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समाज

गुलामी से मुक्त हुए लोग अब इलाके के नेता हैं

३० जनवरी २०१९

कभी बंधुआ मजदूर रहे तीन लोगों का ग्राम पंचायत के लिए चुना जाना भारत के उन लाखों लोगों की जिंदगी बदलने वाला साबित हो सकता है, जो कर्ज चुकाने के लिए गुलाम बनाए जाते हैं. कम से कम विशेषज्ञ तो यही मान रहे हैं.

Moderne Sklaverei in Indien Ziegelei
फाइल तस्वीर: picture-alliance/dpa

तेलंगाना के पंचायत चुनाव में तीन ऐसे लोग चुन कर आए हैं जो पहले बंधुआ मजदूर थे. इनमें एक विजेता हैं दक्षिण तेलंगाना की 40 साल की कुदुमुला देवम्मा. देवम्मा को दो दशक तक मछुआरों के बीच बंधुआ मजदूरी करनी पड़ी ताकि पति और ससुर के लिए कर्ज की भरपाई हो सके.

100 से ज्यादा मजदूरों को हर रोज अपनी पकड़ी हुई मछलियां उन परिवारों को बेचनी पड़ती थीं जिनके नाव होते थे. नाव के मालिक उन्हें जबरन गांव में रोक कर रखते और इनमें से कई तो ऐसे थे जो तीन पीढ़ियों से इनकी गुलामी झेल रहे थे. 2016 में इन लोगों को मुक्त कराया गया. देवम्मा कहती हैं, "यह कुछ ऐसा है जिसके बारे में मैं सपना भी नहीं देख सकती थी. मेरी प्राथमिकता है मेरे समुदाय की स्थिति को बेहतर करना और उन्हें आजाद रहने में मदद देना."

भारत के खेतों, ईंट के भट्ठों, चावल की मिलों और कोठों में आज भी लाखों लोग बंधुआ मजदूरी करते हैं ताकि कर्ज चुका सकें. इनमें से ज्यादातर अनपढ़ हैं, इनके पास कोई हिसाब किताब नहीं, इन्हें बहुत मामूली मजदूरी मिलती है और ये नहीं जानते कि उनका कर्ज कब चुकता होगा.

भारत में गुलाम बनाने की प्रथा बहुत पहले से थी लेकिन 1976 में ही इस पर रोक लगा दी गई हालांकि अब भी बहुत से लोग इसका दंश झेल रहे हैं.

कर्ज चुकाने के लिए गुलाम बनाए गए लोगों में से दो और लोग भी इसी इलाके में पंचायत के लिए चुने गए हैं. 2016 में भारत ने एक महत्वाकांक्षी परियोजना शुरू की जिसके तहत 1.8 करोड़ बंधुआ मजदूरों को 2030 तक मुक्त कराने का लक्ष्य रखा गया है. हालांकि सिर्फ आजादी मिलने भर से ही कभी गुलाम रहे इन लोगों की मुश्किलें खत्म नहीं होंगी. ज्यादातर छुड़ाए गए मजदूर "गुलामी की मानसिकता" से जूझ रहे हैं. वो इतने भयभीत हैं कि प्रताड़नाओं से भी इनकार करते हैं. इनसे बात करने वाले काउंसलरों का कहना है कि इनके मन में फिर से पकड़े जाने का डर लगातार बना हुआ है और इसलिए ये उनकी शिकायत नहीं करना चाहते.

बंधुआ मजदूरों को छुड़ाने के लिए काम करने वाले एक समाज सेवी संगठन के प्रोजेक्ट कॉर्डिनेटर सीएच वासुदेव राव कहते हैं, "इन पुरुषों और महिलाओं ने जो हासिल किया है वह बड़ी उपलब्धि है और इससे यहां की तस्वीर बदल सकती है. गुलामी से निकल कर नेता बनने की इन लोगों की यात्रा प्रेरणादायी है...आज की जीत ने इलाके के दूसरे लोगों के पुनर्वास को तेज करने का एक शानदार अवसर पैदा किया है."

बंधुआ मजदूरी के खिलाफ अभियान चला रहे लोगों को उम्मीद है कि इस जीत से आधुनिक युग की गुलामी के बारे में लोगों की जगरूकता बढ़ेगी. मुक्त कराए गए लोगों तक सरकार की मुआवजे, घर और रोजगार वाली योजनाओं का पहुंचना आसान होगा. खासतौर से ग्राम पंचायतों के जरिए.

उत्तर बिहार के इलाके से 2014 में रेणु देवी को बंधुआ मजदूरी से मुक्त कराया गया. 2017 में उन्होंने अपने "मालिक" के उम्मीदवार को पंचायत के चुनाव में हरा दिया. इसके बाद उन्होंने पहला काम यह किया कि अपने इलाके को राज्य के बाकी हिस्से से जोड़ने वाली सड़क बनवाई. 

स्थानीय स्तर पर मानव तस्करी से लड़ने वाली एक समाजसेवी संस्था के प्रोग्राम कॉर्डिनेटर जाहिद हुसैन कहते हैं, "गुलामी से मुक्त हुए किसी मजदूर में बोलने का भरोसा पैदा करने के लिए 'महीनों की ट्रेनिंग' की जरूरत पड़ती है." हुसैन बताते हैं, "जब मैं पहली बार रेणु देवी से मिला तो वो इतनी डरी हुई थीं कि कुछ बोल भी नहीं पाती थीं. अब वो काफी बोल्ड हो गई हैं."

एनआर/एमजे (रॉयटर्स)

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