दो दशक पहले भारत में मानव गुलामी के खिलाफ कानून बन गया था. इसके बावजूद इस बुराई को पूरी तरह से खत्म नहीं किया जा सका. 2016 में सरकार ने कुछ नई नीतियां शुरू की लेकिन अब भी बचाए गए मजदूर फिर गुलाम बनने को मजबूर हैं.
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तीन साल पहले सरकार ने गुलामी से छुड़ाए गए मजदूरों के लिए मुआवजा बढ़ाने की घोषणा की थी. लेकिन जमीनी स्तर पर इस पर कोई खास काम नहीं हुआ. थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन ने अपनी एक रिपोर्ट में चौंकाने वाले खुलासे किए हैं. सामाजिक कार्यकर्ता पिछले लंबे समय से कह रहे हैं कि गुलामी से छुड़ाए गए लोग अब एक बार फिर बंधक बनने को मजबूर हैं. साल 2016 में सरकार ने लक्ष्य तय किया था कि साल 2030 तक करीब 1.8 करोड़ मजदूरों को गुलामी से मुक्त कराया जाएगा, साथ ही वे दोबारा कर्ज गुलामी के जाल में न फंसे इसलिए उनकी आर्थिक मदद की जाएगी.
तीन सालों में कई हजार मजदूरों को बचा तो लिया गया लेकिन अब तक महज 500 मजदूरों को ही 20,000 रुपये की शुरुआती मदद मिली है. थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन की एक स्टडी के मुताबिक सभी छुड़ाए गए मजदूर शुरू से ही पूरी मदद पाने के हकदार थे लेकिन उन्हें मदद नहीं दी गई. भारत में बंधुआ मजदूरी से बचाने के लिए कानून दो दशक पहले ही आ गया था. इसके बावजूद हाशिए पर रहने वाले समुदायों को खेती, ईंट भट्ठों, चावल मिलों, रेड लाइट इलाकों और घरेलू कामों के लिए अब तक कई जगह गुलाम बना कर रखा जाता है.
नेशनल कैंपेन कमिटी फॉर इरेडिकेशन ऑफ बॉन्डेड लेबर के संयोजक निर्मल गोराना कहते हैं, "बचाए गए लोगों में से तकरीबन 60 फीसदी मजदूर एक बार फिर कर्ज की वजह से होने वाली गुलामी में फंसते जा रहे हैं. अब भी कई लोग बंधुआ मजदूरों की तरह काम करने को मजबूर हैं." वे मानते हैं कि सरकार के पास पैसा तो है लेकिन अब तक वह ऐसे लोगों के पास पहुंचा नहीं है.
संसद में पेश किए गए आंकड़े बताते हैं कि पिछले तीन सालों के दौरान 25 करोड़ रुपये पुराने मामलों को निपटाने में खर्च किए गए. वहीं गोराना बताते हैं कि पिछले तीन सालों में उन्होंने हर साल औसतन 700 से 800 लोगों को बचाया है लेकिन उन्हें कब मदद मिलेगी इसका कुछ पता नहीं.
2016 के नए सिस्टम से पहले करीब 11 हजार लोगों को गुलामी से मुक्त कराया गया जिन्हें उस वक्त बतौर राहत पांच हजार रुपये मिले थे. लेकिन नए नियमों के तहत पीड़ित लोगों के लिए मदद हासिल करना आसान नहीं है.
भारत में कहां कहां हैं मानव तस्करी के गढ़
कई राज्यों में मानव तस्करी के मामले बढ़ गये है. 2016 के आंकड़ों के हिसाब से सबसे ऊपर है पश्चिम बंगाल तो उससे थोड़ा ही पीछे रहा राजस्थान. देखिये भारत में कहां कहां हैं सबसे बुरे हालात.
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पश्चिम बंगाल
2016 में मानव तस्करी के सबसे ज्यादा मामले पश्चिम बंगाल में दर्ज हुए. देश भर में एक साल में कुल 8,132 शिकायतों में से 3,576 केवल इसी राज्य से आईं.
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राजस्थान
मानव तस्करी के कुल मामलों में से 60 फीसदी से ज्यादा मामले केवल पश्चिम बंगाल और राजस्थान से मिले. राजस्थान से 1,422 शिकायतें आयीं.
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गुजरात और महाराष्ट्र
राजस्थान के बाद 548 मामलों के साथ गुजरात का नंबर आता है. सरकारी आंकड़ों के अनुसार, 517 मामलों के साथ महाराष्ट्र में भी ऐसा ही हाल रहा.
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केंद्र शासित प्रदेश
केंद्र शासित (यूटी) प्रदेशों में दिल्ली मानव तस्करी की शियाकतों के मामले में सबसे ऊपर है. यूटी के कुल 75 मामलों में से 66 केवल दिल्ली में थे. हालांकि पिछले साल ये आंकड़ा इससे कहीं ज्यादा 87 था.
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तमिलनाडु और कर्नाटक
दक्षिण भारतीय राज्यों में सबसे बुरा हाल तमिलनाडु का रहा. वहां 2016 में मानव तस्करी के 434 मामले दर्ज हुए. इसके बाद कर्नाटक में 404 मामले सामने आए.
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आंध्र प्रदेश और तेलांगना
आंध्र प्रदेश में 239 और तेलांगना में 229 मामलों के साथ हालात एक से रहे. केरल में मात्र 21 शिकायतें दर्ज हुईं.
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असम
पूर्वोत्तर के राज्यों में 91 मामलों के साथ असम का हाल सबसे खराब रहा. फिर भी 2014 के मुकाबले हालात बहुत बेहतर हुए हैं जब राज्य में 380 ऐसे मामले दर्ज किए गए थे.
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एंटी ह्यूमन ट्रैफिकिंग स्क्वॉड
पूर्वोत्तर के कई राज्यों में सरकारों ने मानव तस्करी को रोकने के लिए खास दस्ते बनाए हैं. ऐसे 10 दस्ते असम में, 8 अरुणाचल में और 5 मणिपुर में हैं.
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पूर्वी राज्य
झारखंड में 109, पड़ोसी राज्य ओडीशा में 84 और बिहार में 43 मानव तस्करी के मामले सामने आए. उत्तर प्रदेश में 79 और मध्य प्रदेश में 51 मामले दर्ज हुए.
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अंतरराष्ट्रीय सहयोग
भारत सरकार ने बांग्लादेश और संयुक्त अरब अमीरात के साथ भी सहयोग के लिए सहमति पत्र पर हस्ताक्षर किए हैं. आरपी/एके (पीटीआई)
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नियमों के मुताबिक किसी भी पीड़ित को तभी पूरा मुआवजा मिलता है जब तक उसे गुलाम बना कर रखने वाला नियोक्ता या व्यक्ति दोषी साबित ना हो जाए.
श्रम कल्याण मामलों के महानिदेशक अजय तिवारी कहते हैं कि सरकार इस समस्या से वाकिफ है और अब ऐसे बदलावों पर बात चल रही है जिसमें पीड़ितों को आरोपियों पर दोष साबित होने का इंतजार नहीं करना होगा. तिवारी ने कहा, "हम मौजूदा स्थिति को समझ रहे हैं और जानते हैं कि इसमें कानूनी बदलावों की जरूरत है."
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक साल 1976 के बाद से अब तक करीब तीन लाख लोगों को बंधुआ और गुलामी भरी जिंदगी से निकाला जा चुका है. हालांकि 2016 में नई नीति लागू होने के बाद कितने लोगों को बचाया गया इसका कोई ठोस आंकड़ा उपलब्ध नहीं है.
वहीं सामाजिक कार्यकर्ताओं को चिंता है कि कही आर्थिक मदद में देरी बचाए गए मजदूरों को फिर से गुलामी के दलदल में न धकेल दे. गैर सरकारी संस्था इंटरनेशनल जस्टिस मिशन की एसोसिएट डायरेक्टर टीना जैकब कहती हैं, "2016 में शुरू हुई नई नीति में हजारों लोगों को गुलामी और बंधुआ मजदूरी से बचाने की ताकत है लेकिन यह तभी सफल होगी जब लोगों को पैसा आसानी से मिलने लगे."
जैकब मानती हैं कि जब बंधुआ मजदूरों को निकाला जाता है तो वह काफी घबराए हुए होते हैं. ऐसे में जरूरत है कि उन्हें शुरुआती 30 दिन में ही मदद मिल जाए नहीं तो वे दोबारा मुश्किलों में घिर सकते हैं.
सबसे ज्यादा न्यूनतम मजदूरी
ओईसीडी के आंकड़ों के मुताबिक दुनिया में सबसे ज्यादा न्यूनतम मजदूरी देने वाले 15 देश ये हैं.