते शरीर मांसपेशियां विकसित करने के बजाए जरूरत से ज्यादा वसा जमा करने लगता है. वसा ज्यादा होने पर शरीर को लगता है कि ऊर्जा का पर्याप्त भंडार मौजूद है, लिहाजा शरीर के भीतर हॉर्मोन संबंधी बदलाव आने लगते हैं और ये बीमारियों को जन्म देते हैं.
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शट डाउन
प्राकृतिक मौत शरीर के शट डाउन की प्रक्रिया है. मृत्यु से ठीक पहले कई अंग काम करना बंद कर देते हैं. आम तौर पर सांस पर इसका सबसे जल्दी असर पड़ता है. स्थिति जब नियंत्रण से बाहर होने लगती है तो दिमाग गड़बड़ाने लगता है.
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आखिरकार मौत
सांस बंद होने के कुछ देर बाद दिल काम करना बंद कर देता है. धड़कन बंद होने के करीब चार से छह मिनट बाद मस्तिष्क ऑक्सीजन के लिए छटपटाने लगता है. ऑक्सीजन के अभाव में मस्तिष्क की कोशिकाएं मरने लगती हैं. मेडिकल साइंस में इसे प्राकृतिक मृत्यु या प्वाइंट ऑफ नो रिटर्न कहते हैं.
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मृत्यु के बाद
मृत्यु के बाद हर घंटे शरीर का तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस गिरने लगता है. शरीर में मौजूद खून कुछ जगहों पर जमने लगता है और बदन अकड़ जाता है.
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विघटन शुरू
त्वचा की कोशिकाएं मौत के 24 घंटे बाद तक जीवित रह सकती हैं. आंतों में मौजूद बैक्टीरिया भी जिंदा रहता है. ये शरीर को प्राकृतिक तत्वों में तोड़ने लगते हैं.
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बच नहीं, सिर्फ टाल सकते हैं
मौत को टालना संभव नहीं है. ये आनी ही है. लेकिन शरीर को स्वस्थ रखकर इसके खतरे को लंबे समय तक टाला जा सकता है. वैज्ञानिकों के मुताबिक पर्याप्त पानी पीना, शारीरिक रूप से सक्रिय रहना, अच्छा खान पान और अच्छी नींद ये बेहद लाभदायक तरीके हैं.