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समाज

गुलामी से छूटे मजदूर दोबारा बंधक बनने को मजबूर

२८ मार्च २०१९

दो दशक पहले भारत में मानव गुलामी के खिलाफ कानून बन गया था. इसके बावजूद इस बुराई को पूरी तरह से खत्म नहीं किया जा सका. 2016 में सरकार ने कुछ नई नीतियां शुरू की लेकिन अब भी बचाए गए मजदूर फिर गुलाम बनने को मजबूर हैं.

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तस्वीर: picture alliance/AP Photo/A. Nath

तीन साल पहले सरकार ने गुलामी से छुड़ाए गए मजदूरों के लिए मुआवजा बढ़ाने की घोषणा की थी. लेकिन जमीनी स्तर पर इस पर कोई खास काम नहीं हुआ. थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन ने अपनी एक रिपोर्ट में चौंकाने वाले खुलासे किए हैं. सामाजिक कार्यकर्ता पिछले लंबे समय से कह रहे हैं कि गुलामी से छुड़ाए गए लोग अब एक बार फिर बंधक बनने को मजबूर हैं. साल 2016 में सरकार ने लक्ष्य तय किया था कि साल 2030 तक करीब 1.8 करोड़ मजदूरों को गुलामी से मुक्त कराया जाएगा, साथ ही वे दोबारा कर्ज गुलामी के जाल में न फंसे इसलिए उनकी आर्थिक मदद की जाएगी.

तीन सालों में कई हजार मजदूरों को बचा तो लिया गया लेकिन अब तक महज 500 मजदूरों को ही 20,000 रुपये की शुरुआती मदद मिली है. थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन की एक स्टडी के मुताबिक सभी छुड़ाए गए मजदूर शुरू से ही पूरी मदद पाने के हकदार थे लेकिन उन्हें मदद नहीं दी गई. भारत में बंधुआ मजदूरी से बचाने के लिए कानून दो दशक पहले ही आ गया था. इसके बावजूद हाशिए पर रहने वाले समुदायों को खेती, ईंट भट्ठों, चावल मिलों, रेड लाइट इलाकों और घरेलू कामों के लिए अब तक कई जगह गुलाम बना कर रखा जाता है.

नेशनल कैंपेन कमिटी फॉर इरेडिकेशन ऑफ बॉन्डेड लेबर के संयोजक निर्मल गोराना कहते हैं, "बचाए गए लोगों में से तकरीबन 60 फीसदी मजदूर एक बार फिर कर्ज की वजह से होने वाली गुलामी में फंसते जा रहे हैं. अब भी कई लोग बंधुआ मजदूरों की तरह काम करने को मजबूर हैं." वे मानते हैं कि सरकार के पास पैसा तो है लेकिन अब तक वह ऐसे लोगों के पास पहुंचा नहीं है.

संसद में पेश किए गए आंकड़े बताते हैं कि पिछले तीन सालों के दौरान 25 करोड़ रुपये पुराने मामलों को निपटाने में खर्च किए गए. वहीं गोराना बताते हैं कि पिछले तीन सालों में उन्होंने हर साल औसतन 700 से 800 लोगों को बचाया है लेकिन उन्हें कब मदद मिलेगी इसका कुछ पता नहीं.

2016 के नए सिस्टम से पहले करीब 11 हजार लोगों को गुलामी से मुक्त कराया गया जिन्हें उस वक्त बतौर राहत पांच हजार रुपये मिले थे. लेकिन नए नियमों के तहत पीड़ित लोगों के लिए मदद हासिल करना आसान नहीं है.

नियमों के मुताबिक किसी भी पीड़ित को तभी पूरा मुआवजा मिलता है जब तक उसे गुलाम बना कर रखने वाला नियोक्ता या व्यक्ति दोषी साबित ना हो जाए. 

श्रम कल्याण मामलों के महानिदेशक अजय तिवारी कहते हैं कि सरकार इस समस्या से वाकिफ है और अब ऐसे बदलावों पर बात चल रही है जिसमें पीड़ितों को आरोपियों पर दोष साबित होने का इंतजार नहीं करना होगा. तिवारी ने कहा, "हम मौजूदा स्थिति को समझ रहे हैं और जानते हैं कि इसमें कानूनी बदलावों की जरूरत है."

सरकारी आंकड़ों के मुताबिक साल 1976 के बाद से अब तक करीब तीन लाख लोगों को बंधुआ और गुलामी भरी जिंदगी से निकाला जा चुका है. हालांकि 2016 में नई नीति लागू होने के बाद कितने लोगों को बचाया गया इसका कोई ठोस आंकड़ा उपलब्ध नहीं है. 

वहीं सामाजिक कार्यकर्ताओं को चिंता है कि कही आर्थिक मदद में देरी बचाए गए मजदूरों को फिर से गुलामी के दलदल में न धकेल दे. गैर सरकारी संस्था इंटरनेशनल जस्टिस मिशन की एसोसिएट डायरेक्टर टीना जैकब कहती हैं, "2016 में शुरू हुई नई नीति में हजारों लोगों को गुलामी और बंधुआ मजदूरी से बचाने की ताकत है लेकिन यह तभी सफल होगी जब लोगों को पैसा आसानी से मिलने लगे."

जैकब मानती हैं कि जब बंधुआ मजदूरों को निकाला जाता है तो वह काफी घबराए हुए होते हैं. ऐसे में जरूरत है कि उन्हें शुरुआती 30 दिन में ही मदद मिल जाए नहीं तो वे दोबारा मुश्किलों में घिर सकते हैं.

एए/ओएसजे (थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन)

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